गुरुवार, 29 अगस्त 2013

बदलता खेल परिदृश्य ---- (खेल दिवस पर विशेष)





क्या आपने गौर किया है कि पिछले कुछ समय में खेल जगत के कोनों में न सिर्फ़ खेल और खिलाडियों के चेहरे बदले हैं बल्कि उनके मिज़ाज़ , तेवर , आक्रामकता , व्यावसायिकता और तदनुसार उपलब्धियों में भी जबरदस्त बदलाव आया है । । एक समय था जब राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय क्रीडा जगत में पहले हॉकी और उसके बाद क्रिकेट ने अपना जलवा और आधिपत्य बनाए रखा । हॉकी में जहां हॉकी के जादूगर ध्यानचंद , जिनकी स्मृति में ही , आज यानि 29अगस्त को राष्ट्रीय खेल दिवस के रूप में याद किया और मनाया जाता है , ने जहां वैश्विक प्रतियोगिताओं में रिकॉर्ड 400 से अधिक गोल दाग कर ओलंपिक खेलों सहित पूरे विश्व में भारतीय हॉकी का परचम लहरा दिया वहीं कपिल देव की अजेय क्रिकेट टीम ने 1983 में क्रिकेट विश्व कप जीत कर देश को क्रिकेट से जोड कर देशवासियों को एक नए जुनून की ओर मोड दिया बाद में इस विरासत को सचिन तेंदुलकर सरीखे युगों में पैदा होने वाले खिलाडी की अदभुत उपलब्धियों ने बुलंदियों पर पहुंचा दिया और भारतीय टीम दूसरी बार भी विश्व कप जीतने में सफ़ल रही । क्रिकेट के प्रति इस देश की दीवानगी तो जग-जाहिर रही है । स्थिति तो ऐसी बन गई कि क्रिकेट पर ये आरोप लगने लगे कि उसने अन्य खेलों के विकास/ प्रसार में बहुत बाधा डाली । 

अब स्थिति बहुत बदल रही है । आज देश में फ़ार्मूला वन रेस आयोजित किया जा रहा है तो दूसरी तरफ़ इंडियन बैडमिंटन लीग में भी लोगों ने खासी दिलचस्पी ली है । अपनी एकल उपलब्धियों के दम पर देश भर के खेल प्रेमियों का न सिर्फ़ अपनी तरफ़ बल्कि अलग अलग खेलों की तरफ़ भी ध्यान खींचने में भी पिछले कुछ वर्षों में देश के मेधावी खिलाडी सफ़ल रहे । अभिनव बिंद्रा , राज्यवर्धन सिंह राठौड , सुशील कुमार , विजेंद्र सिंह , डिंको सिंह , मैरी कॉम ,सानिया मिर्ज़ा ,सायना नेहवाल , पी वी सिंधु , सरीखे अनेक नामों ने इस बीच न सिर्फ़ राष्ट्रीय बल्कि वैश्विक खेल जगत में भी भारतीय धमक को गुंजायमान किया । 


इतना ही नहीं , टीम प्रतियोगिताओं में न सिर्फ़ पुरूषों की टीम बल्कि महिलाओं की टीमों ने भी जिस तरह से अपना खेल और प्रतिभा दिखाते हुए खेल समीक्षकों को आश्वर्यचकित करते हुए पूरे देश को गौरवान्वित किया है वो देश के खेल इतिहास में एक नया अध्याय जोडने की तैयारी जैसा है । एक के बाद एक मिल रही सफ़लताएं ये जता और बता रही हैं कि अब भारतीय खेल और खिलाडी भी उसी पेशेवराना रुख को अख्तियार करके मैदान में उतरने लगे हैं जिसका अभाव सालों से महसूस किया जा रहा था । 

हालांकि इस नए बदलाव की एक सुखद वजह ये भी रही है कि कभी खेल में कैरियर और जिंदगी देकर जीवन बर्बार करने जैसे नज़रिए को बदलने के लिए अब न सिर्फ़ सरकारें और संस्थाएं बल्कि औद्यौगिक घराने भी अपना धन और मन दे रहे हैं जिसका परिणाम नि:संदेह खेलों व खिलाडियों का बढता हौसला और उनका उठता जीवन स्तर है । आज खिलाडियों की हैसियत सही मायने में किसी स्टार की तरह है , उनके लाखों करोडों प्रशंसक हैं जो रात दिन उनकी हौसलाअफ़ज़ाई करते हैं , इसका प्रमाण है प्रशंसकों का वो हुज़ूम जो समय असमय भी अपने खिलाडियों के स्वागत में घंटों फ़ूल मालाएं लेकर हवाईअड्डों पर पलकें बिछाए उनका इंतज़ार करता है । 

आज राष्ट्रीय खेल दिवस पर ये महसूस होना सच में ही बहुत अच्छा लगता है कि अब देश में खेलों और खिलाडियों का भविष्य न सिर्फ़ बहुत उज्जवल बल्कि सुनहरा होगा ।

गुरुवार, 22 अगस्त 2013

सच को दबाने और सूचना को छिपाने की नीयत




अभी कुछ समय पूर्व ही शिवसेना के संस्थापक राजनेता बाला साहब ठाकरे के निधन के बाद मुंबई में दो युवतियों को फ़ेसबुक पर टिप्पणी करने व उसे पसंद करने या प्रतिक्रिया देने की शिकायत होने पर उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया । मामले के तूल पकडने व न्यायालय द्वारा उन्हें जमानत देते समय अदालत ने यह टिप्पणी की थी कि इस तरह के मामलों में गिरफ़्तारी से पहले अदालत से आदेश लिया जाना चाहिए । अभी कुछ दिनों पूर्व पुन: इस घटना की पुनरावृत्ति हुई जब उत्तर प्रदेश में एसडीएम दुर्गा शाक्ति नागपाल के निलंबन पर राज्य सरकार के विरूध आलोचनात्मक टिप्पणी करने के लिए पुलिस में दी गई एक तहरीर के आधार पर दलित चिंतक विचारक कंवल भारती को गिरफ़्तार करके बाद में जमानत पर छोड दिया गया ।

संयोगवश जब प्रदेश की राज्य सरकारें अभिव्यक्ति का दमन करने के लिए आतुर व अंसवेदनशील दिखाई दे रही हैं ठीक इसी समय केंद्र सरकार व पक्ष-विपक्ष में बैठी तमाम राजनीतिक पार्टियां कभी बडे जोशो-खरोश से जनता को दिए जाने वाले सूचना के अधिकार के दायरे से खुद को बाहर रखने के लिए संविधान में संशोधन की तैयारी में हैं । यदि दोनों घटनाओं को एक परिप्रेक्ष्य में एक पल के लिए देखा जाए तो ये स्पष्ट दिखता है कि शासक वर्ग न तो किसी सच को सामने आने देना चाहता है और न ही उस कुरूप व कडवे सच पर आम आदमी द्वारा अभिव्यक्त किसी आलोचना या प्रतिक्रिया को सहन करने को तैयार है ।

जहां तक आम आदमी द्वारा अभिव्यक्ति की स्वंतंत्रता के उपयोग में मर्यादा व सामाजिक कानून के उल्लंघन का सवाल है तो इसमें कोई संदेह नहीं कि मौजूदा समय में अंतर्जाल व सोशल नेटवर्किंग साइट्स की व्यापकता व निर्बाधता के कारण इसके दुरूपयोग की गुंजाइश बहुत बढ गई है और यदा कदा इसके उदाहरण सामने आते भी रहे हैं । यह भी एक सच है कि इन माध्यमों पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने के नाम पर , अपना विचार साझा करने के नाम पर और जाने किन किन अन्य बहानों से बाकायदा समूह बनाके कहीं द्वेष फ़ैलाने का काम किया जा रहा है तो कहीं किसी को अपमानित करने का , कहीं अफ़वाह फ़ैलाई जा रही है तो कहीं घृणा को बढावा दिया जा रहा है । इतना ही नहीं , देश के विख्यात राजनेताओं , अभिनेताओं ,खिलाडियों आदि द्वारा इन मंचों माध्यमों पर व्यक्त विचारों, प्रतिक्रियाओं को समाचार माध्यमों में सुर्खियों के रूप में देखा और दिखाया जा रहा है ।

सारांश ये कि इसका उजला और काला पक्ष दोनों ही समाज व सरकार के सामने है और शायद इसीलिए सरकार ने इसकी ताकत व प्रभाव का अंदाज़ा लगाते हुए इस दिशा में कानून का  निर्माण भी किया । किंतु आंकडे बताते हैं कि अन्य समकक्ष कानूनों की तरह इसके दुरूपयोग , खासकर शासक वर्ग शासित वर्ग के खिलाफ़ किए जाने की गुंजाईश बराबर बनी हुई है ।

आम आदमी , व्यवस्था के प्रति अपना क्रोध अपना गुस्सा अपनी प्रतिक्रिया अक्सर तब प्रतिकूल होकर देता है और जब वह पाता देखता है कि उसके सामने आया सच , उस सच से बिल्कुल अलग है जो प्रशासन और सरकार द्वारा उसके सामने परोसा जाता रहा है । और दोनों सच का असली सच यदि आज आम आदमी की पहुंच में आ सकता है तो वो संभव हो पाया है जन सूचना अधिकार २००५ के कारण ।

देश में उपलब्ध आंकडे बताते हैं कि आम आदमी ने इस अधिकार का उपयोग करते हुए सरकारी दफ़्तरों संस्थानों से अपने हित में छोटी छोटी सूचनाएं निकलवाकर अपने काम करवाए, जिन कार्यों के लिए उसे बहुत सारा पैसा व श्रम खर्च करने के बावजूद भी कुछ हासिल नहीं हो पाता था, वो काम करवाए बल्कि प्रधानमंत्री , व राष्ट्रपति तक से और उनके कार्यकाल उनकी नीतियों , फ़ैसलों और उनके पीछे की कार्यवाहियों , पत्र व्यवहार , प्रशासन की नोटिंग आदि तक की सूचनाएं भी बाहर निकाल कर जनता के सामने रख दीं । देश को साठ वर्षों के बाद एक स्कूली बालिका के सूचना मांगने पर पता चला कि सालों से पाठ्यक्रम तक में बच्चे जिन महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता के रूप में पढती जानती आई है और असल में भारत सरकार ने उन्हें राष्ट्रपिता का दर्ज़ा कभी आधिकारिक रूप से दिया ही नहीं । सरकार , प्रशासन व व्यवस्था द्वारा जितना छुपाया गया सच था इस कानून के माध्यम से उसकी परत दर परत उधेडने की मानो एक होड सी लग गई । सच को कुरेदने की ये मुहिम इतनी असरकारक साबित हुई कि बहुत बार इस ज़ोखिम में सूचना मांगने वाले को अपनी जान तक गंवानी पडी ।

आंकडों के अनुसार पिछले एक वर्ष में १६०९ व्यक्तियों पर सूचना के अधिकार के कारण हमला किया गया एवं ७८ व्यक्तियों को अपनी जान से हाथ धोना पडा । किंतु सरकार व राजनैतिक दलों को दिक्कत तब हुई जब मुख्य चुनाव आयुक्त ने अपने एक आदेश में कहा कि राजनैतिक दल सरकारी सहायता और टैक्स में छूट लेने के कारण जनप्राधिकारा हैं इसलिए वे अपने चंदे , चुनाव तथा नीतियों की जानकारी सार्वजनिक करें । जबकि इसके विरूध राजनीतिक दलों की दलील है कि निर्वाचन आयोग दलों को जनप्रनिधित्व एक्ट १९५१ के तहत पंजीकृत करता है और चुनाव के योग्य बनाता है महज़ इस लिहाज़ से दल जनप्राधिकार नहीं कहे जा सकते हैं ।

जो भी हो फ़िलहाल तो देश के सभी राजनीतिक दल सच को दबाने व सूचना को छिपाने की नीति पर एकमत होकर काम कर रहे हैं और जैसाकि संभावित है वे इस कानून की धार को कमज़ोर करने हेतु आवश्यक संशोधन भी कर लेंगे जो अंतत: लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था के लिए गलत साबित होगा ।

बुधवार, 7 अगस्त 2013

आज का मुद्दा .........



अभिव्यक्ति का दमन

अभी कुछ समय पूर्व बाला साहब ठाकरे के निधन के समय मुंबई में दो युवतियों को मुंबई पुलिस ने महज़ इसलिए गिरफ़्तार कर लिया था क्योंकि उन्होंने फ़ेसबुक में कोई प्रतिकूल टिप्पणी की थी । बाद में उन्हें अदालत द्वारा न सिर्फ़ छोड दिया गया बल्कि अदालत ने निर्देश भी दिए कि ऐसे मामलों में बिना अदालती आदेश के किसी की गिरफ़्तारी न की जाए । अब हाल ही में उ.प्रदेश के एक दलित चिंतक साहित्यकार को उत्तर प्रदेश पुलिस ने एक राजनेता द्वार दी गई तहरीर के आधार पर दर्ज़ प्राथमिकी में गिरफ़्तार करके पुन: उसकी पुनरावृत्ति की है । दोनों ही घटनाओं में दो अहम बातें सामने आ रही हैं । पहली ये कि लोकतंत्र की आत्मा अभिव्यक्ति है फ़िर चाहे वो सहमति हो या असहमति शायद इसी के मद्देनज़र ही संविधान में इसे एक मूल अधिकार के रूप में शामिल किया गया । दूसरी बात ये कि आज की सरकार , राजनेता व प्रशासन इतने ज्यादा संवेदनहीन हो चुके हैं कि जरा सी आलोचना ( ध्यान रहे अपमान नहीं ) भी उन्हें नागवार गुजरता है और वे दमन का सहारा ले रहे हैं ।


उत्तर प्रदेश के दलित चिंतक द्वारा दुर्गा शक्ति नागपाल निलंबन के मुद्दे पर अपनी असहमति जताते हुए आलोचनात्मक टिप्पणी भर कर देना क्या इतना बडा जुर्म हो गया सरकार व पुलिस की नज़र में कि उन्हें आनन फ़ानन में गिरफ़्तार कर लिया गया । सरकार और प्रशासन शायद ये भूल रही हैं कि यदि आम आदमी जो पहले ही सरकार की जनविरोधी नीतियों और भ्रष्ट आचरण से बुरी तरह क्षुब्द और आहत है यदि उसे अपनी नाराज़गी , अपना क्रोध , शब्दों और वाक्यों में भी कहने लिखने की आज़ादी नहीं होगी तो फ़िर वो समय दूर नहीं जब विश्व के अन्य देशों की तरह यहां भी लोग सडकों पर उतर अन्य हिंसक और वैकल्पिक तरीके तलाशेंगे । ये ठीक है कि संचार माध्यमों के विस्तार और अनियंत्रित स्वरूप के कारण बहुत कुछ ऐसा सामने लाया जा रहा है जो किसी भी स्वस्थ समाज के लिए अच्छा नहीं कहा जा सकता किंतु वैचारिक भिन्नता और असहमति को दबाने के लिए इस तरह झूठे  और आपराधिक मुकदमों के दम पर दमन का सहारा लेना खुद सियासत के  लिए आत्मघाती कदम साबित होगा ।




खाद्य सुरक्षा योजना

जैसी कि सरकार ने पहले ही घोषणा कर दी थी कि मौजूदा मानसून सत्र में वो खाद्य सुरक्षा विधेयक लाएगी जो ये सुनिश्चित करेगा कि देश में किसी गरीब को  भूखा न रहना पडे । सुनने में तो ये योजना बेहद कल्याणकारी और बहुत ही जरूरी जान पडती है , मगर आम जन की निगाह में इस पर अभी से संदेह ज़ताने के कम से कम दो पुख्ता कारण तो जरूर मौजूद हैं । पहला तो ये कि ऐसी ही एक मह्त्वाकांक्षी योजना "स्कूलों में मिड डे मील" दिए जाने वाली योजना का संचालन किस गैर जिम्मेदाराना तरीके से किया जा रहा है ये बात अब किसी से छुपी नहीं है । हालात ऐसे बन गए हैं कि अब गरीब से गरीब अभिभावक भी अपने बच्चों को स्कूलों में खाना खाने से मना कर रहा है क्योंकि उसे उस खाने को खाने के बाद किसी अनिष्ठ की आशंका रहती है । दूसरी बात ये कि सरकार द्वारा समय समय गरीबों के लिए बनाई और लागू की जा रही ऐसी सैकडों योजनाओं के नाम पर करोडों अरबों रुपए के घपले घोटाले और हेराफ़ेरा किए जाने का संदेह , भी आम लोगों को इस योजना के प्रति उदासीन बना रहा है ।

इन सबसे अलग सरकार ने आगामी आम चुनावों से ठीक पहले का समय इसे लागू करने के लिए चुनकर रही सही कसर भी पूरी कर दी है । बेशक उद्देश्य में बहुत ही अच्छी लग रही और भविष्य में बेशक बहुत ही लाभदायक भी सिद्ध होने की संभावना के बावजूद भी फ़िलहाल ये सरकार का राजनीति से प्रेरित कदम माना जा रहा है मुख्य विपक्षी दलों समेत अन्य बहुत सारे राजनीतिक दलों द्वारा भी इसमें बहुत सारी बुनियादी कमियां बताई गई हैं जिसमें से एक सबसे अहम तो ये है कि इतनी बडी दीर्घकालीन योजना के लिए धन कहां से जुटाया जाएगा इस बात का कोई खुलासा भी नहीं किया गया है । जो भी हो , यदि सरकार न सिर्फ़ इस योजना बल्कि इस सहित पहले की तमाम ऐसी जन कल्याणकारी योजनाओं का समय समय खुद ही मूल्यांकन करे और उसकी सफ़लता और असफ़लता को देख कर भविष्य की योजनाओं की रूपरेखा बनाए तो स्थिति नि:संदेह कुछ और होगी ।

मंगलवार, 6 अगस्त 2013

बाहरी सतर्कता और अंदरूनी व्यर्थता


सतर्क रहने का समय
जैसी कि आशंका व्यक्त की जा रही थी कि वर्तमान मेम देश के राजनीतिक परिदृश्य के उथल पुथ को देखते हुए भारत के सभी पडोसी देश अपनी फ़ितरत के अनुसार देश की सीमा पर अपनी नापाक गतिवधियां बढाएंगे । पिछले कुछ महीनों से अति महात्वाकांक्षी और चिर धूर्त राष्ट्र चीन ने सीमा पर जैसी घुसपैठ व दु:साहस शुरू किया है उससे आश्चर्य हो न हो किंतु इतना तो जरूर है कि ये सरकार , सेना व सुरक्षा एजेंसियों के लिए सतर्क हो जाने का समय है ।भारत के दूसरे पडोसी देश पाकिस्तान ,जहां चुनाव के बाद नवाज शरीफ़ और ममनून हसन जैसे कम आक्रामक छवि वाले राजनीतिज्ञों द्वारा बागडोर संभालने से ये उम्मीद की जा रही थी कि शायद  स्थिति में कुछ बदलाव हो मगर घुसपैठ और फ़ायरिंग से हमारे पांच सैनिकों को गोली मारने जैसा कृत्य बता रहा है कि कहीं कुछ भी नहीं बदला है । गौर तलब है कि अगले महीने ही दोनों देशों के बीच शांति वार्ता भी प्रस्तावित है । भविष्य में देश में होने जा रहे आम चुनावों के मद्देनज़र अलगाववादी व आतंकी संगठन भी अपनी हरकतों को अंज़ाम देने की पुरज़ोर कोशिश करेंगे । ऐसे में ये बहुत जरूरी हो जाता है कि भारत अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इन सबका न सिर्फ़ दृढता से जवाब दे बल्कि सेना व सुरक्षा एजेंसियों को हाई अलर्ट पर रख दिया जाए । 


निर्रथक संसद सत्र 

संसद का मानसून सत्र शुरू हो चुका है और सरकार तथा विपक्षी दलों द्वारा बार-बार संसद को गंभीरतापूर्वक चलाए जाने की प्रतिबद्धता ज़ाहिर करने के बावजूद इस बार भी स्थिति बहुत बेहतर नहीं दिखाई दे रही है । ज्ञात हो कि सरकार ने पहले ही कहा था कि इस बार उसके आस अध्यादेश तथा चवालीस विधेयक विचार/बहस के लिए प्रस्तावित हैं किंतु तेलंगाना के मुद्दे पर जिस तरह से पहले ही दिन खुद कांग्रेसी सांसदों ने हंगामा करके संसद ठप्प कर दी वह बेहद अफ़सोसनाक बात है । हालांकि इस बार संसद के मानसून सत्र को तीन दिन अधिक चलाए जाने  की बात की जा रही है किंतु संसद की वर्तमान कार्यवाही और जनप्रतिनिधि , सांसादों के गैर जिम्मेदाराना व्यवहार को देखते हुए आम जनता को यही लग रहा है कि निर्धारित दिनों के अलावा विस्तारित तीन दिन भी व्यर्थ ही जाएंगे। पिछले कुछ वर्षों में ये जानते हुए भी कि संसद सत्र के दौरान लाखों रुपए का व्यय अवाम की गाढी कमाई से जुटाए गए राजकोष से ही किया जाता है , जनप्रतिनिधियों का ऐसा रवैया न सिर्फ़ लोकतंत्र का अपमान है बल्कि राजकोष के धन के दुरूपयोग का नैतिक अपराध भी है । ये संचार का युग है और पूरा विश्व समूह आज भारत की ओर नज़र गडाए बैठा है ऐसे में इस तरह का आचरण देश व राष्ट्रीय\अंतराष्ट्रीय राजनीति के लिए आत्मघाती ही साबित होगा । 
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