देश के एक प्रतीक्षित फ़ैसले में अदालत का निर्णय , जो कि अधिकतम , यानि मृत्युदंड आने के बाद एक बार पुन: "मृत्युदंड" की सज़ा पर नई बहस उठ खडी हुई है । ज्ञात हो कि ऐतिहासिक रूप से ये पहला मौका है जब किसी एक ही जिला अदालत द्वारा एक माह के भीतर ही नौ अपराधियों को मृत्युदंड की सज़ा सुनाई गई है । अंतरराष्ट्रीय संस्था एमनेस्टी इंटरनेशनल ने भी मृत्युदंड की सज़ा के बढते दर को चिंताजनक करार दिया है । अभी कुछ समय पूर्व ही आतंकवाद का आरोप साबित होने पर दो अपराधियों अजमल कसाब और अफ़ज़ल गुरू को फ़ांसी पर लटकाया गया था ।
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मृत्युदंड की सज़ा के इतिहास पर नज़र डाली जाए तो भारत सहित अन्य बहुत से देशों में न सिर्फ़ मौत की सज़ा का प्रावधान प्रचलित था बल्कि लगभग सभी देशों में इसके क्रियान्वयन के अमानवीय और क्रूर तरीके भी प्रचलिए थे । इंगलैंड में १४९१-१५४१ के बीच तो लगभग ७२,००० लोगों को छोटे बडे अपराधों तक के मृत्युदंड दे दिया गया । मृत्युदंड की सज़ा देने के लिए क्रूरतम विधियों का प्रयोग किया जाता था जैसे गैरेट ( धातु की कॉलर से अपराधी का गला , उससे श्वास रूकने तक दबाए रखना ) , गुलोटिन ,(एक विशेष प्रकार की मशीन जिसमें बडे धारदार ब्लेड की सहायता से अपराधी का सिर धड से अलग कर दिया जाता था । इसके अलावा सूली पर टांग कर , कुचलकर , विषैली गैस छोडकर, ज़हर का इंजेक्शन व गोली मारकर भी मृत्युदंड दिया जाता था । अमानवीय तरीकों में जिंदा गाडकर पशुओं के खाने केल इए छोड देना , छोटे बडे घाव देकर रोज कष्ट पहुंचा कर तथा सार्वजनिक स्थानों पर अपराधियों पर पत्थर बरसा अक्र उन्हें मार डालने की प्रथाएं व्याप्त थीं । आधुनिक युग में कुछ अरब देशों को छोडकर मृत्युदंड के अमानवीय तरीकों को हटा दिया गया है ।
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मृत्युदंड की सज़ा के विरोधी इसके पीछे तर्क देते हुए कहते हैं कि इस दंड की अप्रतिसंहरणीयता के कारण इसका प्रयोग खतरे से खाली नहीं है क्योंकि भविष्य में यदि आरोपी निर्दोष साबित हो जाता अहि तो इस दंड का उपशमन नहीं किया जा सकता है । किंतु इस तर्क के जवाब में यह कहा जा सकता है कि बहुस्तरीय न्याय प्रक्रिया और जटिलताओं के बाद इस बात की गुंजाईश न के बराबर बचती है कि ऐसी कोई स्थिति सामने आए । इसके विरोध में दूसरा तर्क ये दिया जाता है कि दंड का एक उद्देश्य होता है कि उसके भय से अपरधियों में अपराध के प्रति प्रतिरोध की भावना आए जबकि वास्तव में मृत्युदंड की सज़ा से संबंधित अपराध की दर में कोई प्रभाव पडा हो ऐसा देखने को नहीं मिलता ।
किंतु सिर्फ़ इस कारण से मृत्युदंड की सज़ा को समाप्त किया जाना तर्कसंगत नहीं लगता आज भी विश्व के १४१ देशों ने अपने यहां पर इस दंड व्यवस्था को बहाल रखा हुआ है । । इस विषय में प्रसिद्ध इटेलियन अपराधशास्त्री गेरोफ़ेलो का कथन गौर करने लायक है कि , " मृत्युदंड को समाप्त करने का अर्थ यह होगा मानो हम हत्यारे से कह रहे हैं कि तुम्हारे द्वारा किसी व्यक्ति की जान लेने जोखिम केवल अय्ह होगा कि अब तुम स्वयं के घर के बजाय कारागार में निवास करोगे " । यूं भी अपराध, आतंकवाद का प्रसार और मानवता के प्रति उसके बढते हुए खतरे को देखकर मृत्युदंड को समाप्त करना उचित नहीं जान पडता है । श
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भारत में भी मृत्युदंड को समाप्त करने की कवायद कई बार की गई है । लोकसभा में इस आशय का प्रस्ताव सर्वप्रथम १९४९ में रखा गया था किंतु तत्कालीन गृह मंत्री वल्लभ भाई पटेल ने इसे ठुकरा दिया था । १९८२ में दिल्ली में आयोजित दंड विधि पर अंतरराष्ट्रीय कांग्रेस में भी मृत्युदंड के औचित्य पर विस्तृत चर्चा हुआ किंतु मृत्युदंड को विधि में यथावत रखने पर ही सहमति बनी । इसी प्रकार १९७१ में विधि आयोग ने भी मृत्युदंड के पक्ष में विचार रखते हुए कहा कि मृत्युदंड का आधार प्रतिशोध की भावना न होकर निष्ठुत अपराधियों के प्रति समाज का रोष दर्शाना है अत: दंड विधि में उसे बनाए रखना सर्वथा उचित है ।
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जहां तक भारतीय विधि में मृत्युदंड की स्थिति है तो कुछ विशेष अपराधों के लिए मृत्युदंड का प्रावधान रखा गया है । सरकार के विरूद्ध युद्ध छेडना , सैनिक विद्रोह का दुष्प्रेरण , हत्या , आजीवन कारावास मिले अभियुक्त द्वारा हत्या का प्रयास , फ़िरौती के लिए अपहरण व हत्या , हत्या सहित डकैती आदि । यहां यह उल्लेख करना समीचीन होगा कि भारतीय दंड संहिता की धारा ३०३ एकमात्र ऐसी धारा थी जिसमें अपराधी को मृत्युदंड ही दिया जाना अनिवार्य था तथा इसके विकल्प में आजीवन कारावास दिए जाने का प्रावधान नहीं था ,जिसे वर्ष १९८३अ में मैथ्यू बनाम पंजाब राज्य के वाद में असंवैधानिक ठहरा दिया गया । ज्ञात हो कि वर्ष १९५५ के पूर्व मानव वध के लिए मृत्युदंड दिया जाना सामान्य नियम था एवं आजीवन कारावास दिए जाने पर उसका कारण दर्ज़ करना आवश्यक होता था जबकि १९५५ में किए गए संशोधन के पश्चात स्थिति ठीक विपरीत हो गई तथा मृत्युदंड की सज़ा सुनाते समय इसके कारणों का उल्लेख करना अपरिहार्य बना दिया गया । उच्चतम न्यायालय द्वारा निर्णीत मृत्युदंड से संबंधित प्रकरणों के विश्लेषण से यह पता चलता है कि न्यायालय ने आकस्मिक आवेश, उत्तेजना, विषयसक्ति के कारण उत्पन्न घृणा , पारिवारिक कलह , भूमि संबंधी झगडे , आदि को मृत्युदंड के बजाय आजीवन कारावास का दंड दिए जाने का उचित कारण माना है ।
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मृत्युदंड के संदर्भ में व्याख्यायित सिद्धांत "विरलों में भी विरलतम" को भी अक्सर बहस का विषय बनाया जाता रहा है एवं खुद कई बार ये बात न्यायपालिका तक मान चुकी है कि इसकी व्याख्या करने के न्यायिक मानदंड में भारी असामनाता रही है ।यही कारण है कि वर्ष १९८३ में दीना बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के वाद में इससे पूर्व निर्णीत वाद बचन सिंह बनाम पंजाब राज्य में व्याखायित सिद्धांत कि मृत्युदंड "विरलों में से भी विरलतम" मामलों में ही दिया जाना चाहिए को और स्पष्ट करते हुए कुछ विशेष बिंदुओं को चिन्हित किया जिन्हें विरलतम माना जाना चाहिए । बर्बरतापूर्वक एवं क्रूरतापूर्ण तरीके से की गई हत्या , हत्या का उद्देश्य घिनौना या दुराचारयुक्त हो , यदि यथा सामाजिक दृष्टि से घृणित या वीभत्स हो , जहां हत्याएं बडे पैमाने पर की गई हों , जैसे सामूहिक हत्या तथा जहां अपराध से पीडित व्यक्ति कोई असहाय बालक ,महिला , वृद्ध व्यक्ति या विख्यात , प्रतिष्ठित व्यक्ति हो या हत्या राजनीतिक स्वरूप की हो ।
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अत: सारांशत: यह कहा जा सकता है कि इसमें संदेह नहीं कि यदि मृत्युदंड का मनामने ढंग से या या भेदभावपूर्ण तरीके या जानबूझकर अनुचित रूप से प्रयोग किया गया तो वह असंवैधानिक होगा परंतु यदि वह विवेकपूर्वक उचित ढंग से निष्पक्ष होकर लागू किया जाए तो यह निश्चित ही लोगों में आपराधिक न्याय प्रशासन की विश्वसनीयता और उसके प्रति आस्था में अभिवृद्धि ही करेगा ।
अत: सारांशत: यह कहा जा सकता है कि इसमें संदेह नहीं कि यदि मृत्युदंड का मनामने ढंग से या या भेदभावपूर्ण तरीके या जानबूझकर अनुचित रूप से प्रयोग किया गया तो वह असंवैधानिक होगा परंतु यदि वह विवेकपूर्वक उचित ढंग से निष्पक्ष होकर लागू किया जाए तो यह निश्चित ही लोगों में आपराधिक न्याय प्रशासन की विश्वसनीयता और उसके प्रति आस्था में अभिवृद्धि ही करेगा ।
जवाब देंहटाएंperfect summary ajay
शुक्रिया रचना जी ।
हटाएंशानदार आलेख अजय सर।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया मनोज भाई
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