चित्र गूगल खोज़ से , साभार |
वर्षांत के दिन बेशक ही साल भर खोए पाए के आकलन और विश्लेषण के दिन होते हैं । किंतु इसके साथ ही राजधानी दिल्ली मुंबई जैसे महानगरों में ये उन अभिभावकों की भाग दौड के दिन होते हैं । राजधानी दिल्ली के स्कूलो में तो नर्सरी के दाखिले की रेलमपेल कॉलेजों में व नामी संस्थानों में प्रवेश सरीखा ही कठिन जान पडता है । राष्ट्रीय
राजधानी क्षेत्र की जनसंख्या में बहुत तीव्र गति से वृद्धि हो रही है । हालांकि पिछले दो दशकों में विद्यालयीय शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक निजि विद्यालयों व संस्थानों के स्थापित होने की दर भी काफ़ी तीव्र रही है । बेशक सरकार व प्रशासन नए स्कूल कॉलेज खोलने , विशेषकर बढ रही जनसंख्या के अनुपात में , सर्वथा विफ़ल रहे । या फ़िर शायद जानबूझ कर ऐसी स्थिति उत्पन्न की गई वर्ना इसकी कोई ठोस वजह नहीं दिखाई देती कि सरकार निजि शिक्षण संस्थानों सब्सिडी दर पर भारी रियायत देकर जमीनों का आवंटन तो कर देती है मगर खुद वहां नए शिक्षण संस्थानों का निर्माण नहीं करती ।
ऐसा भी नहीं है कि देश में स्कूली शिक्षा के लिए कभी कुछ किया सोचा नहीं गया । शिक्षा वो भी नि:शुल्क शिक्षा को अधिकार के रूप में पाने के लिए बने कानूनों के अलावा नवोदय, सर्वोदय, केंद्रीय विद्यालय जैसी राष्ट्रीय योजनाओं पर भी काफ़ी काम किया गया । इसमें कोई संदेह नहीं कि शहरी आबादी के बाहर इन विद्यालयों की सफ़लता बेहद महत्वपूर्ण साबित हुईं । लेकिन इन सबके बावजूद ग्रामीण भारत में प्राथमिक व माध्यमिक शिक्षा ही बडे लक्ष्य बन कर रह गई है । उच्च शिक्षा की तो कल्पना ही बेमानी सी लगती है ।
इस तुलना में नगरीय क्षेत्र की गरीब व पिछडी आबादी के बच्चों की साक्षरता दर ज्यादा बेहतर है । हालांकि शायद ये तथ्य ही वास्तविकता को बताने के लिए पर्याप्त है कि राजधानी दिल्ली के सरकारी प्राथमैक -माध्यमिक विद्यालयों में से १८ प्रतिशत में पेयजल और शौच की तथा २७ प्रतिशत में बच्चों के लिए बैठने पढने की समुचित व्यवस्था नहीं है । इन सरकारी विद्यालयों की इस बदहाल स्थित के कारण ही आज इनमें सिर्फ़ अति निर्धन वर्ग के बच्चे पढने जाते हैं । इससे बडी विडंबना और क्या हो सकती है कि सरकारी विद्यालय होने के बावजूद सरकारी कर्मचारी तो दूर खुद इन विद्यालयों में पढाने वाले शिक्षक तक अपने बच्चों को इनमें नहीं पढाते हैं ।
राजधानी दिल्ली समेत अन्य स्थापित हो रहे महानगरों में आसपास के क्षेत्रों के लोगों के पलायन से शहरी आबादी का दबाव बढता ही गया । पिछले दो दशकों में शिक्षा क्षेत्र में निजि संस्थानों की भूमिका व विस्तार में गजब का विकास हुआ । वैश्विक जगत में हो रही शैक्षणिक क्रांतियों और ई युग के सूत्रपात ने भारतीय युवाओं को विश्व भर में खुद को स्थापित करने का मौका दिया । बच्चों ने वक्त के साथ अपने हाथ मिलाते हुए नए व्यावसायिक , गैर पारंपरिक और भविष्य की चुनौतियों से लडने वाले पाठ्यक्रमों को न सिर्फ़ अपनाया बल्कि बहुत जल्दी ही इसमें अपनी काबलियत भी साबित कर दी । किंतु ये भी तय है कि आज शहरों में शिक्षा की शैली , और उसका घओर व्यावसायिक रूख बच्चों को पढा बढा तो रहा है किंतु शिक्षित कर पा रहा है , इसके लिए सोचना होगा ।
राजधानी दिल्ली में फ़ैले और अब भी स्थापित हो रहे स्कूलों में नर्सरी दाखिले की प्रकिया शुरू हो चुकी है । रोज़ इस तरह की खबरें सामने आ रही हैं कि शिक्षा विभाग और अदालती निर्देशों व सख्त हिदायतों के बावजूद सभी विद्यालय , नई नई तरकीबों से न सिर्फ़ अभिभावकों को परेशान कर रहे हैं। ऐसा हर बार सिर्फ़ इसलिए किया जाता है ताकि अभिभावकों से एक मोटी धनराशि वसूली जा सके । स्कूल अपने यहां वातानुकूलित और गैरवातानुकूलित सुविधा का ढिंढोरा जिस तरह से पीटते हैं वही उनकी मंशा को स्पष्ट करने के लिए काफ़ी है । हालात सिर्फ़ इतने ही तक खराब नहीं हैं, रियायती दरों पर आवंटित ज़मीनों पर खुलने वाले स्कूलों में अनिवार्य रूप से बीस प्रतिशत गरीब बच्चों के दाखिले की शर्त को शायद ही कोई विद्यालय पूरा करता हो । दिल्ली में पैकेजनुमा होता , स्कूली दाखिला आने वाले समय में शहर की गरीब आबादी के लिए एक दु:स्वप्न बन कर रहे जाए तो कोई आश्वर्य नहीं ।
कारण कई हैं, शिक्षा का व्यवसायीकरण इनमे प्रमुख है, शिक्षा के मानक बदल गए हैं, सरकारी स्कूलों की शिक्षा में जिस तरह गिरावट आ रही है, उसको देखते हुए हम इस विस्फोटक स्थिति तक पहुंचे हैं !!!!
जवाब देंहटाएंआपसे सहमत हैं देवांशु भाई
हटाएंशिक्षा बाजारू जब बन जाए तो नीलामी उसका हश्र है !
जवाब देंहटाएंसच कहा मा स्साब
हटाएं