शुक्रवार, 30 दिसंबर 2011

आरक्षण : बैसाखियों पर बढता विकास

इसी विषय पर हाल ही में बने एक पिक्चर का पोस्टर चित्र , गूगल से साभार







बहुत पहले ही भारतीय राजनीतिक के चरित्र को भली भांति परखते हुए किसी ने ठीक कहा था कि भारतीय राजनीति में धर्म ,जाति ,भाषा ,के आधार पर रखे गए विशेष प्रावधानों को वोट बैंक की तरह इस्तेमाल होने के कारण यही आशंका बनी रहेगी कि इसका उपयोग समय समय पर सत्ता के हितों के लिए किया जाता रहेगा । न्यायपालिका ने सरकार और राजनीतिज्ञों के इसी मंसूबे को भांप कर अपने एक महत्वपूर्न निर्णय में ये व्यवस्था दी कि किसी भी सूरत में आरक्षण की सीमा पचास प्रतिशत से अधिक नहीं होनी चाहिए ।

यहां ये देखना बहुत महत्वपूर्ण है कि बीते दो वर्ष में न सिर्फ़ आरक्षण बल्कि एक विशेष वर्ग में आरक्ष्ण को लेकर कई बार पूरे उत्तर भारत की यातायात व्यवस्था को ठ्प्प किया गया । सरकार और प्रशासन की तटस्थता व अक्रियशील रहने का खामियाज़ा न सिर्फ़ यातायात व्यवस्था के चरमराने तक ही भुगतना पडा बल्कि बहुत भारी आर्थिक नुकसान का दंश भी झेलना पडा । यहां तक कि ,बाध्य होकर न्यायपालिका को ही सरकार को झिंझोड कर उठाना पडा ।

 इस बार इस मामले का ज्यादा तूल पकडना स्वभाविक है क्योंकि इस बार आधार जाति से अलग धर्म की ओर मुड गया है । देश के राजनीतिज्ञों के द्वारा अतिधर्मनिरपेक्षतावाद की नीति के तहत बेशक भारत की छवि को मांजने की जबरन कोशिश हो रही है किंतु धर्म , धार्मिक मुद्दों , चिन्हों , धर्म स्थलों को लेकर समाज कितना संवेदनशील है यह किसी से छुपा नहीं है । अल्पसंख्यकों को प्रस्तावित इस आरक्षण का आधार सरकार द्वारा अल्पसंख्यकों की स्थिति पर रिपोर्ट हेतु गठित सच्चर आयोग की रिपोर्ट ही बनी है । इसमें कोई संदेह नहीं कि आज विश्व के अन्य मुस्लिम बाहुल्य देशों के मुस्लिम समाज की स्थित से बहुत बेहतर होने के बावजूद आज भी पिछडेपन और अलगाव का दंश झेल रहा है । शिक्षा, रोजगार, सामाजिक हिस्सेदारी व प्रभाव आदि हर क्षेत्र में अल्प संख्यकों की स्थिति संतोषजनक से नीचे है । बेशक इसकी एक बहुत बडी वजह भी कहीं न कहीं वे खुद ही है ।

अल्पसंख्यकों को आरक्षण , यानि धार्मिक अल्पसंख्यकों को , उनके पिछडेपन से विकास की ओर लाने के लिए एक पूरक प्रयास, थोडी देर केलिए इसे दरकिनार करके सिर्फ़ आरक्षण व्यवस्था पर बात की जाए तो पता चलता है कि संविधान में तात्कालिक उपचार के रूप में अपनाई गए इस व्यवस्था को इतनी बार बुरी तरह से तोडा मरोडा गया कि ये पिछडों के विकास और स्तर के मूल उद्देश्य से ही भटक कर रह गई । सबसे अधिक चिंताजनक बात ये है कि देश के सभी योग्यता सिद्ध करने वाली चुनौतियों को सहज़ बना लेने के बावजूद भी कभी भी ये महसूस नहीं हो सका कि आरक्षण व्यवस्था ने सामाजिक संतुलन में महती भूमिका निभाई । इसके विपरीत इसने जातियों को उपजातियों तक से अलगाव को प्रोत्साहित किया । दूसरी तरफ़ इस व्यवस्था का लाभ पाने वालों को सामान्य गैर आरक्षित वर्ग से एक अघोषित ताना मिलता रहा ।

आज आरक्षण की व्यवस्था ने युवाओं में दो बातें तो पूरी तरह स्थापित कर ही रखी हैं । नौकरियों , दाखिलों , अन्य चुनौतियों में आरक्षण की व्यवस्था यानि अवसरों का बिल्कुल आधा हो जाना , जिसका प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष प्रभाव बाद में उस संस्थान की उत्पादकता पर भी पडता है । दूसरी ये कि जो इस व्यवस्था के लाभ पक्ष की ओर हैं क्या उनकी स्थिति और स्तर ने उनके वर्ग की स्थिति को मजबूत बनाकर उभारा है । कोई भी तात्कालिक उपाय इतनी देर तक लादे नहीं चलना चाहिए कि ऐसा लगने लगे कि यही स्थाई व्यवस्था होकर रह गई है ।

समाजशास्त्री अपने अध्य्यन और निष्कर्ष के आधार पर किसी भी देश में सामाजिक संरक्षण के रूप में आरक्षण की व्यवस्था के लिए धर्म , जाति व भाषा से इतर क्षेत्र को वरीयता दिए जाने की बात करते हैं । सबसे पहला आधार आर्थिक पिछडापन और पीडित गरीब परिवार के जीवन स्तर को एक मानक स्तर पर पहुंचते ही उसके लिए ये व्यवस्था समाप्त हो जानी चाहिए । हालांकि पिछले दिनों योजना आयोग के "गरीब " की परिभाषा ने समाजशास्त्रियों को पुन: सोचने पर विवश किया होगा । इसके अलावा शारीरिक मानसिक विकलांगता , विशिष्ट क्षेत्र , खेल ,कला आदि में प्रदर्शन करने वालों , समाज के लिए कुछ अनुकरणीय करने वालों के लिए इस व्यवस्था को अपनाया जाना चाहिए । लिंग भेद व कन्या भ्रूण हत्या के मद्देनज़र वे महिलाओं को न सिर्फ़ विशेष संरक्षण बल्कि ज्यादा प्रभावी अधिकार देने की बात कहते हैं । भारत का सामाजिक तानाबाना प्राचीनकाल से ही बहु-धर्मीय, बहुजातीय व बहुक्षेत्रीय रहा है , इसलिए अब ये बहुत जरूरी हो जाता है कि नीतियां और व्यवस्थाएं समाज को जोडने वाली बनें ,न कि तोडने वाली । बहरहाल , इस नए अल्पसंख्यक आरक्षण के सियासी और सामाजिक परिणामों की प्रतीक्षा पूरे देश को रहेगी ।

गुरुवार, 29 दिसंबर 2011

महंगी होती शिक्षा : दाखिले की मारामारी




चित्र गूगल खोज़ से , साभार



वर्षांत के दिन बेशक ही साल भर खोए पाए के आकलन और विश्लेषण के दिन होते हैं । किंतु इसके साथ ही राजधानी दिल्ली मुंबई जैसे महानगरों में ये उन अभिभावकों की भाग दौड के दिन होते हैं । राजधानी दिल्ली के स्कूलो में तो नर्सरी के दाखिले की रेलमपेल कॉलेजों में व नामी संस्थानों में प्रवेश सरीखा ही कठिन जान पडता है । राष्ट्रीय
राजधानी क्षेत्र की जनसंख्या में बहुत तीव्र गति से वृद्धि हो रही है । हालांकि पिछले दो दशकों में विद्यालयीय शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक निजि विद्यालयों व संस्थानों के स्थापित होने की दर भी काफ़ी तीव्र रही है । बेशक सरकार व प्रशासन नए स्कूल कॉलेज खोलने , विशेषकर बढ रही जनसंख्या के अनुपात में , सर्वथा विफ़ल रहे । या फ़िर शायद जानबूझ कर ऐसी स्थिति उत्पन्न की गई वर्ना इसकी कोई ठोस वजह नहीं दिखाई देती कि सरकार निजि शिक्षण संस्थानों सब्सिडी दर पर भारी रियायत देकर जमीनों का आवंटन तो कर देती है मगर खुद वहां नए शिक्षण संस्थानों का निर्माण नहीं करती ।

ऐसा भी नहीं है कि देश में स्कूली शिक्षा के लिए कभी कुछ किया सोचा नहीं गया । शिक्षा वो भी नि:शुल्क शिक्षा को अधिकार के रूप में पाने के लिए बने कानूनों के अलावा नवोदय, सर्वोदय, केंद्रीय विद्यालय जैसी राष्ट्रीय योजनाओं पर भी काफ़ी काम किया गया । इसमें कोई संदेह नहीं कि शहरी आबादी के बाहर इन विद्यालयों की सफ़लता बेहद महत्वपूर्ण साबित हुईं । लेकिन इन सबके बावजूद ग्रामीण भारत में प्राथमिक व माध्यमिक शिक्षा ही बडे लक्ष्य बन कर रह गई है । उच्च शिक्षा की तो कल्पना ही बेमानी सी लगती है ।

इस तुलना में नगरीय क्षेत्र की गरीब व पिछडी आबादी के बच्चों की साक्षरता दर ज्यादा बेहतर है । हालांकि शायद ये तथ्य ही वास्तविकता को बताने के लिए पर्याप्त है कि राजधानी दिल्ली के सरकारी प्राथमैक -माध्यमिक विद्यालयों में से १८ प्रतिशत में पेयजल और शौच की तथा २७ प्रतिशत में बच्चों के लिए बैठने पढने की समुचित व्यवस्था नहीं है । इन सरकारी विद्यालयों की इस बदहाल स्थित के कारण ही आज इनमें सिर्फ़ अति निर्धन वर्ग के बच्चे पढने जाते हैं । इससे बडी विडंबना और क्या हो सकती है कि सरकारी विद्यालय होने के बावजूद सरकारी कर्मचारी तो दूर खुद इन विद्यालयों में पढाने वाले शिक्षक तक अपने बच्चों को इनमें नहीं पढाते हैं ।

राजधानी दिल्ली समेत अन्य स्थापित हो रहे महानगरों में आसपास के क्षेत्रों के लोगों के पलायन से शहरी आबादी का दबाव बढता ही गया । पिछले दो दशकों में शिक्षा क्षेत्र में निजि संस्थानों की भूमिका व विस्तार में गजब का विकास हुआ । वैश्विक जगत में हो रही शैक्षणिक क्रांतियों और ई युग के सूत्रपात ने भारतीय युवाओं को विश्व भर में खुद को स्थापित करने का मौका दिया । बच्चों ने वक्त के साथ अपने हाथ मिलाते हुए नए व्यावसायिक , गैर पारंपरिक और भविष्य की चुनौतियों से लडने वाले पाठ्यक्रमों को न सिर्फ़ अपनाया बल्कि बहुत जल्दी ही इसमें अपनी काबलियत भी साबित कर दी । किंतु ये भी तय है कि आज शहरों में शिक्षा की शैली , और उसका घओर व्यावसायिक रूख बच्चों को पढा बढा तो रहा है किंतु शिक्षित कर पा रहा है , इसके लिए सोचना होगा ।

राजधानी दिल्ली में फ़ैले और अब भी स्थापित हो रहे स्कूलों में नर्सरी दाखिले की प्रकिया शुरू हो चुकी है । रोज़ इस तरह की खबरें सामने आ रही हैं कि शिक्षा विभाग और अदालती निर्देशों व सख्त हिदायतों के बावजूद सभी विद्यालय , नई नई तरकीबों से न सिर्फ़ अभिभावकों को परेशान कर रहे हैं। ऐसा हर बार सिर्फ़ इसलिए किया जाता है ताकि अभिभावकों से एक मोटी धनराशि वसूली जा सके । स्कूल अपने यहां वातानुकूलित और गैरवातानुकूलित सुविधा का ढिंढोरा जिस तरह से पीटते हैं वही उनकी मंशा को स्पष्ट करने के लिए काफ़ी है । हालात सिर्फ़ इतने ही तक खराब नहीं हैं, रियायती दरों पर आवंटित ज़मीनों पर खुलने वाले स्कूलों में अनिवार्य रूप से बीस प्रतिशत गरीब बच्चों के दाखिले की शर्त को शायद ही कोई विद्यालय पूरा करता हो । दिल्ली में पैकेजनुमा होता , स्कूली दाखिला आने वाले समय में शहर की गरीब आबादी के लिए एक दु:स्वप्न बन कर रहे जाए तो कोई आश्वर्य नहीं ।



मंगलवार, 27 दिसंबर 2011

राष्ट्रीय संघर्ष का वर्ष ......आज का मुद्दा








भारतीय इतिहास में यदि वर्ष २०११ को सिर्फ़ किसी खास वजह के लिए याद रखा जाएगा तो वो होगा अचानक उठे देशव्यापी जनांदोलन से बने राष्ट्रीय संघर्ष के जन्म वर्ष के रूप में । देश में आज़ादी के बाद लोकतंत्र में आम आदमी को अपने अधिकार और उससे लगातार वंचित किए जाने का एहसास तब हुआ जब अबसे कुछ साल [प्प्र्व आम जनता को सूचना का अधिकार हासिल हुआ । संयोग से ये वैश्विक राजनीति में चल रहे परिवर्तन के दौर का सहभागी बनते हुए देश के युवा,कुछ ईमानदार प्रशासक तथा व्यवस्था के सड गल चुकने के कारण क्षुब्ध हुए विशिष्ट विद्वानों ने समाज के लिए बनाए जा रहे कानूनों की पडताल कर दी ।

ये भारत के राजनीतिक इतिहास में पहली बार हो रहा था कि आम लोग किसी प्रस्तावित कानून , जो कि भ्रष्टाचार के विरूध लाया जा रहा था , के बारे में न सिर्फ़ पूछ और बता रहे थे बल्कि उसकी कमियां बता कर बेहतर विकल्प सामने लेकर खडे थे । देश की राजनीति जो पिछले एक दशक से लगभग दिशाहीन चल रही थी , जनता द्वारा सीधे-सीधे अपना अधिकार मांगने की नई प्रवृत्ति से बौखला कर दोषों को दूर करके जनता का विश्वास पाने के बदले बेशर्म , बेखौफ़ व बेलगाम सा व्यवहार करने लगीं ।

भारतीय मीडिया ने पिछले एक दशक का सफ़र बेहद तीव्र गति से तय किया । बेशक पेशेवराना अंदाज़ व स्वाभाविक जिम्मेदारी के अपेक्षित स्तर से पीछे रहने के बावजूद आज विश्व की आधुनिकतम सूचना तंत्र प्रणाली से कदम से कदम मिला कर चलता मीडिया अब काफ़ी प्रभावी बन चुका है । भारतीय जनमानस के बदलते तेवर और भीतर भरे आक्रोश को चेहरा देकर मीडिया  ने इसे विश्व सुर्खियों में ला दिया । यहां भारतीय लोकतंत्र बहुत से मायनों में खुशकिस्मत साबित हुआ । इसे प्रजातांत्रिक शासन की सफ़लता के लिए सबसे आवश्यक "न्याय की स्थापना " हेतु निष्पक्ष , निडर व काबिल न्यायपालिका का सरंक्षण मिला । भारत के आसपास पाकिस्तान , बांग्लादेश ,श्रीलंका
आदि देशों में राजनीतिक अस्थिरता ने फ़ौरन ही तानाशाही वर्दी शासन को न्यौता दे दिया ऐसे में बडे से बडे राजनीतिक संकट के समय भी भारतीय सैन्य बलों का तटस्थ व अनुशासित रह जाना एक बडी उपलब्धि से कम नहीं हैं ।

देश का हर वर्ग , हर विधा ,हर क्षेत्र ,शिक्षा , स्वास्थ्य , मनोरंजन आदि सब कुछ तीव्र परिवर्तन के दौर से गुजर रहे है । आम आदमी अब पहले से ज्यादा जागरूक हो गया है । इसलिए अब राज्य को ये बात भली भांति समझनी चाहिए कि लोकतंत्र में सबसे अहम बात होती है लोकइच्छा । भारतीय राजनीति , राजनीतिज्ञों के भ्रष्ट आचरण व बेईमान नीयत के कारण अब तक के सबसे निम्न स्तर पर है । आए दिन राजनेताओं के साथ किया जाने वाला व्यवहार , अभिव्यक्ति देने वाले मंचों पर निकल रही भडास आदि को देखने के बाद आम जनता की मनोस्थिति का अंदाज़ा सहज़ हो जाता है ।

आज विदेशों में भारतीयों द्वारा छिपाकर रखे गए काले धन की वापसी का मुद्दा हो ,या भ्रष्टाचार से निपटने के लिए बनाए जा रहे किसी कानून को दुरूस्त करने का मुद्दा । महत्वपूर्ण पदों पर अयोग्य व भ्रष्ट व्यक्ति की नियुक्ति का मुद्दा हो या फ़िर तेज़ी से बढे घोटालों में खुद सरकार के मंत्रियों की भूमिका और ऐसे तमाम मुद्दों पर सरकार ने न सिर्फ़ गैर जिम्मेदाराना व्यवहार किया बल्कि कई बार वह अपना बचाव करते हुए तानाशाही स्वरूप अपनाती लगी । आज देश के चुने हुए जनप्रतिनिधि जो विचार , जो बहस जो तर्क संसद के भीतर उस कानून को कमज़ोर करने के लिए दे रहे हैं , जिसे भ्रष्टाचार को हटाने में सहायक माना जा रहा है , क्या वही तर्क देश की आम अवाम का भी है । यदि ऐसा है तो फ़िर पिछले तीन सौ पैंसठ दिनों में जाने कितनी ही बार उस कानून को बनाने की मांग को उठा कर सडकों पे आते रहे हैं ।


सत्ता और सरकार बेशक अपने अधिकारों के उपयोग -दुरूपयोग से जनता के प्रश्नों और उनकी मांगों को उलझाने के प्रयास में लगी रही हो । किंतु इतना तो तय है कि अब ये सवा अरब की जनसंख्या वाले समूह को हठात ही मूर्ख नहीं बनाया जा सकता । ऐसा नहीं है कि इस परिवर्तन के सब कुछ अनुकूल चल रहा है , बल्कि सच कहा जाए तो ये सब तक उस मिथक को तोडने में भी सफ़ल नहीं हो पाया है कि भारत में ये मानसिकता सिद्ध है कि देश से भ्रष्टाचार को समाप्त नहीं किया जा सकता । लोकपाल-जनलोकपाल बिल का मुद्दा, कानून में बदलेगा या सत्ता और अवाम के बीच संघर्ष बिंदु बनेगा ये तो वक्त ही बताएगा । हां आज जिस तरह से भ्रष्टाचार के विरूद्ध आम लोगों ने अपनी क्षुब्धता ज़ाहिर की है उससे ये अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि आने वाले कानूनों को बनने-बनाने से पहले जनता अपनी कसौटी पर उसे परखेगी ।

देश के लिए ये बहुत संवेदनशील समय है । विश्व आर्थिक मंदी के चपेट में है । प्राकृति अस्थिरता और पर्यावरणीय असंतुलन के साथ आतंकवाद के सबसे खतरनाक स्तर तक पहुंचने की संभावना के बीच चुपचाप विकास की ओर बढते रहना , वैश्विक समुदाय की ईर्ष्या का कारण बनने के लिए पर्याप्त है । विपरीत परिस्थितियों व बुनियादी समस्याओं से दो चार होते रहने के बावजूद देश की जनता ने लोकतंत्र में विश्वास बनाए रखा है । पिछले दिनों महंगाई की बढती दर ने आम आदमी के आक्रोश को मुखर होने के लिए उकसा दिया । आम जनता के सामने आज सबसे बडी चुनौती यही है कि देश को चलाने के लिए और जनप्रतिनिधि कहां से , किसे लाए । भविष्य में देश की जनता को इसी तरह से हर कानून, हर अधिकार और हर नियम के लिए सरकार से भागीदारी करनी होगी , और गलतियों को सुधारना होगा ।

सोमवार, 26 दिसंबर 2011

फ़िज़ूलखर्ची का बीमा







अभी हाल ही में बीमा निवेश वाली दो प्रमुख कंपनियों आईसीआईसीआई लोम्बार्ड तथा बज़ाज़ एलाएन्ज़ ने एक नए तरह के बीमे की शुरूआत की है । इसके तहत शादी-विवाह के आयोजनों के बीमे का प्रावधान किया गया है , जिनमें किसी भी तरह का व्यवधान , किंतु कारण मानवीय न हो ,पडने से शादी हो नहीं पाती है । आज महानगरीय जीवन की आपाधापी में शादी विवाह के आयोजन जैसे समारोह अपना रसूख व शानो शौकत दिखाने का एक बहाना सा बन गए हैं ।

आज सामाजिक परिवेश में आ रहे परिवर्तन न सिर्फ़ रहन-सहन , आचार व्यवहार को बदल रहे हैं बल्कि नई प्रवृत्तियां और प्रचलन गढ रहे हैं । भारत में यूं भी काफ़ी प्राचीन समय से जीचन के प्रमुख पडावों , संस्कारों , रीति रिवाज़ों आदि अवसर्पर जी भरके फ़िज़ूलखर्ची के अवसरों की गुंजाईश रहती आई है । ये दूसरे देशों के लिए शायद विस्मय की बात हो सकती है ,कि आज भी देश के बहुत बडे हिस्से में किसी व्यक्ति की मृत्यु के उपरांत किए जाने वाले कर्मकांड उसके जीवन के किसी अवसर से भी ज्यादा महंगी होती है । ग्राम्य जीवन में तो मानव जीवन्के इस अंतिम संस्कार की परंपरा का निर्वाह उनके आर्थिक पिछडेपन और कर्ज़खोरी का एक अहम कारण था ।

शहरी समाज में बेशक वैवाहिक परंपराओं के साथ -साथ विवाह नामक संस्था के चिर मान्यताकरण में कमी आई हो किंतु इसके आयोजन की आडंबरता विशाल होकर इवेंट मैनेजमेंट सरीखे व्यवसाय का रूप ले चुकी है । भारतीय शहरों में शादी-विवाह के आयोजनों का खर्च अब हज़ारों लाखों से आगेबढकर करोडों अरबो में पहुंच गया है । आज ये तमाम परंपराएं फ़िज़ूलखर्ची और तडक भडक वाले आडंबरों का प्रदर्शन मात्र है । बैचलर पार्टी ,मेंहदी , सेहराबंदी , रिसेप्शन तहा विवाह से जुडी हर परंपरा अब एक इवेंट का रूप ले चुकी है । ज़ाहिर है कि इतने महंगे आयोजन को किसी आशंका से ध्वस्त होने के जोखिम से बचने के लिए ये बीमा सही साबित होगी ।

इस मुद्दे के साथ एक बार फ़िर से इस विषय पर ध्यान अटकता है कि क्या इस देश को फ़िज़ूलखर्च करने की छूट दी जानी चाहिए । जिस देश में दो वक्त का भोजन सुनिश्चित करने के लिए कानून लाने की बाध्यता हो क्या उस देश में वाकई एक रात में धूम धडाके , बेहिसाब भोज्य सामग्री , नाच गान ,मनोरंजन के लिए बहा देना कोई अनुचित प्रवृत्ति नहीं है । शहरों में पिछले एक दशक में फ़ार्म हाऊस संस्कृति ने जलसे दावत की एक ऐसी परंपरा शुरू की जो आज भी विकसित कहे जाने वाले समाज के लिए एक नियमित अपव्यय सा बन कर रह गई है ।

ऐसा नहीं है कि फ़िज़ूलखर्ची को समस्या के रूप में नहीं देखा जा रहा है । अभी कुछ माह पूर्व राजस्थान में मृत्यु भोज को अनावश्यक व अवैधानिक घोषित करके एक बडी शुरूआत की गई । यह दलील दी गई कि जिस देश में प्रतिदिन सैकडों लोग अब भी भूख से मर रहे हों वहां जबरन इतने अन्न का अपव्यय क्या उचित बात है । देश आज एक बहुत बडा वैश्विक बाज़ार बन कर उभरा है । किसी भी नई चीज़ के लिए तो ग्राहकों की एक बडी फ़ौज़ सतत प्रतीक्षारत रहती है । किंतु महानगरीय से नगरीय और कस्बाई परिवेश से होकर ग्राम्य समाज तक विकास और जीवन स्तर में एक अनिवार्य साधन के रूप में अपनाए जाने वाले टीवी मोबाइल , कार, कपडे अब धीरे धीरे अपव्यय का परिचायक बन चुके हैं ।

भारतीय समाज की फ़िज़ूलखर्ची प्रवृत्ति में उसका पूरा साथ निभाया है देश की उत्सवी संस्कृति ने । इस देश के सभी प्रांतों के पास अपने अपने उत्सवों के लिए ढेरों दिन व तौर तरीके उपलब्ध रहे हैं । हां यहां ये तत्य जरूर गौरतलब रहा है कि भारतीय ग्रामीण समाज के उत्सव व परंपराएं त्यौहार आदि न सिर्फ़ कृषि अर्थव्यवस्था के अनुरूप थीं बल्कि उनका मानव जीवन के सदविकास में भी खासा महत्व था ।

भारत में वैश्विक उदारीकरण के दौर के शुरू होते ही पश्चिमी देशों की बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने अपने यहां की संस्कृति के अनुरूप और अतंत: उनके बाज़ारों के लिए एक नए विकल्प के रूप में मदर्स डे , फ़ादर्स डे , वेलेंटाईन डे आदि नए उत्सवों को आधुनिक नगरों में प्रवेश कराया । आज मकर संक्रांति व वसंत पंचमी के स्थान पर वेलेन्टाईन डे की प्रमुखता हावी हो गई है जिसने भारतीय बाज़ारों पर विदेश प्रभावों को चिन्हित सा कर दिया है ।


आज विश्व अर्थव्यवस्था उस दौर में प्रवेश कर चुकी है जब सभी देश व क्षेत्र अपने आर्थिक सामाजिक हितों को सर्वोपरि वरीयता दे रहे हैं । भारत अब तक अपनी बहुत सी विशिष्टताओं के कारण अब तक न सिर्फ़ खुद को मंदी की चपेट को बचाए रख सका है बल्कि विकास की संभावनाओं को भी बरकरार रखा है । इसलिए यह बहुत आवश्यक है कि समाज अपनी इस ताकत को समझे और फ़िज़ूलखर्ची को हतोत्साहित करके देश की आर्थिक संबलता में सहयोग दे । फ़िज़ूलखर्ची के बीमे से अच्छा है बचत से विकास का रास्ता ।

रविवार, 25 दिसंबर 2011

सज़ा ए मौत : न सज़ा , न मौत




अभी हाल ही में आए कुछ अहम फ़ैसलों में अपराधियों को मौत की सज़ा सुनाई गई । इससे पहले  भी मौत की सज़ा मिले आरोपियों , जिनमें अजमल और अफ़ज़ल जैसे आतंकवादी भी हैं को फ़ांसी दिए जाने में हो रही देर ने फ़ांसी की सज़ा अर पुन: बहस छेड दी । इस बीच सर्वोच्च न्यायालय के एक न्यायमूर्ति का विचार इस सज़ा को मानवीयता के विरूद्ध मानने जैसा आया जिसने इस बहस को एक न्यायमूर्ति का विचार इस सज़ा को मानवीयता के विरूद्ध मानने जैसा आया जिसने इस बहस को एक नई दिशा दे दी ।

ऐसा नहीं है कि फ़ांसी की सज़ा पर पहले बहस-विमर्श नहीं हुआ है । अभी कुछ वर्षों पहले जब धनंज़य चटर्ज़ी नामक एक अपराधी , जिसने एक नाबालिग बच्ची का बलात्कार करने के बाद उसकी हत्या कर दी थी की सज़ा पर बोलते हुए तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ ए पी जे अब्दुल कलाम ने अपना विचार देते हुए कहा था कि फ़ांसी की सज़ा सिर्फ़ गरीबों को ही न मिले क्योंकि बडे और रसूखदार अपराधी कानून के शिकंज़े से बच निकलते हैं । उनके इस वक्त्यव्य के बाद एक्नई बहस की शुरूआत हो गई थी कि क्य अगरीब और अमीर के लिए कानून की परिभाषा अलग अलग है ।

इससे अलग अभी हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय के एक न्यायमूर्ति महोदय ने कैपिटल पनिश्मेंट यानि मौत की सज़ा अक पहुंचने से पहले के विधिक मानक यानि " रेयरेस्ट ऑफ़ द रेयर की परिभाषा को सर्वथा अस्पष्ट करार देते हुए इसे दुरूस्त करने की वकालत की । उन्होनें एक विधि विशेषज्ञ के रूप में  अपनी बात रखते हुए कहा किमौजूदा कानून में दुर्लभतम में से दुर्लभ " अपराध मानए व समझने के लिए कोई स्पष्ट दिशा निर्देश नहीं है इसलिए ये पूर्णतया उस न्यायाधीश के विवेक पर निरभर करता है । यही वजह है किकभी कभी निचली अदालतों द्वारा दी गई अधिकतम सज़ा को ऊपरी अदालतों ने बिल्कुल उलट दिया है ।

विश्व के अन्य प्रमुख देशों में भी मौत की सज़ा को लेकर सवर्था भिन्न भिन्न मत हैं । मानवाधिकारों कीवकालत और मानव जीवन की संरक्षा करने वाले देशों ने मौत की सज़ा को न सिर्फ़ अमानवीय करार दिया हुआ है बल्कि इसे पूरे अंतरराष्ट्रीय कानूनों से हटाने केल इए भी बाकायदा मुहिम छेड रखी है । यदि इतिहास को खंगाला जाए तो अब से लगभग ढाई हज़ार वर्ष पहले फ़ांसी की सज़ा को ईरान में अपनाए जाने के साक्ष्य मिलते हैं वो भी पुरूष अपराधियों के लिए । उन्नीसवीं शताब्दी के अंत तक जब तक कि मौत की सज़ा के लिए ज़हर का इंजेक्शन या ऐसी ही किसी अन्य वैकल्पिक प्रणाली प्रचलन में  नहीं आई थी , फ़ांसी की सज़ा ही मुख्य तरीके के रूप में अपनाई जाती रही । आज भी मिस्र , भारत ,पाकिस्तान , मलेशिया , सिंगापुर तथा अमरीका के कुछ राज्यों में यह प्रचलित है ।

संसद पर हमले की दसवीं बरसी पर अफ़ज़ल गुरू की फ़ांसी की सज़ा के क्रियान्वयन में हो रही देरी ने पुन: इस्मुद्दे की ओर ध्यान खींचा है कि किसी अपराधी को मौइत की सज़ा सुनाए जाने और उसे इस सज़ा को दिए जाने के लिए क्या कोई समय सीमा तय होनी चाहिए । धनंजय चटर्ज़ी को सज़ा सुनाए जाने के लगभग डेढ दशक बाद उसे फ़ांसी पर लटकाए जाने के समय भी यही बात प्रमुखता से उछली थी । भारत की बहुस्तरीय न्यायिक व्यवस्था में अंतिम फ़ैसला आने में पहले ही बहुत अधिक विलंब होता है जबकि मौत की सज़ा पाए अपराधियों की अपील का निपटारा वरीयता के आधार पर पहले किया जाता है । अंतिम अदालती फ़ैसले केपश्चात भी मुजरिम के पास राष्ट्रपति के समक्ष दया याचिका दाखिल करने का अधिकार होता है और यहीं से विधिक प्रक्रिया सियासी दांव पेंच में उलझ कर रह जाती है । न तो इन दया याचिकाओं के निपटारे की कोई समय सीमा निर्धारित होती है और न ही इन्हें लेकर कोई मापदंड या दिशानिर्देश तय है ।

इसका परिणाम ये होता है कि जेलों में उच्च सुविधा पाए ये अपराधी गुनाहगार होते हुए भी राजकीय मेहमानों सी सुख सुविधा का लाभ उठाते रहते हैं । सालों साल लटकता इनके सज़ा का क्रियान्वयन जहां एक तरफ़ सरकार व शासन पर भारी आर्थिक बोझ डालता है वहीं दूसरी तरफ़ सेनाव अन्य सुरक्षा बलों के मनोबल को भी बुरी तरह गिरा देता है । अफ़ज़ल गुरू व अज़मल कसाब जैसे दुर्दांत आतंकियों के मामलों में तो ये संभावना भी काफ़ी प्रवल रहती है कि इन्हें जेलों से छुडाने के लिए या बदलालेने के लिए इनके साथी इससे ज्यादा बडी आतंकी घटनाओं को अंज़ाम दें ।


वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सरकार व प्रशासन को इस मुद्दे पर दो बातों के लिए अपना रूख बिल्कुल स्पष्ट कर देना चाहिए । पहली बात ये किक्या मौजूदा कानूनी व्यवस्था में मौत की सज़ा देने न देने पर किसी तरह की बहस विमर्श की गुंजाईश है । यदि नहीं तो किस कारण से राज्य की विधानसभाएं अदालतों द्वारा दोषी करार दिए जाने और फ़ांसी की सज़ा सुनाए जाने के बाद उन अपराधियों को माफ़ किए जाने की मांग उठाती हैं । यदि उन मुज़रिमों कोमाफ़ी दिए जाने या न दिए जाने का अधिकार किसी को है तो वो हैं पीडित और उनका परिवार ।

दूसर अहम मुदा है फ़ांसी की सज़ा सुनाने से लेकर फ़ांसी की सज़ा दिए जाने के बीच के समय कोतय किया जाना । आज लगभग सौ अपराधी देश की भिन्न भिन्न अदालतों में मौत की सज़ा सुनाए जाने के बाद मौत की सज़ा कोपाने की प्रतीक्षा में हैं । सरकार प्रशासन व नीति निउअम तय करने वाली संस्थाओं को अविलंब ही इस दिशा में ठोस निर्णय लेना होगा अन्यथा पहले ही सज़ा का खौफ़ खत्म हो चुके अपराधियों के लिए ये बडी सहज़ सी स्थिति होगी और कानून ,न्यायपालिका ,सेना , पुलिस व सुरक्षा बलों के लिए विकट । फ़िलहाल तो पूरा देश अफ़ज़ल व अज़मल कोदेश के प्रति किए गए आपराधिक दु: साहस का दंड दिए जाने के लिए सरकार की ओर देख रहा है ।

सोमवार, 28 नवंबर 2011

कोहरे का कोहराम







भारतीय रेल द्वारा लगभग हर साल शीतकाल से पहले ये दावा किया जाता है कि उत्तर भारत में छाने वाले कोहरे से निपटने के लिए बहुत सारे वैकल्पिक इंतज़ाम कर लिए गए हैं । किंतु ऋतु के शुरू होते ही रेलों के परिचालन में पहले अत्यधिक विलंब और फ़िर रोज़ाना दर्ज़नों रेलों को रद्द कर्दिया जाना एक नियति बन कर रह गई है ।

सबसे बडी विडंबना ये है कि प्रदूषण के बढते स्तर के कारण अब जहां कोहरे धुंध का प्रकोप ज्यादा बढ रहा है वहीं पूंजी की जरा भी कमी न होने के बावजूद इस स्थाई समस्या से निपटने के लिए कोई गंभीर प्रयास नहीं किया जाता है । गौरतलब तथ्य ये है कि उत्तर भारत का क्षेत्र ही धुंध कोहरे से अधिक प्रभावित होता और संयोग से यही क्षेत्र सघन जनसंख्या वाला क्षेत्र भी है ।

रेलों के परिचालन में बहुत अधिक विलंब और अंतत: उनमें से बहुत के रद्द हो जाने से जहां रेल यातायात व्यवस्था बुरी तरह चरमरा जाती है । वहीं रोजगार की तलाश में निकले परीक्षार्थियों , गंभीर रूप से और तुरंत ईलाज़ पाने वाले मरीज़ , समारोहों उत्सवों में भाग लेने जाने वाले यात्रियों को रेल सफ़र की निर्भरता बहुत भारी पड जाती है । रेलों के विलंब से चलने के कारण जहां यात्रियों को भारी मुश्किल का सामना करना पडता है वहीं स्थिति तब अधिक नारकीय हो जाती है जब अपनी बरसों पुरानी कार्यशैली के अनुरूप न यात्रियों के लिए किसी विकल्प की व्यवस्था करना तो दूर उलटा उन्हें समुचित जानकारी तक मुहैय्या नहीं कराई जाती । वजह भी सीधी सी है , अपने ग्राहकों को समुचित सुविधा न देने के बावजूद भी रेलवे प्रशासन बिल्कुल बेखौफ़ और बेलगाम बना रहता है क्योंकि आम आदमी न तो सही जगह तक अपनी शिकायत पहुंचा पाता है और न ही उपभोक्ता अधिकारों का इस्तेमाल कर पाता है ।


देश का विज्ञानजगत बेशक विश्व में बहुत बडा अहम स्थान न पा सका हो किंतु इतना तो है ही कि आज विश्व भर में हो रहे प्रयोगों और खोजों में भारतीयों का भी योगदान है , चांद पर अन्वेषण की योजनाएं बन रही हैं , और सॉफ़्टवेयर में भारतीय इंजिनियरों की बढती ताकत से तो अमेरिका तक को रश्क हो रहा है । इसके बावजूद भी पिछले आधे दशकों में भारतीय रेल की इस शाश्वत समस्या से नहीं निपटा जा सका , या कहा जाए कि ईमानदार कोशिश ही नहीं की गई । इसका परिणाम ये रहा कि इन दिनों अपेक्षित रूप से रेल दुर्घटनाएं बढती रहीं और ये आज भी बदस्तूर ज़ारी हैं ।

भारत विश्व की महाश्क्तियों में गिने जाने को आतुर है तो ये निश्वय ही अच्छी बात है किंतु उसके लिए उसे निश्चित रूप से एक देश के विकास के लिए बुनियादी जरूरतों में से एक बहुत जरूरी परिवहन व्यवस्था को बिल्कुल चुस्त दुरूस्त करना ही होगा । मौजूदा समय में तो प्रदूषण के बढते जाने के कारण इस धुंध की समस्या को गंभीरता से लिया जाना चाहिए । देश के भावी विज्ञानियों और विज्ञान अन्वेषकों को भी इस समस्या से निज़ात पाने के लिए प्रयोगों पर ध्यान देना चाहिए , अन्यथा ये एक नासूर का रूप ले लेगा ।

रविवार, 27 नवंबर 2011

पुरस्कार नहीं तिरस्कार का समय है ये


उफ़्फ़ इस दोस्ती की दास्तां 



प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जी ने पडोसी देश पाकिस्तान के प्रमुख गिलानी को शांति का दूत बताकर भारत-पाक रिश्ते में एक नई पहल की कोशिश की । सरकार के कूटनीतिज्ञ इस वक्तव्य व पहल को ज़ायस ठहराते हुए ये तर्क देर हे हैं कि आपसी रिश्तों को बातचीत से ही सुधारा जा सकता है । आज़ादी के बाद से अब तक जाने कितनी ही बार इस तरह की नई पुरानी पहल के प्रयास और उसका परिणाम पूरा देश देख चुका है । आम आदमी तो हर बार इस तरह की पहल के परिणाम का खामियाज़ा तक भुगतना पडता है । ये ठीक है कि पडोसी राष्ट्र से संबंध स्थिर और स्वस्थ हों तो देश का विकास और शांति द्विगुणित हो जाती है । इसलिए पडोसी राष्ट्रों के साथ रिश्ते मधुर करने का प्रयास निरंतर होते रहना चाहिए , किंतु ऐसे राष्ट्र के साथ कतई नहीं जो आज विश्व आतंकवाद का गढ बना हुआ है ।


हर राष्ट्र का एक चरित्र होता है और इस लिहाज़ से पाकिस्तान की छवि एक आतंक पोषित राष्ट्र की है । विश्व के सभी सुरक्षा एजेंसियों का मानना है कि विश्व के सभी आतंकी गुटों का संबंध कहीं न कहीं पाकिस्तान से है । अमेरिकी सैनिकों द्वारा किए गए विशेष अभियान के बाद विश्व के सबसे वांछित आतंकी सरगना ओसामा बिन लादेन को पाकिस्तान में उसके गुप्त ठिकाने पर मारा गया । दाऊद इब्राहिम सहित जाने कितने ही दुर्दांत आतंकियों के पाकिस्तान में छिपे होने की आशंका जताई जाती रही है ।


पिछले दो दशकों में भारत में होने वाली आतंकी घटनाओं में से अधिकांश के लिए पाकिस्तानी आतंकी ही जिम्मेदार रहे हैं । इन परिस्थितियों में यदि प्रधानमंत्री पडोस के प्रमुख को शांति का दूत बताते हैं तो उन्हें देशवासियों को ये भी बताना चाहिए कि इसका आधार बना है । इस तरह की किसी भी पहल , किसी सार्वजनिक बयान और किसी भी नए प्रस्ताव से पहले आतंकी घटनाओं में मारे गए लोगों के परिवारजनों की भावना का ख्याल रखना क्यों जरूरी नहीं समझा जाता ?


एक तरफ़ सेना व सुरक्ष एजेंसियां बार बार संभावित खतरे की चेतावनी दे रही हैं और दूसरी तरह प्रधानंत्री इस तरह का बयान दे रहे हैं । इस मुद्दे का एक महत्वपूर्ण पहलू ये है कि पाकिस्तान के राजनीतिक वर्चस्व में हमेशा से पाकिस्तानी सैन्य अधिकारियों का प्रभाव रहा है । ऐसे में किसी राजनेता के साथ कोई संधि वार्ता ,नया समझौता कितना कारगर साबित होगा इसका अंदाज़ा सहज़ ही लगाया जा सकता है ।


सबसे जरूरी बात ये है जब पूरा देश मुंबई हमले के आरोपी कसाब को मृत्युदंड दिए जाने की प्रतीक्षा में है उधर प्रधानमंत्री पडोसी मुल्क के मुखिया को शांतिदूत बनाए दे रहे है । वास्तव में ये समय शांति , सहकार और पुरस्कार का नहीं बल्कि तिरस्कार का समय है । आज जब अमेरिका ने भी पाकिस्तान को दुत्कार दिया है तो यही समय है भारत भी इस राष्ट्र के साथ " शठम शाठयेत चरेत " जैसा व्यवहार करे ।

बुधवार, 23 नवंबर 2011

सुरक्षा , खानपान और स्वच्छता : भारतीय रेल , तीनों में फ़ेल







अभी कुछ दिनों पहले ही सुना था कि भारतीय रेल ने अपने मुनाफ़े को देखते हुए अपने कर्मचारियों को भारी भरकम बोनस दिया था । वाह ! क्या अच्छी बात है यदि इस महंगाई के दौर में कोई सार्वजनिक उपक्रम अपने मुनाफ़े में से एक बडा हिस्सा अपने कर्मचारियों के बीच में बांटता है ।और लगभग ऐसी ही खबर पिछले कई वर्षों से सुनने पढने को मिल जाती है । कुछ वर्षों पहले तो रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव ने इतना बडा मुनाफ़ा घोषित कर दिया था भारतीय रेल के नाम कि मानो लगने लगा कि कहीं  भारतीय रेल को रिजर्व बैंक न घोषित करना पड जाए । इतनी बडी बडी उपलब्धियों के बावजूद जब ताज़ातरीन घटना दून एक्सप्रेस अग्निकांड जैसी कोई घटना सामने आती है तो एक बडा सवाल उछल कर सामने आ जाता है कि आखिर क्या कारण है कि साठ वर्षों के बाद भी भारतीय रेल किसी भी परिवहन व्यवस्था के लिए बुनियादी अनिवार्यता होती है - सुरक्षा , खानपान और स्वच्छता ।


जहां तक स्वच्छता और खानपान व्यवस्था की बात है तो उस दिशा में तो फ़िर भी कुछ सोचा और किया गया है । प्रयोग के तौर पर ही निजि कंपनियों को रास्ते में भोजन की व्यवस्था और उत्तर पूर्व रेलवे में सफ़ाई की व्यवस्था भी निजि कंपनियों को देकर उसे दुरूस्त करने का प्रयास किया गया । किंतु यहां भी अधिकारियों व प्रशासन द्वारा इसे गंभीरता से न लेना व संचालक लोगों द्वारा अधिक मुनाफ़े के लालच ने कुल मिला कर ये हाल किया है कि लोग अब अधिकांशत: घर से ही ले जाना पसंद करते हैं । दूर के सफ़र में भी वे विकल्प तलाशने की जुगत में रहते हैं । अगर स्वच्छता की बात करें तो इसमें रेलयात्री खुद भी कम जिम्मेदार नहीं होते । भारत में सफ़र के दौरान भारी भरकम सामान ढोने की परंपरा , बर्थ और सीट पर खाने पीने के दौरान चींज़े बिखेरना , प्रसाधनों का गलत तरीके से इस्तेमाल , सहायता व सहयोग करने की व्यावहारिकता का अभाव आदि कुल मिला कर खुद यात्रियों के लिए नारकीय स्थिति पैदा कर देते हैं । भारत में रोजी रोटी की तलाश में पलायन एक सामाजिक मजबूरी है , फ़िर भारत की त्यौहारीय संस्कृति सफ़र को संभावित बनाती है । शहरों की तनाव भरी जिंदगी से राहत लेने व धार्मिक यात्राओं के उद्देश्य से भी भारतीय अपने जीवन में बहुत सी रेल यात्राएं करते हैं । इसलिए ये बहुत जरूरी हो जाता है कि अब एक ऐसी संस्कृति का निर्माण किया जा सके कि लोगों को सफ़र के दौरान अनुशासित व्यवहार करने में अभ्यस्त किया जाए ।


भारतीय रेल यात्रा के संदर्भ में सबसे जरूरी और उतना ही उपेक्षित बिंदु है यात्रियों की सुरक्षा ।  स्थिति कितनी गंभीर है कि अब तो लगभग रोज़ ही रेल और रेल दुर्घटनाओं के सामने आने से ऐसा लगने लगा है मानो रेल भी सडक मार्ग से ही चल रही हो । बरसों पुरानी पटरियां , पुराने हो चुके उपकरण व बरसों पुरानी तकनीक , व नियम कानूनों खुले आम उल्लंघन ऐसे कुछ अहम कारण हैं जिसके कारण रेल दुर्घटनाओं में लगातार वृद्धि हो रही है । आश्चर्य की बात ये है कि प्रति वर्ष हज़रों लोगों की मुत्यु  रेलवे क्रासिंग को पार करने के दौरान रेलों की चपेट में आने के कारण हो जाती है । दो रेलों की आपसी टक्कर , पटरी से उतर जाने के कारण व अन्य ऐसे ही कारणों की वजह से भारतीय रेल ,यातायात साधनों के लिए निर्धारित सुरक्षा मानकों के दृष्टिकोण से बिल्कुल फ़ेल नज़र आता है । शीत ऋतु के आते ही कोहरे और धुंध की समस्या से रेलवे परिचालन का बुरी तरह लडखडा जाना , भारतीय रेल की बरसों पुरानी विवशता है ।


भारतीय रेल में सवारी किरायों की दर में वृद्धि के संकेत दे दिए गए हैं , यात्री पहले की तरह अब भी बढी हुई दरों पर भी रेल यात्रा ज़ारी रखेंगे ये तय है , किंतु क्या अब ये जरूरी नहीं हो गया है कि , मुनाफ़े के बावजूद भी सुरक्षा उपायों पर काम न किए जाने और ऐसे हादसों के लिए किसी कि जिम्मेदारी तय न किए जाने की प्रवृत्ति से निज़ात पाई जाए । यात्रियों को ये बताया जाए कि उससे किराए के रूप में वसूला जा रहा पैसा , किसके लिए कितना देना पड रहा है । एक यात्री के रूप में किसी को सुरक्षित उसके गंतव्य में पहुंचाने की जिम्मेदारी भारतीय रेल को समझनी चाहिए अन्यथा सबसे बडे सार्वजनिक उपक्रम का गर्व होना समीचीन नहीं जान पडता । और इससे अलग एक जरूरी बात ये कि लोगों को भी अब खुद को बदलना होगा , सफ़र के दौरान किया जाने वाला व्यवहार और चौकसी की आदत को विकसित किया जाना चाहिए ।

सोमवार, 21 नवंबर 2011

मानवीय त्रासदी : एक नियमित नियति












राजधानी दिल्ली के पूर्वी क्षेत्र की कॉलोनी नंद नगरी में किन्नरों के एक सम्मेलन में अचानक्भडकी आग ( जिसे प्रारंभिक जांच में शार्ट सर्किट से अल्गी आग माना जा रहा है ) ने पंद्रह किन्नरों की बलि ले ली । लगभग सौ किन्नर अब भी जले -झुलसे हुए विभिन्न अस्पतालों में अपना ईलाज कर रहे हैं । इस तरह की मानवीय त्रासदी और उसमें आम लोगों की मौत अब एक नियमित नियति सी बन कर रह गई है । अभी चंद दिनों पहले ही हरिद्वार के कुंभ में इसी तरह की एक मानवीय त्रासदी से कई निर्दोष लोगों की जान गई थी । 


कुछ समय के अंतराल पर बार बार होते घटते ये हादसे दो बातें तो बिल्कुल स्पष्ट कर देते हैं । पहली बात ये कि सरकार व प्रशासन की नज़र में आम आदमी के जीवन मौत की कोई कीमत नहीं है और शायद यही वजह है कि इतने हादसों के बावजूद भी आज तक सरकार की आपदा प्रबंध्न नीति लगभग नगण्य है । 


यदि मौजूदा घटना का ही संदर्भ लें तो अधिकतम एक हज़ार व्यक्तियों के लिए बने सामुदायिक भवन में पाम्च हज़ार लोगों का जमावडा हो जाता है । पुलिस कहतीह ै कि ऐसे आयोजनों के लिए अपेक्षित अनुमति व सुर्क्षा उपाय जांच कर लिए गए थे । जबकि अग्निशमन विभाग ठीक उलट दोषारोपण करते हुए कहता है कि न तो अग्निशमन विभाग से वांछित अनुमति ली गई थी और सुरक्षा उपायों की भी गंभीर अनदेखी की गई ।  

सरकार व प्रशासन हमेशा की तरह जांच बिठाने व मुआवजा घोषित करने की औपचारिकता निभा कर पुन: अगली त्रासदी तक चुप बैठ जाएगा । जहां तक आम लोगों की बात है तो सबसे विकट प्रश्न यही है कि जब आम आदमी ही इसका शिकार होता है , और इन तमाम त्रासदियों के बाद रोता बिलखता बचता भी आम आदमी ही है तो क्या इससे बेहतर ये नहीं है कि जहां तक संभव हो वो खुद इसका कारण बनने से बचे । ऐसी घटनाओं में अक्सर ही भगदड में मरने घायल होने वालों में महिलाएं और मासूम बच्चे ही होते हैं । क्या ये जरूरी है कि आयोजन स्थल पर भीड की संभावना अपेक्षित होने के बावजूद बच्चों को वहां ले जाया जाए । आखिर कब तक ऐसे आयोजनों में सुरक्षा मानकों की अनदेखी होती रहेगी ?आखिर कब तक ऐसी दुर्घटनाओं की जांच रिपोर्ट अगली पचास घटनाओं के होने तक आती और ठंडे बस्ते में जाती रहेगी ? बेशक आम आदमी के पास इस बात का कोई जवाब न हो लेकिन तब तक उसे खुद ही खुद को बचाए रखना तो होगा ही । 

शनिवार, 19 नवंबर 2011

भारतीयों का अपमान








भारत के पूर्व राष्ट्रपति और विश्व विख्यात वैज्ञानिक डॉ.अब्दुल कलाम के साथ अमेरिकी सुरक्षा अधिकारियों ने यात्री जांच के नाम पर अपमानजनक व्यवहार किया । पिछले दिनों इस तरह की घटनाएं न सिर्फ़ भारतीय राजनेताओं ,बल्कि मंत्रियों ,खिलाडियों व अभिनेताओं के साथ गाहे बेगाहे होती रही है । हालांकि इस बार भारत के तीव्र विरोध और आपत्ति दर्ज़ कराने के अमेरिका ने माफ़ी मांग ली है । फ़िर भी कुछ बातों पर गौर किया जाना जरूरी है ।


भारत की छवि विश्व समुदाय में एक सहिष्णु और शांति पसंद राष्ट्र की है । पिछके कुछ समय में भारत अमेरिका के आप्सी रिश्ते भी सकारात्मक से ही रहे हैं । अमेरिका पर हुए आतंकी हमलेके बाद से ही अमेरिका ने अपनी सुरक्षा व्यवस्था को उच्चतम स्तर पर रखा हुआ है । किंतु उसके बावजूद भी डॉ. कलाम जैसी शख्सियत के साथ ऐसा व्यवहार सर्वथा अनुचित व निंदनीय है ।


इससे अलग एक और बात ध्यान देने योग्य है कि चाहे  भारतीय राजनेता हों या भारतीय खिलाडी और तो और हिंदू देवी-देवताओं का भी अपमान पूरे विश्व समुदाय के अलग अलग देशों व लोगों द्वारा किया जाता रहा है । भारत की संस्कृति प्राचीनकाल से ही अतिथि देवो भव वाली रही है और शायद इसी अतिसहिष्णुता का खामियाजा देशवासियों को भुगतना पडता है ।

यदि विशिष्ट और सम्माननीय लोगों के साथ इस तरह का व्यवहार किया जा सकता है तो आम लोगों के साथ किस तरह का बर्ताव होता है और कैसा हो सकता है , इसकी कल्पना सहज़ ही की जा सकती है । अब समय आ गया है कि अमेरिका को ये एहसास कराया जाना बहुत जरूरी है कि वो भी वैश्विक समाज का एक हिस्सा भर है , उसके ऊपर राज करने वाला कोई निरंकुश तानाशाह नहीं है , फ़िर चाहे अमेरिका जैसे देशों को उनकी गलती का ठीक ठीक एहसास कराने के लिए उनके नागरिकों के साथ  भी एक आध बार ऐसा ही व्यवहार करना पडे ।



शुक्रवार, 11 नवंबर 2011

करवट बदलती सोच ....






आखिरकार वही सब हो रहा है और ठीक वैसा ही हो रहा है जैसा कि आशंका तब बार बार जताई जा रही थी जब अचानक ही लगने लगा था कि इस तरह के जनांदोलन को कुचलने के लिए सरकार और सत्ता से जोंक की तरह चिपके हुए लोग ,कुछ भी कर सकते हैं किसी भी हद तक जा सकते हैं । उन्हें बहुत ही अच्छी तरह भारतीय जनमानस की संवेदनशीलता का अंदाज़ा है , वे जानते हैं इस देश ने पिछले साठ वर्षों में , एक उपनाम के सहारे , धर्म ,धर्मस्थल , जाति , आरक्षण जैसी बातों और मुद्दों पर ही सरकार बनती गिरती देखी है । आज तक भ्रष्टाचार , महंगाई , भूख , गरीबी ,बेरोजगारी ,चिकित्सा सुविधा , अशिक्षा जैसे मुज्द्दों को सबसे अहम मुद्दा बना कर न तो किसी राजनीतिक दल का गठन ही किया गया है और न ही कभी चुनाव लडा गया है ।


साठ वर्षों के लोकतांत्रिक इतिहास में विश्व के सबसे ज्यादा कानूनों व शायद सबसे धीमी न्यायिक प्रक्रिया का सहारा लेकर जनता के निर्वाचित प्रतिनिधि किसी दैवीय या राजकीय पद पर बैठे रहने सा अनुभव करने लगे । चुनाव से पहले जनता के बीच दिखने करने वाले और उनके सेवक की तरह व्यवहार करने वाले व्यक्ति चुनाव के पश्चात और पद व शक्ति प्राप्त होते ही जनता की हद से ही बाहर हो जाते हैं । भारत प्राचीन काल से ही वैश्विक समाजों के लिए एक कौतूहल का विषय रहा है । जाने कितनी ही सभ्यताओं को पनपते मिटते देखता रहा है । सिर्फ़ धरातलीय संसाधनों की बात करें तो पश्चिमी जगत के लोलुप शासकों द्बारा अनगिनत बार लूटे जाने के बावजूद भी उतना ही प्रचुर है । हां , उसका दोहन और शोषण करने वाला हाथ अब विदेशी नहीं है ।


भारत की शासन प्रणाली व नौकरशाही को हमेशा से सरकार के प्रति निष्टावान व लगभग अधीन व चाटुकार बने रहने की प्रवृत्ति से युक्त किया गया । यानि कुछ लोगों द्वारा , ज्ञात रहे कि भारत में मतदान की औसत दर साठ प्रतिशत से भी कम है ,निर्वाचित व्यक्तियों , जो अब नि: संदेह बेदाग तो नहीं मिल पाते हैं , के द्वारा बनाए व लागू किए जाने वाले कानूनों के निर्माण , उसकी समीक्षा व आलोचना किए जाने की किसी भी प्रक्रिया के दायरे से बाहर थे । वैश्वीकरण के वर्तमान दौर ने और कुछ नफ़ा नुकसान किया या नहीं , किंतु इतना तो ही ही गया कि वैश्विक आवागमन व संचार में भयंकर तीव्रता आ गई । कभी बैलगाडी , ऊंट गाडी से पहचान कराने वाले देश में आज जेट इंजन कारें फ़ार्मूला वन दौड लगा रही है तो ये वैश्वीकरण का ही परिणाम है । वैश्विक समाज , पश्चिमी परंपराओं , रीति रिवाज़ों , अधिकार व सामाजिक व्यवहार के प्रति सजगता ने सबको प्रभावित किया । विश्व राजनीति एक बार फ़िर से परिवर्तन के दौर में , अरब देशों , मध्य एशियाई देशों के चोटे बडे गणराज्य बरसों पुराने रवैयै को बदलने के लिए तत्पर हो रहे हैं । न सिर्फ़ ये देश बल्कि अमेरिका और यूरोप की सजग जनता ने भी अपना अंसतोष और गलत नीतियों के खिलाफ़ आवाज़ उठानी शुरू कर दी है ।


भारत भी इससे अछूता नहीं रहा । छोटो छोटे स्तर से लेकर , और कहीं पानी तो कहीं सडक के लिए शुरू की जाने वाली लडाई जनांदोलनों की शक्ल देने लगी । कुछ ऐसी समस्याएं जिन्होंने सभी भौगोलीय सीमाओं में एक सा ही त्रस्त कर रखा था आम आदमी को , उसके खिलाफ़ जब आवाज़ उठी तो उसे सबने स्वर दिया । अन्ना बाबूराव हज़ारे , जो आपने सात दशकों के जीवन में समाज के लिए लडी जाने वाली हर लडाई में गांधी जी के जीवन सूत्र को पकड कर चलते रहे उन्हें समाज के कुछ लोगों ने एक राष्ट्रीय मुद्दा थमा दिया । उसके बाद से अब तक इससे जुडी जो भी खबरें , घटनाएं , प्रतिक्रियाएं , कथन , बहस चली और चल रही है , उसका आकलन तो आने वाला समय करेगा , किंतु आज जो लोग , और विश्व की सबसे शक्तिशाली व्यक्तित्व लोगों की सूची में उंचा स्थान पाने वाली और वर्तमान यूपीए अध्यक्ष भी आरोपित करते हुए कहते हैं कि देश में भ्रष्टाचार जैसी समस्या का समाधान सिर्फ़ भाषणबाजी से और आमरण अनशन से नहीं हो सकता । यकीनन नहीं हो सकता , लेकिन आम जनता के रूप में जनता कम से कम आवाज़ तो उठा रही है , समस्या का समाधान सुझा तो रही है । और ये कतई नहीं भूला जाना चाहिए कि ऐसा सिर्फ़ इसलिए हो रहा है क्योंकि सरकार ,प्रशासन , विधायिका , न्यायपालिका सभी अपनी जिम्मेदारियों से बच रहे हैं ।

अन्ना हज़ारे की टीम के एक एक सदस्य को जिस तरह से अलग अलग मोर्चों पर , और अलग अलग तरीकों से सरकार के और देश में खुद को शक्तिशाली बना चुके लोगों के खिलाफ़ जाने के बदले घेरा , पीटा जा रहा है ,और उनसे जुडी मिल रही खबरों में जिस तरह की मानसिकता निकल कर सामने आ रही है वो ये बताने के लिए काफ़ी है कि स्थिति किस कदर निम्नस्तर पर है । इस मुद्दे के विरोध में जितना लिखा गया , यदि उसका आकलन किया तो तो साफ़ दिखता है कि , विरोधियों ने , मुद्दे पर कम और मुद्दे उठाने वालों पर ज्यादा ध्यान दिया । फ़िर सबसे बडी बात ये भी कि यदि वाकई उस कानून को बनाने वाले खुद भी दागदार हैं तो खुद वे भी उस कानून की ज़द में आने से खुद को कहां बचा पाएंगे , तो जब वे नहीं डर रहे हैं तो फ़िर आज अचानक एक कानून के मसौदे पर इतनी ज़िद , इतना हठ , क्यों और कैसे । यदि मंशा अच्छी है तो फ़िर ऐसे बयान क्यों आ रहे हैं जिसमें न्यायपालिका तक को ये ताकीद दी जा रही है कि ,मालदार असामियों को जेल की रोटी खिलाना देश की सेहत के लिए ठीक नहीं ।  यदि वाकई भारत की अवाम चाहती है कि भारत जैसे किसी देश का अस्तित्व और प्रभाव वैश्विक समाज में रहे और आने वाले अगले कुछ साल पुन: गुलामी में काटने जैसी किसी संभावना से बचा जाए तो फ़िर , प्रजातांत्रिक मार्ग से ही सही , लेकिन चीज़ें दुरूस्त तो करनी ही होंगी ।

शुक्रवार, 9 सितंबर 2011

क्या ये हमले कोई ईशारा कर रहे हैं ..........आज का मुद्दा






आतंकवाद अब एक समस्या से बढ कर एक विचार का रूप ले चुका है . जानते हैं ,आज जब आर्थिक आतंकवाद , बौद्धिक आतंकवाद ,जहां तक इन जान माल पर हमले के आतंकवाद की बात है तो इसके पक्ष विपक्ष में हममें से बोलने की किसी की भी औकात नहीं है ये ठीक ठीक तो आतंकवादी ही बता सकते हैं कि वे ऐसा करते क्यों हैं , और यकीनन सब अलग अलग वजहें होंगी , मगर निशाना तो वही आम आदमी ही बनता है ,तब ये भी संदेह होता है कि कहीं ये आतंकवादी भी आर्थैक आतंकवादी से जुडे हुए तो नहीं हैं कहीं ? लेकिन फ़िर भी किसी भी सूरत में इसे कुचलना चाहिए क्योंकि कोई भी दलील , इंसानों की जीवन से बडी नहीं हो सकती ॥

इस धमाके के बाद देश के राजनेताओं के बयान , उनकी कार्यशिली, आतंकवाद से  निपटने का उनका नज़रिया और रुख , मुआवजे की घोषणा आदि में से ऐसा कुछ समय में आम जनता और सरकार के बीच बढती दूरी का हे ये परिणाम है कि आज कुछ राजनीतिज्ञ इन हमलों पर घोर असंवेदनशील वक्तव्य देने से भी नहीं चूके । रही आम जनता की बात तो उसका अंदाज़ा सिर्फ़ इसी बात से लगाया जा सकता है कि अस्पतालों में नेताओं की उपस्थिति से हो रही परेशानी से होने वाले गुस्से का भाजन खुद राजनेताओं को भी भुगतना पडा और जनता ने यहां तक सवाल खडे कर दिए कि हर बार किसी बडी समस्या की तरफ़ देश का ध्यान जाता है कोई न कोई आतंकी हमला होता है वो भी सिर्फ़ आम आदमियों को मारने के लिए ।

इस वर्ष का अब तक का ये दसवां आतंकी हमला होने के बावजूद ये बहुत जरूरी हो जाता है कि कुछ जरूरी बातों की उपेक्षा न की जाए । ये ठीक है कि इतने बडे और नितनी बडी जनसंख्या वाले देश में हर आतंकी हमले को रोक पाना बेहद दुरूह कार्य है लेकिन इसकी क्या वजह हो सकती है कि अभी सत्रह माह पहले ही उसी परिसर में आतंकी हमला हुआ होने के बाद भी इतनी आसानी से पुन: उसी स्थान को निशाना बना लिया जाता है । तो क्या यही है सरकार और प्रशासन की वो इच्छाशक्ति जिसके बल पर वो वैश्विक आतंकवाद को खत्म करने की बात करती है । आखिर कहां है देश की लाखों की वर्दीधारी सेना , विशेषकर तब जबकि पता है कि बचाव दिल्ली मुंबई कोलकाता जैसे महानगरों को भी चाक चौबंद कर दें तो बहुत संभल सकती है ।

ओसामा बिन लादेन के खात्मे के बाद आतंकी दुनिया में क्या चल रहा होगा ये अंदाज़ा लगाना कठिन नहीं है । अमेरिका , ब्रिटेन , फ़्रांस , जैसे तमाम देश अपनी सुरक्षा व्यवस्था को इतना तो पुख्ता कर चुके हैं कि अब उन्हें इतनी आसानी से निशाना नहीं बनाया जा सकता है । ऐसे में भारत जैसे अव्यवस्थित देश इसलिए भी आतंकियों का पहला विकल्प है क्योंकि पडोस में पाकिस्तान , श्रीलंका जैसे आतंक से ग्रस्त देश मौजूद हैं । यदि ऐसी परिस्थितियां एक आम आदमी भी समझ पा रहा है तो क्या कारण हो सकता अहि कि इसे सरकार व प्रशासन समझ न पाए हों । जो लोग  सरकारी नियम कानूनों के बीच से घपले घोटालों की गुंजाइश तलाश लेते हैं उन्हे इसका  जरूर एहसास होगा ।

पिछले कुछ धमाके , एक और गंभीर ईशारा कर रहे हैं । कहीं ये हमले किसी बहुत बडी साजिश का एक छोटा सा हिस्सा भर तो नहीं हैं । आज इंसान की कल्पना उसे रोज़ वैज्ञानिक ताकत से बढावा दे रही है ऐसे में क्या ये बिल्कुल असंभव है कि आतंकियों के हाथों कभी परमाणु अस्त्रों जैसे विश्व विनाशक हथियार नहीं लगेगा । भारत में साल की दूसरी छमाही पर्व -त्यौहार , उत्सव , समारोहों का समय होता है इसलिए शहरों में सघनता की संभावना कई गुना बडी होती है , तो फ़िर क्या ये माना जाए कि जैसा कि अमेरिका भी आशंका जता चुका है भारत को भी अगले हमलों के लिए तैयार रहना चाहिए ।

अब बात आम आदमी की भूमिका की । आज आम आदमी को ये अच्छी तरह पता चल चुका है कि इन हमलों का शिकार वही होता है तो फ़िर उसे खुद को बचाने के लिए तैयार होना होगा । हालिया बम हमले में किसी आम आदमी ने ही संदिग्ध वाहन पुलिस को पहुंचाया ( यहां एक बात कहना और जरूरी हो जाती है कि जिन वाहन चोरी की रिपोर्टों को पुलिस दर्ज़ नहीं करती अक्सर वही वाहन इन आतंका घटनाओं के लिए जिम्मेदार होते हैं , पुलिस की जांच का ये हाल है देश में कि एक स्कूटर , कार तो दूर बस तक बरामद नहीं पर पाती )आम आदमी को खुद को शिकार बनने से रोकना होगा वो भी खुद को शिकार बनने से रोकना होगा वो भी खुद ही । कोई जरूरी नहीं है कि उत्सवओं , त्यौहारों में बाज़ारों में बेवजह की भीड बढाई जाए , घर से निकलते ही अपना सारा ध्यान सुरक्षित रूप से गंतव्य तक पहुंचने पर लगाएं और बेझिझक पुलिस को हर वो बात बताएं जो आपको खटक रही हो ।

बुधवार, 27 जुलाई 2011

विलंबित न्याय : अन्याय समान ....आखिर क्यों घिसट रहे हैं मुकदमे








अभी कुछ समय पहले जब भोपाल गैस कांड में अदालत का फ़ैसला आया तो इस हादसे को बीते पच्चीस छब्बीस बरस बीत चुके थे । आज भारतीय अदालतों में लगभग साढे तीन करोड मुकदमें लंबित हैं , अगर अभी से आने वाले मुकदमों को बिल्कुल रोक दिया जाए यानि ,.कोई भी नया मुकदमा दर्ज़ नहीं किया जाए तो भी लंबित पडे इन मुकदमों को निपटाने में बरसों लग जाएंगे । किसी भी आजाद देश के लिए , जो कि विकास पथ पर अग्रसर है उसके लिए ये बहुत ही जरूरी हो जाता है कि आम आदमी को सुलभ और त्वरित न्याय दिलाने के लिए राज्य न सिर्फ़ इसका समुचित प्रबंध करे बल्कि इसके लिए दीर्घकारी योजनाएं भी बनाए । अफ़सोस कि आज भी एक आम आदमी को अमूमन तौर पर अपने मुकदमे के निपटारे के लिए निर्धारित समय सीमा का कम से कम ढाई से तीन गुना विलंब तो होता ही है । खुद कानूनविद इसके बहुत सारे कारण मानते और गिनवाते हैं ।

जस्टिस डिलेड इज जस्टिस डिनाइड ..जैसे सूत्र का प्रयोग सबसे पहले विलियम पेन्न से संबंधित और विलियम एवर्ट ग्लैड्स्टन द्वारा प्रतिपादित बताते हैं , जो मैग्नाकार्टा के खण्ड -४० में भी परिलक्षित हुई थी । इसका तात्पर्य ये है कि - " पीडित को युक्तियुक्त समय के भीतर न्याय सुलभ होना चाहेइ । समय से न्याय न मिलना, व्यवहारत: न्याय से वंचित करने जैसा ही है । जबकि भारतीय संविधान के अनुच्छेद ३९ मे राज्य और प्रशासन से ये अपेक्षा की गई है कि वह सभी नागरिकों को समान न्याय व नि:शुल्क विधिक सहायता उपलब्ध कराए , और अफ़सोस व दुख की बात ये है कि दोनों ही दृष्टिकोण से राज्य इसमें बुरी तरह से असफ़ल रहा है । आज भारतीय न्यायिक व्यवस्था , मुकदमों के बोझ , और विधायिका एवं कार्यपालिका के नकारेपन के कारण आम नागरिकों की बढी अपेक्षा के बीच जैसे चरमरा सी गई है ।

कानूनविद और विधि विशेषज्ञ अपने अध्ययन के आधार पर भारतीय न्यायपालिका की कच्छप गति के लिए कुछ विशेष कारणों को ही जिम्मेदार मानते हैं । इनमें सबसे पहला कारण खुद सरकार ही है । यहां ये बताना समीचीन होगा कि , देश में आज लंबित लगभग साढे तीन करोड से ज्यादा मुकदमों के लिए खुद सरकार ही सबसे ज्यादा जिम्मेदार है , क्योंकि इन लंबित मुकदमों में से एक तिहाई मुकदमों में सरकार खुद एक पक्ष है । विधि विशेषज्ञ मानते हैं कि , सरकार को अविलंब ही इस दिशा में काम करना चाहिए और न सिर्फ़ फ़ालतू व जबरन दर्ज़ किए कराए मुकदमों को वापस लिए जाने की दिशा में ठोस कदम उठाने चाहिए बल्कि एक ऐसी व्यवस्था भी करनी चाहिए , एक स्क्रूटनाइज़ेशन जैसी व्यवस्था जो अपने स्तर पर जांच करके , सरकार को वादी प्रतिवादे बनने से बचने में मदद करे और अनावश्यक अपील करके उसे लंबा करते चले जाने में भी ।



विधिवेत्ता मानते हैं कि भारतीय न्याय व्यवस्था में किसी भी निरपराध को सज़ा से बचाने के लिए बहुस्तरीय न्याय व्यवस्था का प्रावधान किया गया । ये न सिर्फ़ मुकदमों के निस्तारण को बेहद धीमा बल्कि इसे बहुत खर्चीला भी बना देता है । एक आकलन के अनुसार , यदि किसी मुकदमे को अपने सारे स्तरों से गुजरना पडे तो को मौजूदा स्थितियों में कम से कम पांच से आठ वर्षों का समय लगना तो निश्चित है । बढती जनसंख्या और उससे भी ज्यादा समाज में बढते अपराध , लोगों का अपने विधिक अधिकारों के प्रति सजगता में आई तेज़ी , देश में अदालतों और न्यायाधीशों की घोर कमी , अधीनस्थ न्यायालयों में ढांचागत सुविधाओं क अघोर अभाव , न्यायाधीशों व न्यायकर्मियों को मूलभूत सुविधाओं की अनुपलब्धता के कारण उनकी कार्यकुशलता तथा मनोभावों पर पडता नकारात्मक प्रभाव , न्यायपालिका में तेज़ी से बढता भ्रष्टाचार , आदि कुछ ऐसे ही मुख्य कारण हैं जिन्होंने अदालती कार्यवाहियों को दिन महीनों की तारीखों में उलझा कर रख दिया है ।


हालांकि , न्यायप्रक्रिया को गति प्रदान करने के उद्देश्य से सरकार ने पिछले वर्ष राष्ट्रीय वाद नीति की शुरूआत की है और अभी हाल ही में कानून मंत्री ने मिशन मोड योजना जैसे कार्यक्रमों की शुरूआत की है , लेकिन विधि विशेषज्ञ इनसे बेहतर कुछ उपाय अपनाने की ओर ईशारा करते हैं । कानूनविद मानते हैं कि सरकार को सबसे पहले देश में ज्यादा से ज्यादा अदालतों के गठन के साथ ही , न्यायाधीशों की नियुक्ति , रिक्त स्थानों को भरने की तुरंत व्यवस्था करनी चाहिए । आज मुकदमों के निस्तारण के लिए भारतीय न्यायपालिका द्वारा अपनाए जा रहे सभी वैकल्पिक उपायों , जैसे , मध्यस्थता की प्रक्रिया , लोक अदालतों का गठन , विधिक सेवा का विस्तार , ग्राम अदालतों का गठन , लोगों में कानून एंव व्यवस्था के प्रति डर की भावना जाग्रत करना , प्रशासन द्वारा अपराध की रोकथाम हेतु गंभीर प्रयास , अदालती कार्यवाहियों में स्थगन लेने व देने की प्रवृत्ति में बदलाव , अधिवक्ताओं द्वारा हडताल , बहिष्कार जैसी प्रवृत्तियों को न अपनाए जाने के प्रति किए जाने वाले उपाय आदि से अदालत में सिसक और घिसट रहे मुकदमों में जरूर रफ़्तार लाई जा सकेगी , लेकिन ऐसा कब तक हो पाएगा ये बहुत बडा प्रश्न है ।

शुक्रवार, 17 जून 2011

अस्वाभाविक -असामयिक मौत का सिलसिला ..आज का मुद्दा




 चित्र गूगल से साभार ,माफ़ी सहित लेकिन हकीकत यही है आज 




किसी भी दिन का समाचार पत्र उठा कर देखा जाए तो एक खबर जरूर रहती है वो है दुर्घटना , अपराध , बीमारी आदि के चपेट में आकर हो रही अस्वाभाविक मौत की खबरें । पिछले एक दशक में इन मौतों का सिलसिला इतना बढ गया है अब ये एक चिंताजनक स्तर तक पहुंच गया है । भारतीय समाज न सिर्फ़ मानव संसाधन के दृष्टिकोण से बल्कि विशेषकर युवाओं की उपस्थिति के कारण पूरे विश्व समुदाय में महत्वपूर्ण स्थिति में है । ऐसे में सडक दुर्घटनाओं  में , नशे और अपराध में बढती उनकी संलिप्तता के कारण तथा खिलंदड व लापरवाह जीवन शैली की वजहों से रोजाना न सिर्फ़ इन आमंत्रित मौतों का सिलसिला बढ रहा है बल्कि इसकी दर इतनी तेज़ गति से बढ रही है कि भविष्य में ये बेहद आत्मघाती साबित हो सकती है । 

इस विषय पर शोध कर रही संस्था "लाईफ़ डिसएपियरिंग " ने पिछले दिनों अपनी सूचनाओं के आधार पर बहुत से चौंकाने वाले तथ्य और आकडे सामने रखे । आंकडों के अनुसार पश्चिमी और पूर्वी देशों में होने वाली अस्वाभाविक मौत के कारण भी सर्वथा भिन्न हैं । पश्चिमी देशों में नशे की बढती लत , आतंकई घटनाएं , व कैंसर एड्स जैसी बीमारियों की चपेट मेम आकर प्रतिवर्ष हज़ारों लोग मौत के मुंह में समा जाते हैं । इसके अलावा एक बडा और प्रमुख कारण खतरनाक शोध कार्यों व दु:साहसिक खेलों का खतरा उठाना भी रहता है इसमें ।


भारत व अन्य विकासशील देशों में सडक दुर्घटनाओं , मानवीय आपदाओं , आतंकी हमलों के अलावा अपराध मेम लिप्तता के कारण प्रतिदिन सैकडों व्यक्तियों को अपने जीवन से हाथ धोना पड रहा है । इससे अलग बिल्कुल गरीब और अविकसित राष्ट्रों में गरीबी भुखमरी व कुपोषण भी एक बडा कारण साबित होता है , अस्वाभाविक मौतों के लिए । संस्था बताती है कि आश्चर्यजनक तथ्य ये है कि शहरी क्षेत्रों के मुकाबले अब भी ग्रामीण क्षेत्रों में अस्वाभाविक मौतों की दर बहुत कम है और इसके मुख्य कारण हैं प्राकृतिक आपदाएं और भूमि विवाद के कारण होने वाले अपराध । 

इसके ठीक विपरीत शहरी समाज अपनी बदलती जीवन शैली , नशे का बढता दखल टूटती सामाजिक परंपराएं व संस्थाएं आदि जैसे कारकों की वजह से अस्वाभाविक मौत को आमंत्रण देता सा लगता है । काम के अधिक घंटे , सडकों पर बीतता ज्यादा समय , नशे की नियमितता और फ़िर उसी नशे की हालत में वाहन परिचालन के परिणाम स्वरूप लगातार लोग मौत के मुंह में समाते जा रहे हैं । शराब के अलावा धूम्रपान , पान , बीडी , तंबाकू , गुटखा आदि के सेवन की बढती प्रवृति कैंसर ,तपेदिक , जैसी बीमाइयों को न्यौता दे रहे हैं , और चिकित्सा सुविधाओं के अत्यधिक महंगे होने के कारण स्थिति और भी अधिक गंभीर होती जा रही है । विशेषकर युवाओं में इसका बढता चलन सबसे अधिक चिंता का विषय है । 

संस्था बताती है कि इस घटनाक्रम में सबसे अधिक चिंतनीय बात ये है कि इन अस्वाभाविक मौतों का दोहरा परिणाम समाज को झेलना पडता है । जब किसी परिवार के किसी भी सदस्य की मृत्यु किसी भी अस्वाभाविक परिस्थितियों में होती है तो परिवार के सदस्यों को गंभीर शारीरिक मानसिक आघात लगता है । संस्था के अनुसार ,पिछले दो दशकों में एकल परिवार का चलन अनिवार्य नियम सा हो गया और इसीलिए जब ऐसे छोटे  परिवारों में ,विशेषकर किसी युवा सदस्य की, बच्चों की मौत हो जाती है तो पूरे परिवार में एक बिखराव आ जाता है । कई बार तो ये इतना तीव्र सदमा होता है कि परिवार के अन्य सदस्य के लिए भी किसी अनापेक्षित अस्वाभाविक मौत का कारण बन जाता है ।

किसी भी देश के विकास के लिए ये बहुत जरूरी होता है कि वो अपने मानव संसाधन के समुचित उपयोग के उपाय करे बल्कि उनकी सुरक्षा व सरंक्षण को भी सुनिश्चित करना उसका पहला कर्त्वय है । संस्था ने न सिर्फ़ इसके कारणों व परिणामों पर स्पष्ट विचार रखे बल्कि लगभग चेतावनी वाली शैली में विश्व समुदाय को आगाह किया है कि भविष्य में प्राकृतिक आपदाओं की बढती दर , आतंकी हमलों की संभावना तथा पानी , उर्जा , पेट्रोल आदि की कमी होने जैसी प्रतिकूल परिस्थितियों के मद्देनज़र अभी से गंभीरतापूर्वक इस पर ध्यान दिया जाए ।

संस्था ने इस स्थिति के कारणों पर बारीकी से अधय्यन करने के बाद इसे रोकने , कम करने के लिए बहुत से उपाय सुझाए हैं । संस्था कहती है कि सरकारें आर्थिक लाभ के लिए , सिगरेट , शराब , तंबाकू के उत्पादों का विक्रय करवाती है इसका परिणाम ये हो रहा है कि धीरे धीरे करके पूरा समाज ही नशे की गिरफ़्त में चला जा रहा है । आज भारत में भी स्थिति ऐसी होती जा रही है कि पुरूषों में कोई मद्यपान या धूम्रपान न करता हो तो वो कौतुहल का पात्र बन जाता है । और अब ये चलन बढते बढते महिला समाज में भी घर करता जा रहा है । नई पीढी अपने अभिभावकों को इसमें लिप्त पाकर बहुत पहले ही इसकी शुरूआत कर देते हैं , जिसका परिणाम ये होता है कि बहुत जल्दी ही वो उस सीमा को लांघ जाते हैं जहां से ये जानलेवा साबित होने लगता है । भारत में लगभग ६७ प्रतिशत सडक दुर्घटनाओं की  वजह शराब पीकर गाडी चलाना ही है ।


तो यदि इस पर चरणबद्ध तरीके से काबू पाया जाए तो इस दर को काफ़ी कम किया जा सकता है । चिकित्सा एवं स्वास्थ्य सेवाओं को सस्ता सुलभ करने से घायल व्यक्तियों के उपचार में तीव्रता आएगी और ये बहुत से उन जानों को मौत के मुंह में से खीच लाएगी जो अब इसके अभाव में प्रतिदिन मर रहे हैं । आपातकालीन व्यवस्था को अचूक और निर्बाध किए जाने पर भी काम किया जाना चाहिए । इसके अलावा और भी बहुत से मुद्दों , जीवन शैली में बदलाव और प्रकृति के सम्मान की परंपरा को बढावा देना , जीवन मूल्यों को समझने और उनका सम्मान किए जाने की भावना को विकसित किए जाने जैसे उपाय बताए । अब देखना ये है कि सरकारें कब चेतती हैं और भविष्य को सुरक्षित करने के लिए काम करना शुरू करती हैं ।




गुरुवार, 16 जून 2011

असुरक्षित पडोस : गंभीर खतरा ....आज का मुद्दा





ऐसा कहा जाता है कि यदि आपके पडोस में आग लगी हुई हो तो देर सवेर उसकी आंच आपके घर तक भी आने के संभावना प्रबल हो जाती है । फ़िर भारत की नियति तो ऐसी बन चुकी है कि उसके सभी पडोसी राष्ट्र या तो शत्रुवत हैं या इतने कमज़ोर कि वे हमेशा ही भारत के लिए चिंता का सबब बने रहते हैं । भारत के भौगोलिक नक्शे से अलग होकर बने देश पाकिस्तान बांग्लादेश की अपनी खुद की स्थिति बेहद खराब होते जाने के बावजूद भारत का अहित ही उनके मुख्य एजेंडे में रहता है हमेशा ।नेपाल , श्रीलंका , बर्मा , एवं तिब्बत भूटान जैसे अपनी अंदरूनी समस्याओं पर ही फ़िलहाल काबू नहीं पा सके हैं और उन्हें भारत जैसे विकासशील देश से भी मदद की दरकार हमेशा बनी रहती है ।


पाकिस्तान की राजनीतिक व आर्थिक स्थिति प्रारंभ से ही बहुत अधिक चिंतनीय रही है और पिछले कुछ वर्षों में तो ये स्थिति चिंतनीय से बदलकर दयनीय हो गई । पिछले कुछ दशकों में पाकिस्तान में लगातार उत्पन्न हुई राजनैतिक अस्थिरता की स्थिति , अलगाबवादियों व चरमपंथियों का बढता वर्चस्व तथा प्रतिदिन चढता करोडों रुपये का विदेशी कर्ज़ का ब्याज़ ही प्रति मिनट हज़ारों डॉलर की रफ़्तार से बढ रहा है , जिसे किसी भी परिस्थिति में किसी सहायता से उतारा नहीं जा सकेगा । 


भारतीय परिप्रेक्ष्य में पाकिस्तान की अस्थिरता से पडने वाले प्रभावों को देखें तो सबसे पहली और अहम समस्या है आतंकी हमलो की आशंका । अब ये बात अनेकों बार प्रमाणित हो चुकी है कि पाकिस्तान की खुफ़िया एजेंसियां , सुरक्षा एजेंसियों के साथ साथ उसके करी शीर्ष अधिकारी व राजनीतिज्ञ , भारत , अमेरिका , और ब्रिटेन जैसे देशों के विरुद्द्ध संलिप्त आतंकियों को समर्थन देते रहे हैं । विश्व के सबसे दुर्दांत हत्यारे आतंकी ओसामा बिन लादेन का पाकिस्तान में छुपा होना एक बार फ़िर इसे साबित कर गया । इन हालातों में जब भारत के साथ कश्मीर मसले पर पहले ही दोनों देश आमने सामने होते आए हैं तो जब उद्देश्य ही विश्व शांति को खतरा पहुंचाना हो तो भारत ही सबसे पहला और आसान निशाना बचता है । मुंबई पर हुए दु:साहसी हमले ने इसक ईशारा भी कर दिया है । ओसामा की पाकिस्तान में मौजूदगी और फ़िर मौत के बाद से पाकिस्तान को हमेशा भारी-भरकम आर्थिक सहायता व सामरिक सहयोग देने वाले अमेरिका के नज़रिए में खासा बदलाव आया है । आज पाकिस्तान में भूख-बेरोजगारी, महंगाई के साथ कट्टरपंथ भी अपने चरम पर है और पूरे देश में एक हताशा फ़ैली हुई है । इसलेइ भारत को अपनी एक आंख हमेशा अपने इस दोस्त दुश्मन पर रखने की जरूरत है । 


यूरोपीय देश एवं अमेरिकी देशों के समूह के लिए एशिया में और शायद पूरे विश्व में यदि कोई एक अकेला देश सबसे बडा खतरा है तो वो है चीन । मौजूदा समय में चीन ही ऐसा अकेला देश है जो वैश्वीकरन के इस युग में भी सिर्फ़ अपने हितों और स्वार्थ से ही संबंधित आचरण करता है । यहां तक कि अतर्राष्ट्रीय मंचों पर और बडी छोटी घटनाओं पर भी उसका आधिकारिक/अनाधिकारिक बयान तक नहीं आता । सिंगापुर और तिब्बत देशों की समस्या ,विलय , विखंडन आदि के समय उसका दृष्टिकोण और रवैया पूरा विश्व देख ही चुका है । वर्तमान वैश्विक परिदृश्य  में चीन का नज़रिया इसी तथ्य से पता चल जाता है कि ओसामा बिन लादेन की मौत के बाद चीन की तरफ़ से इस तरह का बयान आया था कि यदि अब भविष्य में अमेरिका इस तरह का कोई आक्रम्ण पाकिस्तान के ऊपर करता है तो चीन पाकिस्तान के साथ खडा होगा । शायद ही अब तक ये बात गंभीरतापूर्वक सोची गई है कि विश्व का लगभग हर विकसित और विकासशील देश आज आतंक के निशाने पर है , और उसकी पीडा झेल रहा है लेकिन चीन इन सबसे खुद को अलग रखे हुए है । क्या ये महज़ इत्तेफ़ाक है कि किसी आतंकी संगठन के निशाने पर चीन नहीं है । यहां ये बताना भी उचित होगा कि अभी हाल ही में चीनी हैकरों ने अमेरिका खुफ़िया सेवा और सुरक्षा सेवा के अंतर्जालीय खातों में सेंधमारी की है । क्या इससे मिली जानकारियों का फ़ायद वे उठाएंगे या पैसे के बदले वे कहीं आगे सरका देंगे । निश्चय ही ये चिंता कहीं न कहीं विश्व शांति की सुरक्षा के आकांक्षी लोगों को भी होगी । 


भारत-चीन संबंध शुरू से ही अविश्वास और संदेह से ग्रस्त रहे हैं । ये संबंध और अधिक खराब स्थिति में तब पहुंचे जब "हिंदी चीनी भाई-भाई " कहते कहते चीन ने भारत पर आक्रम्ण करके भारत की बहुत बडी जमीन हथिया ली जो आज तक चीन के कब्जे में ही है । अब भी अक्सर कभी नियंत्रण रेखा को पार करके , कभी भारतीय प्रदेश , भूभाग को अपने नक्शे में दिखाकर तो कभी किसी भारतीय को नत्थी वीज़ा देन जैसे कार्यों से चीन भारत में अस्थिरता फ़ैलाने का प्रयास करता ही रहता है । अमेरिका सहित विश्व समुदाय को भी चीन के नक्काली कारोबार और अंतर्जाल हैकरों ने खासा परेशान किया हुआ है । 


भारत इन दिनों राजनीतिक संवेदनशीलता और सामाजिक परिवर्तन के नाज़ुक दौर से गुज़र रहा है । आम जनता और सत्ता के बीच न सिर्फ़ विचारों का बल्कि भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए आमने सामने का संघर्ष शुरू हो चुका है । व्यवस्था के खिलाफ़ जनमानस का बढता असंतोष और सुधार के बजाय दमन का रुख अख्तियार करने वाली सरकार का रवैया देखकर ये अंदाज़ा सहज ही लगाया जा सकता है कि आने वाले समय में कठिन परिस्थितियां उत्पन्न होंगी । भारत का अहित सोचने वाली तमाम शक्तियों , देशों , संगठनों के लिए ये अवसर बहुत ही मह्त्वपूर्ण होगा । वे निश्चित रूप से देश में चल र्हे इस उठापटक का फ़ायदा उठा कर अपने मंसूबे पूरा करने का प्रयास करेंगे । ऐसे में न सिर्फ़ सरकार , प्रशासन और सुरक्षा एजेंसियों बल्कि सिविल सोसायटी व ऐसे तमाम जनसमूहों को भी सजग व सचेत रहना होगा । देश की सुरक्षा के लिए जिम्मेदार तमाम सुरक्षा संस्ताओं को अपने टॉप एलर्ट मोड (Top Alert Mode )में रहने के लिए खुद को तैयार रखना चाहिए । 

बुधवार, 8 जून 2011

गरीब जनता के अमीर प्रतिनिधि ....आज का मुद्दा




शंकर जी द्वारा चित्रित कार्टून ( साभार ) 




आज विश्च अर्थव्यवस्था में बेशक भारत का स्थान और मुकाम ऐसा हो गया है कि उसकी हठात ही उपेक्षा नहीं की जा सकती । दूसरा बडा सच ये है कि भविष्य की शक्तशाली अर्थव्यवस्थाओं में भी भारत की गणना की जा रही है । देश मेंबढते हुए बाज़ार की संभावनाओं के मद्देनज़र ये आकलन बिल्कुल ठीक जान पडता है । आज देश चिकित्सा, विज्ञान , शोध , शिक्षा आदि हर क्षेत्र में निरंतर विकास की ओर अग्रसर है । किंतु इसके बावजूद भारत की गिनती धनी व संपन्न राष्ट्र में अभी नहीं की जा स्कती है । आज भी देश का एक बहुत बडा वर्ग शिक्षा , गरीबी , और यहां तक कि भूख की बुनियादी समस्या से जूझ रहा है । आज भी देश में प्रति वर्ष सैकडों गरीबों की मृत्यु भूख और कुपोषण से हो रही है , जिसके लिए थकहार कर सर्वोच्च न्यायालय को सरकार को सख्त निर्देश देने पडे । 

इस स्थिति में जब आम जनता ये देखती है कि एक तरफ़ सरकार रोज़ नए नए करों की संभावनाएं तलाश कर राजकोष को भरने का जुगत लगाती है । वहीं दूसरी तरफ़ वो संचित राजकोष के धन की बर्बादी के प्रति न सिर्फ़ घोर उदासीन है बल्कि इसमें दोहरी सेंधमारी किए जा रहे हैं । पिछले कुछ वर्षों में राजनीतिक भ्रष्टाचार , घपले , घोटाले किए जाने के लिए एक अजीब सी रेस जैसी लगी हुई है । किसी को न तो किसी कानून का भय है न ही जनता की भावना और विश्वास की फ़िक्र । यदि घपलों -घोटालों को थोडी देर के लिए आपराधिक कृत्य की श्रेणी में रखकर व सभी राजनीतिज्ञों को इसमें सम्मिलित नहीं मानते हुए भी यदि कुछ तथ्यों पर गौर करें तो वो स्थिति भी आज कम भयावह नहीं है । 

समाजसेवा का पर्याय मानी जाने वाली राजनीति आज न तो समाज के करीब रही न सेवा के । भारत जैसे गरीब देश में भी आम चुनाव के नाम पर जितना पैसा खर्च किया जाता है यदि उसका आकलन किया जाए तो लगभग उतने पैसों से कम से कम दो शहरों का संपूर्ण विकास किया जा सकता है । एक वक्त हुआ करता था जब देश के सबसे बडे पदों पर बैठे प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति तक अपने वेतन को हाथ भी नहीं लगाते थे । अब इन आदर्शो और मूल्यों का कोई अर्थ नहीं है । आज जनसेवा के लिए बने और बनाए ओहदों में से कोई भी वेतन-भत्तों , सुख सुविधा अधिकारों के बिना नहीं है । आज इन तमाम जनप्रतिनिधियों को न सिर्फ़ वेतन के रूप में मोटी रकम दी जा रही है बल्कि यात्रा भत्ता, बिजली , पानी , दफ़्तर का रख-रखाव आदि के नाम पर लाखों रुपए की रियायत दी जाती है । न सिर्फ़ इन जनप्रतिनिधियों पर बल्कि इनसे संबंधित सभी विभागों , संस्थाओं इनसे जुडे सुरक्षा अधिकारियों के लाव लश्कर इत्यादि पर भी भारी भरकम खर्च किया जा रहा है । सबसे अधिक दुख की बात ये है कि सारा खर्च उसी पैसे से किया जा रहा है जो सरकार प्रति वर्ष नए नए कर लगाकर आम आदमी से वसूल रही है ।  

इन जनप्रतिनिधियों से आज आम जनता को दोहरी शिकायत है । पहली शिकायत तो ये कि इतना सुविधा संपन्न कर दिए जाने के बावजूद भी ये अपने कार्य और दायित्व को निभाना तो दूर इनमें से बहुतायत प्रतिनिधि तो निर्धारित सत्र तक में भाग नहीं लेते हैं । स्थिति ऐसी है कि प्रति वर्ष विभिन्न सत्रों के दौरान बाधित की जाने वाली कार्यवाहियों का दुष्परिणाम ये निकलता है बनने वाले कानून भी सालों साल लटकते चले जाते हैं या कि जानबूझ कर ऐसे हालात बनाए जाते हैं कि उन कानूनों को पास करने से बचा जा सके । इससे अलग इन विभिन्न सत्रों के दौरान किया गया सारा खर्च व्यर्थ चला जाता है । इस दौरान हुए खर्च का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है इस दौरान कैंटीन में उपलभ्द कराए जाने वाले भोजन की थाली की कीमत पांच या दस रुपए होती है जबकि वास्तव में उसकी कीमत उससे तीस चालीस गुना अधिक होती है ।  न सिर्फ़ भोजन बल्कि प्रति वर्ष इन जनसेवकों को जाने क्या सोच कर रियायती दरों और मुफ़्त बिजली , पानी , यात्रा आदि की सुविधाएं दी जाती हैं , जबकि इसका हकदार सबसे पहले देश का एक गरीब होना चाहिए । 


अब समय आ गया है कि जनता को , अपने जनप्रतिनिधियों से अपेक्षाएं बढानी चाहिए , उनसे पूछा जाना चाहिए कि आखिर कौन सी न्यूनतम योग्यता है वो जो उन्हें आपका प्रतिनिधि बनाने के काबिल बनाती है । इन तमाम जनसेवकों के काम का रिपोर्टकार्ड जनता को तैयार करना चाहिए और उसीके आधार पर उन्हें न सिर्फ़ उनका वेतन , उनके अधिकार बल्कि आगे बने रहने का हक भी , सिर्फ़ और सिर्फ़ जनता ही निर्धारित करे । अब ये बहुत जरूरी हो गया है कि जनसेवकों को ये समझाया जाए कि देश का प्रतिनिधि वैसा ही रहेगा , करेगा जैसा कि देश की जनता रहती सोचती है । एक सेवक को हर हाल में अब स्वामी और तानाशाह स्वामी बनने से रोकना ही होगा ।

बुधवार, 1 जून 2011

शिकायत तो करिए जनाब ....आज का मुद्दा






अपने दिल पर हाथ रख कर बताइए कि अब तक आप कितनी बार , किसी दफ़्तर , बैंक , स्कूल , बस , या रेल की शिकायत एवं सुझाव पुस्तिका पर अपनी शिकायत या सुझाव दे चुके हैं । अगर ये प्रश्न भारत की आम जनता से पूछा जाए , तो जवाब होगा , शिकायत और सुझाव पुस्तिका ...ये क्या होता है ..लगभग चालीस प्रतिशत , हां जानते तो हैं लेकिन कभी किया नहीं ..पचास प्रतिशत ..जिन्होंने किया या फ़िर कि चाह कर भी नहीं कर पाए क्योंकि शिकायत एवं सुझाव पुस्तिका उन्हें लाख सर पटकने पर भी नहीं मिली । हो सकता है कि आंकडा थोडा सा इधर उधर हो लेकिन हालात कमोबेश ऐसे ही है ।


सुझाव और शिकायत पुस्तिका का रिवाज़ जहां भी स्थापित हुआ होगा वहां उसके पीछे एक ही उद्देश्य निहित होगा कि , संबंधित संस्था/संस्थान में व्याप्त कमियों को बाहर लाना और जिनकी वजह से वो कमियां आ रही हैं उनके बारे में संस्था/संस्थान को पता होना ताकि वो एक साथ दो मोर्चों पर आराम से नीति बना सके । ये परिकल्पना तो बहुत अच्छी है मूल रूप से ,लेकिन जितनी आसानी से इसे प्रशासक दफ़न करते रहे हैं ऐसा लग रहा है मानो समाज को न तो अब सरकार और प्रशासन से कोई शिकायत है और न ही उसे अच्छी बुरी सलाह देने की कोई फ़िक्र , तो क्या अब ये सही वक्त नहीं है कि उस सो चुकी परंपरा को झिंझोड के जगाया जाए , और उस पुस्तिका को इतना भर दिया जाए कि जब सरकार बेशर्मी से अपना रिपोर्टकार्ड जारी करे तो जनता द्वारा दर्ज़ की गई शिकायतें उसे बता सकें कि सरकार कब कहा फ़ेल हुई ।


सरकारी नियमों के अनुसार तो हर दफ़्तर , सार्वजनिक कार्यालय , परिवहन व्यवस्थाओं से लेकर , खूबसूरत इमारतों , सुंदर उपवनों , और लगभग हर जगह ही शिकायत एवं सुझाव पुस्तिका का प्रावधान है । निजि क्षेत्रों में तो , बाकायदा इसके लिए अलग से विशेष विभाग एवं इसे सुनने और निपटाने के लिए विशेष रूप से प्रशिक्षित लोगों को रखा जाता है , जो ग्राहकों की समस्याओं को सुन कर उनका निदान निकालने में ग्राहक की सहायता करते हैं । सार्वजनिक क्षेत्रों में इसका ठीक उलटा है । यहां एक दिलचस्प तथ्य की ओर ईशारा करना ठीक हो शायद , सरकार द्वारा चालित हर बस और रेल में शिकायत एवं सुझाव पुस्तिका यात्रियों को उपलब्ध करवाने का नियम है , और ये रखी भी जाती है । किंतु लाख सर पटकने के बावजूद भी संबंधित कर्मी आपको वो पुस्तिका उपलब्ध नहीं करवाते हैं । कारण स्पष्ट है कि , आपकी वहां पर लिखी शिकायत उस कर्मी से सर पर गाज बनके गिर सकती है । यही कारण है कि वो आपको किसी भी परिस्थिति में शिकायत पुस्तिका उपलब्ध ही नहीं करवाएगा । ऐसी ही परेशानी विभिन्न दफ़्तरों में भी आती है । वहां और अधिक कठिनाई और गुस्सा इस बात पर आता है आम लोगों को यदि को चाहता कि किसी की शिकायत खुद जाकर किसी अधिकारी , या वरिष्ठ कर्मी से करे तो उसे ऐसा भी नहीं करने दिया जाता है । 


लेकिन इससे जुडा एक अन्य पहलू यही है कि लोग शिकायत और सुझाव के इस नायाब हथियार के प्रति उदासीन और उपेक्षा का भाव रखते हैं । आम लोगों ने तो जैसे लडने का माद्दा ही छोड दिया है । अगर आज भी दस में से पांच विरोध का रास्ता चुन लें , न सिर्फ़ चुनें बल्कि पुरजोर तरीके से इन शिकायत व्यवस्थाओं का का उपयोग करते हुए सारी गलत बातों को बार बार सामने लाएं तो यकीनन ये बात माहौल बदलने में कारगर साबित होगी । सरकार और प्रशासन को भी देखना चाहिए कि आखिर क्या कारण है कि , अन्य विकल्पों पर इतनी अधिक शिकायत दर्ज़ करवाने के बावजूद सालों साल तक शिकायत पुस्तिका कोरी कैसे रह जाती है या उसे जानबूझ कर कोरा ही रहने दिया जाता है । तो आगे बढिए और दर्ज़ कराइए अपनी हर शिकायत को ...आप करेंगे न ॥

रविवार, 29 मई 2011

देसी पेय पदार्थों की लुप्त होती संस्कृति ...आज का मुद्दा







दिनोंदिन बदलते हुए इस भौगोलिक परिवेश में अब , गर्मियों के दिनों का या कहा जाए कि ग्रीष्म ऋतु का विस्तार सा हुआ है फ़रवरी के अंतिम सप्ताह से शुरू होकर नवंबर तक खिंचने वाली गर्मी , न सिर्फ़ शहरों का बल्कि ग्रामीण क्षेत्रों का भी हाल बुरा करके रखती है । एक समय ऐसा आता है जब पूरा मैदानी इलाका तपते हुए तवे के समान हो जाता है । ऐसा नहीं कि अबसे पहले इतनी गर्मी नहीं हुआ करती थी , बल्कि पहले तो महीनों तक लू झुलसाए रखता था लोगों को । लेकिन तबसे लेकर एक और बडी तब्दीली आई है लोगों की दिनचर्या में जिसने बहुत ही परिवर्तित किया है स्थितियों को और भारत की कई परंपराओं को । 


एक समय हुआ करता था , जब गर्मियों से लडने के लिए , खुद को सन स्ट्रोक , प्यास , और लू आदि की चपेट में आने के लिए देसी परंपराओं की पुरातन खानपान व्यवस्था का ही सहारा लिया करते थे । नींबू पानी या शिकंजी, बेल का ठंडा शर्बत , रूह अफ़ज़ा जैसे जाने कितने ही शर्बत ,सत्तू , जलजीरा , दही , लस्सी , मट्ठा और इन जैसे जाने ही कितने ही पेय पदार्थों को नियमित रूप से दिनचर्या का हिस्सा बना लिया जाता था ताकि , शरीर में पानी की कमी को कम किया जा सके और तासीर भी ठंडी रहे । इन देसी शीतल पेयों में हर एक न सिर्फ़ अपने स्वाद में बेहतरीन और अलग था बल्कि स्वास्थय के लिहाज़ से भी बहुत ही लाभदायक था । गर्मियों के दिनों में तो इसका सेवन एक ढाल की तरह ही काम किया करता था । समय बदला और स्क्वैश ने दस्तक थी , सभी ग्रीष्मकालीन फ़लों , के रस को बोतलबंद रूप में घर घर तक पहुंचाने का सिलसिला । चलिए ये भी ठीक था , कम से कम शर्बत के बहाने से मौसमी फ़लों के स्वाद के साथ ठंडा पानी शरीर में पहुंचता तो था । 

वैश्वीकरण के दौर के शुरू होते ही जो कुछ बडी तब्दीलियां आईं उनमें से एक था , भारत के घरों , दफ़्तरों , दावतों , दुकानों तक शीतल पेय पदार्थों  की शुरूआत । घर आए अतिथि के स्वागत की परंपरा जो पहले शर्बत से शुरू हुआ करती थी वो अब शीतल पेयों की बोतलों में बंद होने की तैयारी की गई थी । बावजूद इस बात के कि पिछले कई सालों से लगातार ये बात उठ रही है कि इन शीतल पेय की बोतलों में कीटनाशक के साथ ही और भी अन्य रसायन ज़हर का काम कर रहे हैं । आज के बच्चों में , मोटापा , चिडचिडापन , रक्तचाप आदि की समस्या के लिए मुख्य रूप से इन शीतल पेय पदार्थों का सेवन ही है । जिस तरह से अलग अलग बहानों से इन शीतल पेय की कंपनियों ने विज्ञापन के बहाने से अपने पसंदीदा चरित्रों से उनका प्रचार करवाकर बच्चों तक को इसकी आदत लगाई है उससे स्पष्ट दिखता है कि ये सब एक सोची समझी हुई आर्थिक नीति के तहत ही किया जा रहा है । 

इस पूरे प्रकरण में जो सबसे ज्यादा अफ़सोसजनक बात है वो है सरकार व प्रशासन की उदासीनता । हालांकि राजस्थान , बिहार आदि जैसे कुछ प्रदेश इससे थोडे दूर हैं किंतु अन्य सभी शहरों , नगरों और अब तो ग्रामीण क्षेत्रों में भी पूरी योजना के साथ , पारंपरिक पेय पदार्थों के विकल्प के रूप में इन शीतल पेय पदार्थो को थोपने की साजिश रची जा रही है , किंतु सरकार , और प्रशासन को इस बात जरा भी चिंता नहीं है । जबकि असलियत ये है कि आज भी लोगों को शिकंजी ,जलजीरा , थम्स अप और लिम्का से ज्यादा पसंद आता है । अगर सरकार थोडी सी कोशिश करे तो शीतल दुग्ध पदार्थों , जैसे दूध , दही , लस्सी , मट्ठा आदि के विक्रय को बढावा देकर फ़िर से उनको बाजार से लडने लायक खडा किया जा सकता है । इस क्षेत्र में व्यवसाय कर रही कंपंनियों को भी इस बाजार की असीम संभावना को देखते हुए इस ओर ध्यान देना चाहिए । और आम लोगों को ये सोचना चाहिए कि आज शीतल पेय पदार्थों और फ़लों के जूस आदि में किस तरह से जान से खिलवाड करने वाले रसायनों का प्रयोग किया जा रहा है , बर्फ़ और पानी की गुणवत्ता संदेह में है , ऐसे में यदि घर में थोडे से श्रम से उससे बेहतर चीज़ उपलब्ध हो रही है तो वही श्रेयस्कर है । देखते हैं कि सरकार कब चेतती है 

मंगलवार, 24 मई 2011

महामारी का नया रूप : मधुमेह.....आज का मुद्दा




चित्र , गूगल से साभार 


पिछले कुछ समय में विश्व स्वास्थय संगठन ने भारत जैसे बहुत से देशों को ये चेतावनी दी है कि आने वाले समय में मधुमेह का प्रकोप इतना बढने वाला है कि वो एक महामारी जैसा रूप ले लेगा । एक अनुमान के मुताबिक अगले ही कुछ सालों में सिर्फ़ भारत में ही साढे चार करोड लोग डायबिटीज यानि मधुमेह की चपेट में आ चुके होंगे । खुद भारत के स्वास्थय मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार , वर्ष २०१५ तक देश में मधुमेह के मरीजों की संख्या लगभग ४.५८ करोड तक हो जाएगी , जिसमें आश्वर्यजन रूप से १.३२ करोड लोग तो सिर्फ़ ग्रामीण भारत से होंगे । रिपोर्ट के अनुसार देश में होने वाले कुल स्ट्रोक के मामलो में से तीस प्रतिशत के लिए भी मधुमेह ही जिम्मेदार है ।


नेशनल हेल्थ प्रोफ़ाइल-२०१० नाम से तैयार स्वास्थय मंत्रालय की ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि २०१० मेम कुल ३.७६ करोड लोग डायबिटीज से ग्रसित थे । एक अनुमान के मुताबिक यदि ये बीमारी इसी दर से बढती रही तो बहुत जल्दी ही पांच करोड तक का आंकडा भी छू लेगी । स्वास्थय मंत्रालय के अनुसार अगले चार वर्षों में गांव और शहरों में रहने वाले करीब पच्चीस लाख युवा मधुमेह की चपेट में होंगे । और इसमें भी सबसे ज्यादा संवेदनशील स्थिति बीस से लेकर तीस की उम्र के युवाओं की होगी । जबकि सबसे ज्यादा इसकी चपेट में , लगभग १.२८ करोड लोग जो इसकी चपेट में आएंगे वे पचास से लेकर साठ की उम्र के होंगे । ये स्थिति किसी भी देश के चिकित्सकीय भविष्य के लिए एक गंभीर चुनौती है । 

इसके कारणों पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है कि इसका सबसे बडा कारण है इंसान की दिनचर्या और खान पान की आदत में आमूल चूल बदलाव । कभी जो समाज अपने दैनिक आहार में , दाल चावल , चपाती, हरी साग सब्जी का सेवन करता था अब फ़ास्ट फ़ूड , शीतल पेय पदार्थों को एक नियमित भोज्य विकल्प के रूप में अपना चुका है । खाद्य पदार्थों में मिलावट तथा रासायनिक खाद के उपयोग ने उसकी गुणवत्ता और पौष्टिकता में बहुत कमी ला दी है । जो भोज्य पदार्थ उपलब्ध भी हैं वे भी दिनों दिन महंगाई के कारण आम आदमी की पहुंच से दूर होते जा रहे हैं , यही वजह है कि पांच रुपए में बर्गर जैसा फ़टाफ़ट और तैयार भोजन ही लोगों की आदत में शुमार होता जा रहा है । ग्रामीण क्षेत्र भी अब इससे अछूते नहीं रहे हैं । 

इस बीमारी से जूझने में एक अन्य बडी समस्या है इसके इलाज का बेहद मंहगा व खर्चीला होना । चिकित्सा विशेषज्ञ ये मानते हैं कि चूंकि इसका इलाज नियमित और बरसों तक चलता है इसलिए भी आम आदमी लगातार दवाई , इंजेक्शन का खर्च उठाते उठाते बहुत बडे आर्थिक बोझ को ढोने पर मजबूर हो जाता है । स्वास्थय मंत्रालय बहुत जल्दी ही इसे एक मिशन की तरह लेने की तैयारी में है ताकि आने वाले समय में स्थिति को भयावह बनने से रोका जा सके । लोगों को भी अब खानपान की बदलती हुई प्रवृत्ति पर रोक लगानी चाहिए और जंक फ़ूड की गिरफ़्त में आने से अपने बच्चों को यथासंभव बचाने की कोशिश करनी चाहिए । 

 

रविवार, 22 मई 2011

बिहार में लागू किया गया राईट टू सर्विस बिल









बिहार में इन दिनों नीतिश सरकार अदभुत प्रयोगों के दौर से गुजर रही है । राज्य सरकार नित नए नए ऐसे निर्णय ले रही है और जनता के लिए नए कानूनों को लाने की पहल कर रही है जिसके आगामी परिणाम निश्चय ही दूरगामी और सकारात्मक होंगे । अब ऐसी ही एक नई शुरूआत करते हुए राज्य में हाल ही में राईट टू सर्विस बिल को पास कराने के बाद राज्यपाल की हरी झंडी मिल जाने के बाद अब सरकार इस कानून को लागू करने की अधिसूचना जारी करने वाली है । इस कानून के लागू होने के बाद आम जनता के बहुत से मुख्य कार्य अधिकारियों , कर्मचारियों को एक निश्चित समय सीमा के अंदर करके देना होगा । ऐसा नहीं हो पाने पर विलंब के लिए स्पष्टीकरण और नहीं दिए जाने पर कडे दंड का प्रावधान किया गया है ।


इस कानून में जाति-आवास आय प्रमाण पत्र से लेकर राशान कार्ड, ड्राइविंग लाइसेंस, बिजली कनेक्शन तक की समय सीमा तय कर दी है । इसका उल्लंगन करने वाले अफ़सर से प्रतिदिन २५० रुपए की दर से पांच हज़ार रुपए तक जुर्माना वसूलने व विभागीय कार्वाई तक के प्रावधान किए गए हैं । ऐसी उम्मीद की जा रही है कि ,इस कानून के लागू होने के बाद सरकारी कर्मचारियों के लिए कोई भी फ़ाइल दबा पाना बहुत मुश्किल होगी । ज्ञात हो कि अभी हाल ही में किए गए एक सर्वेक्षण में ये बात सामने आई थी कि भारत में सबसे ज्यादा रिश्वत ग्रामीण जनता द्वारा ही दी जाती है और वो भी अपने मूल बुनियादी कागजातों आदि को बनवाने के लिए ही दी जाती है । ऐसे में यदि आम आदमी को सरकार के इस कानून से अपने कागज़ात एक तय समय सीमा के भीतर पाने की सुनिश्चितता तय होगी तो ये नि:संदेह एक परिवर्तनकारी नियम साबित होगा ।

सरकार ने फ़िलहाल जो रूपरेखा तैयार की है वो कुछ इस तरह की है

प्रमाण पत्र रिपोर्ट 

कार्य अफ़सर निपटारा (दिन )

जाति प्रमाण पत्र बीडीओ १५
आवास प्रमाण पत्र बीडीओ १५
आय प्रमाण पत्र बीडीओ १५
नया राशन कार्ड एसडीओ ६०
पोस्टमार्टम रिपोर्ट प्रभारी डॉक्टर ०३
वृद्धावस्था पेंशन बीडीओ २१

लाइसेंस 

जविप्र दुकान एसडीओ ३०
खाद दुकान जिला कृषि पदा. ३०
बीज दुकान अनु.कृषि पदा. ३०
दाल-आटा मिल मुख्य कारखाना अधी. ३०
ईंट-भट्ठा         जिला खनन पदा. ३०
आरा मशीन प्रमंडलीय वन पदाधिकारी ३०

बिजली 
एलटी कनेक्शन कार्यपालक अभियन्ता ३०
गलत बिलिंग सहायक अभियन्ता २४ घंटा
फ़्यूज मरम्मत (शहरी) सहायक अभियन्ता ४ घंटा
फ़्यूज मरम्मत (ग्रामीण) सहायक अभियन्ता २४ घंटा
ब्रेक डाउन (शहरी) सहायक अभियन्ता ६ घंटा

परिवहन 
ड्राइविंग लाइसेंस डीटीओ ३०
स्मार्टकार्ड में लाइसेंस बदलाव डीटीओ         ०७


और ये तो सिर्फ़ चंद उदाहरण हैं , यदि सच में ही राज्य सरकार अपने विभागों और कर्मचारियों को कम से कम इस कानून के सम्मान की खातिर ही पुराने रवैये से बाहर निकलने और एक नई छवि बनाने में निश्चित रूप से सफ़लता मिल सकेगी । देखना ये है कि ये कानून आम जनता के लिए और सरकार के लिए कैसे बदलाव ले कर आ पाता है । किंतु इससे इतर ये बात उठ रही है कि राइट टू सर्विस बिल को पूरे देश भर में लागू किया जाना चाहिए और न सिर्फ़ इन सेवाओं में बल्कि , हर सार्वजनिक क्षेत्र में , जैसे सडक मरम्मत , मुकदमे को निपटाने में लगने वाला समय, निश्चित अवधि में पढाई और परीक्षा की सुनिश्चितता आदि जैसे सभी क्षेत्रों में इसे लागू कर देना चाहिए ।

गुरुवार, 5 मई 2011

असुरक्षित महिला सैन्यकर्मी .....आज का मुद्दा








अभी हाल ही में एक समाचार देखने पढने सुनने को मिला । कोल्हापुर महाराष्ट्र में स्थित पुलिस प्रशिक्षण अकादमी में ११ प्रशिक्षु महिला पुलिस कर्मी अपने प्रशिक्षण के दौरान ही गर्भवती पाई गईं , ये खबर कोई बडी चौंकाने वाली नहीं थी लेकिन ये जानकर कि प्रशिक्षण के दौरान उनका दैहिक शोषण हुआ और जिसके परिणामस्वरूप ही ये घटना सामने आई थी , सबको एक आघात सा लगा । हालांकि सुरक्षा सेवाओं में महिलाओं के साथ दैहिक और मानसिक शोषण का ये कोई पहला मामला नहीं था और गाहे बेगाहे इस तरह की खबरें अब देखने सुनने को मिल ही जाती हैं । आम समाज में , रोजमर्रा जीवन में , सार्वजनिक सेवाओं से लेकर , निजी सेवाओं तक में , मीडिया ,खेल , अभिनय ,राजनीति आदि हर क्षेत्र में ही नारी शक्ति के साथ जिस तरह का न सिर्फ़ भेदभाव किया जाता रहा है और अब तो वो न सिर्फ़ पक्षपात तक सीमित रहा है बल्कि उन पर दैहिक अत्याचार और उनका शोषण तक करना एक प्रवृत्ति सी बनती जा रही है । अफ़सोस और चिंता की बात ये है कि अब ये भयानक स्तर तक बढती जा रही है । इससे अधिक चिंताजनक बात ये है कि जिन महिलाओं को समाज के हर तबके में महिलाओं के प्रति हो रहे अपराधों और उनके दमन शोषण से लडने के लिए तैयार किया जा रहा है , उन्हें न सिर्फ़ प्रशिक्षण बल्कि अधिकार भी दिए जा रहे हैं वे भी कहीं न कहीं इन ज्यादतियों का शिकार हो रहे हैं । भारतीय सेना से लेकर , पुलिस सेवाओं और अन्य सुरक्षा सेवाओं में भी कार्यरत महिला कर्मियों से लगातार न सिर्फ़ दोयम दर्ज़े का व्यवहार किया जा रहा है बल्कि उनके साथ अन्याय और अत्याचार की सीमा तक जाने में भी कोई गुरेज नहीं होती है किसी को । इस बात को मात्र दो घटनाओं से ही आराम से समझा जा सकता है ।


संसद के पटल पर पिछले कई वर्षों से बार बार महिला आरक्षण विधेयक को रखे जाने के बावजूद उसे पारित कराया जाना तो दूर उस पर ढंग से बहस या विमर्श तक नहीं हो पाया है । देश की राजधानी दिल्ली की पुलिस प्रमुख की कमान संभालने के लिए सबसे उपयुक्त और देश का नाम पूरे विश्व में चमकाने वाली देश की प्रथम महिला आईपीएस किरन बेदी को जबरन ही सेवामुक्त करवा दिया गया । जब भी इन दोनों बातों की ओर कोई इंगित करता है तो सहसा ही इसके साथ ही इस बात का भी ज़िक्र होता है कि पिछले कुछ वर्षों से ही देश की प्रथम नागरिक के रूप में , देश की सत्तासीन पार्टी की सबसे अधिक प्रभावी पद पर बैठी हुईं , और देश की राजधानी दिल्ली की मुख्यमंत्री के पद पर किसी महिला के होने के  अलावा देश भर में मायावती , ममता बनर्जी , जयललिता , सुषमा स्वराज , और जाने कितनी ही कद्दावर और प्रभावशाली नारी शक्ति के होने के बावजूद ये स्थिति है । राज्य महिला आयोग , राष्ट्रीय महिला आयोग जैसी संस्थाओं को पर्याप्त अधिकार और संसाधन उपलब्ध कराए गए हैं । यदि इसके बावजूद भी कोल्हापुर प्रकरण के दोषियों को कडी से कडी सज़ा नहीं दिलवाई जा पाती है , प्रियदर्शनी मट्टू , जेसिका लाल , आरूषि और जाने कितनी ही जानें आज भी न्याय के लिए मुंह ताकती सी दिखती हैं तो फ़िर आखिर कब तक और कहां तक ये स्थिति बनी रहेगी ।


ऐसा नहीं है कि ये स्थिति भारत की ही है , विश्व के सबसे शक्तिशाली देश अमेरिका की महिला सैन्य टुकडी और अन्य सुरक्षा सेवाओं में भी महिला कर्मियों के दैहिक शोषण की बात सामने आई है । यहां तक कि ईराक युद्ध के लिए भेजी गई टुकडी में तो कई उच्च पदो पर बैठी और सैन्य संचालन करती हुई महिला सेनानियों ने खुलेआम आरोप लगाए कि न सिर्फ़ उनका शोषण किया गया उन्हें प्रताडित किया गया बल्कि उनका बलात्कार तक किया गया है । भारत में नक्सलवाद से जुडी हुई महिलाओं ने भी इस बात को माना कि उनके साथ भी ज्यादती होती रही है ।  कुल मिला कर परिदृश्य ये साबित करता है कि महिलाओं की स्थिति अब भी बहुत ज्यादा बेहतर नहीं हो पाई है । इसके कारण बेशक बहुत से अलग अलग हों लेकिन फ़िर भी नियति तो वही की वही है । आखिर क्या वजह है कि जिन कंधों पर अपनी कौम अपनी नारी जाति को बचाने की जिम्मेदारी डाली जाती है उनसे अपेक्षा की जाती है वो खुद अपनी रक्षा के लिए इंसान से हैवान बन चुके उन हवसी पुरूषों को मौत के घाट नहीं उतार पातीं । काश कि खबर ये पढने देखने को मिलती कि अपने मान सम्मान की रक्षा करते हुए महिला सैन्यकर्मियों , और पुलिसकर्मियों ने उन्हें गोली से उडा दिया जो उसे तार तार करने की कोशिश कर रहे थे । महिला आयोग जैसी संस्थाएं तो सिर्फ़ सफ़ेद हाथी बन कर रह गए हैं । महिलाओं के लिए बने और बनाए जा रहे कानून भी नाकाफ़ी साबित हो रहे हैं ।


अगर सच में ही महिलाओं को अपना वजूद बनाए बचाए रखना है तो कम से कम उस समय उन्हें उग्र और बागी तेवर में आना ही होगा जब बात उनकी आन और जान पर बन आने की हो । झारखंड में एक विधायक को सरेआम कत्ल करके उस महिला ने अपनी बेटी को उस विधायक के हाथों हवस का शिकार होने से बचा के दिखा ही दिया कि वक्त आने पर नारी कुछ भी कर गुजरने से परहेज़ नहीं करती , लेकिन एक बार फ़िर अफ़सोस होता है जब देखा जाता है कि ऐसा साहस करने वालों को भी देश , समाज और खुद नारी समाज भी चुप्पी लगाए बैठ जाता है ।

बुधवार, 4 मई 2011

आयटम सॉंग बनाम संगीतमय अश्लीलता .....आज का मुद्दा









हिंदी फ़िल्मों में एक गाना हमेशा से आकर्षण के लिए विशेष तौर पर डालने का चलन काफ़ी पहले से ही रहा है । कैबरे डांस के रूप में एक समय हेलन , बिंदु आदि अभिनेत्रियों ने तो गजब की नृत्य शैली से एक अलग ही मुकाम हासिल किया था सत्तर के दशक की सिनेमाई दौर में । कव्वाली , कैबरे , गज़ल प्रतियोगिताओं के बहाने से गीतों को फ़िल्मों की कहानी के इर्द गिर्द इस तरह से बुना जाता था कि वो कहीं न कहीं कोई न कोई बहाना बन ही जाता था सिनेमा का भाग बनने के लिए । समय बदला और बॉलीवुड सिनेमा भी अपना रूप अपना तेवर बदलने लगा । कला सिनेमा तो जैसे कहीं खो कर रह गया लेकिन चूंकि समाज भी बदल रहा था इसलिए दलील ये दी जाने लगी कि ये कहानियां , ये विषय , और सब कुछ जो सिनेमा जगत में देखा दिखाया जा रहा है वो इसी समाज से आयातित है । उधर समाज भी सिनेमा पर ये आरोप लगाता रहा है कि उसमें दिनों दिन हावी हो रही अपसंस्कृति ने समाज को भी भ्रष्ट नष्ट करने में उत्प्रेरक का काम किया है और अब भी कर रहा है । इन सबके साथ ही एक चलन जिसने सबसे ज्यादा तेजी से पैठ बनाई हिंदी फ़िल्मों में वो था आयटम सॉंग के अश्लील होते बोल और उसका साथ निभाते भौंडे नृत्य । इन नृत्यों में जानबूझ कर इस तरह की भावभंगिमा और ईशारे किए कराए जाते हैं कि वो अश्लील बोलों के साथ एकदम फ़िट बैठें । 

कभी मैं आई यूं हूं यू पी बिहार लूटने से शुरू हुई कहानी , पहले जिगर से बीडी जलाते हुए , शीला की जवानी की दहलीज़ पार करते हुए , मुन्नी की बदनामी को गले लगाते हुए अब तो टिंकू जिया और जाने कितने ही द्विअर्थी गीतों के बहाने से इतनी आगे बढती जा रही है कि अब तो वो फ़िल्मों की कहानी , उसके नायक नायिकाओं तक पर भारी पड रही है । आश्चर्य की बात ये है कि न तो इन गानों का कोई अर्थ होता है नी ही अक्सर इनमें कोई माधुर्य होता है , नृत्य भी इतना भौंडा होता है और नायिका के कपडे ऐसे कि सिवाय शर्म के और कोई भावना नहीं निकलती । समाज में आज जिस तरह से नकारात्मकता हावी हो रही है उसमें यदि ऐसे गाने रातों रात लोगों के न सिर्फ़ जुबान पे चढ जाते हैं बल्कि दिलो दिमाग पर भी हावी हो जाते हैं तो उसमें अंचभा नहीं होना चाहिए । हां जब अपनी तुतलाती जबान में किसी नन्हें बच्चे के मुंह से शीला की जवानी और मुन्नी बदनाम हुई डार्लिंग तेरे लिए जैसे गीतों के बोल सुनने को मिलते हैं तो ये सोच और भी गहरी हो जाती है कि क्या वाकई कल के समाज को सांस्कृतिक प्रदूषण से बचाया जा सकता है । 


इन गीतों का प्रचलन और लोकप्रियता का आकर्षण दिनोंदिन इस कदर बढता जा रहा है कि अब तो न सिर्फ़ छोटी तारिकाएं , नायिकाएं बल्कि मुख्य भूमिका निभाने वाली अभिनेत्रियां भी ऐसे गीतों पर मचलने के लिए बेताब हैं । गीतकार भी ढूंढ् ढूंढ कर ऐसे गीतों की रचना कर रहे हैं जिसे किसी भी दृष्टिकोण से गीत संगीत के किसी भी पैमाने पर नहीं रखा देखा जा सकता । सबसे अधिक दुखद बात तो ये है कि जहां एक तरफ़ खुद युवतियां और तारिकाएं ऐसे गीतों पर थिरक कर पूरे महिला समाज के लिए जाने अनजाने बहुत सारी मुश्किलें खडी कर रही हैं वहीं इन गीतों पर सेंसर बोर्ड के साथ साथ महिला अधिकारों के प्रति सचेत और सजग रहने करने वाली संस्थाएं भी चुप्पी लगाए बैठी हैं । इस विमर्श पर जब भी कोई बहस उठती है तो फ़िर यही दलील दी जाती है कि आज विश्व में मनोरंजन के रूप में सबसे ज्यादा पोर्न सामग्री ही चलन में है लेकिन ये दलील देने वाले ये बात भूल जाते हैं कि न तो ये आंकडे भारतीय परिप्रेक्ष्य में सही माने जा सकते हैं और न ही इस सच का भारतीय सिने जगत से कोई संबंध है । 


अब स्थिति दिनोंदिन विस्फ़ोटक होती जा रही है और यदि अब भी इन गीतों , इस भौंडी प्रवृत्ति पर रोक नहीं लगाई गई तो फ़िर कोई बडी बात नहीं कि जिस तरह से हाल ही में एक मॉडल द्वारा भारतीय क्रिकेट टीम की जीत के अवसर पर अपनी नुमाईश करने की घोषणा की गई थी तो उससे आगे बढते हुए फ़िल्मों में भी कोई ऐसी ही खुशी प्रकट करने लगे । फ़िल्मकारों ,गीतकारों और खुद नायिकाओं को इस सस्ती लोकप्रियता के मोह से बचना चाहिए और लकवाग्रस्त हो चुकी नियंत्रणकारी संस्थाओं को भी कम से कम कुश प्रतिशत जिम्मेदारी तो निभानी ही चाहिए । ऐसा हो पाएगा इस बात की आशा तो नहीं है इसलिए आम लोगों को खुद ही ये दबाव बनाना चाहिए और इन गानों का विरोध करना चाहिए ताकि कल को किसी की  उन्हीं गानों के सहारे समाज की बेटियों की छीछालेदारी करने की हिम्मत न हो सके  ॥


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