रविवार, 25 दिसंबर 2011

सज़ा ए मौत : न सज़ा , न मौत




अभी हाल ही में आए कुछ अहम फ़ैसलों में अपराधियों को मौत की सज़ा सुनाई गई । इससे पहले  भी मौत की सज़ा मिले आरोपियों , जिनमें अजमल और अफ़ज़ल जैसे आतंकवादी भी हैं को फ़ांसी दिए जाने में हो रही देर ने फ़ांसी की सज़ा अर पुन: बहस छेड दी । इस बीच सर्वोच्च न्यायालय के एक न्यायमूर्ति का विचार इस सज़ा को मानवीयता के विरूद्ध मानने जैसा आया जिसने इस बहस को एक न्यायमूर्ति का विचार इस सज़ा को मानवीयता के विरूद्ध मानने जैसा आया जिसने इस बहस को एक नई दिशा दे दी ।

ऐसा नहीं है कि फ़ांसी की सज़ा पर पहले बहस-विमर्श नहीं हुआ है । अभी कुछ वर्षों पहले जब धनंज़य चटर्ज़ी नामक एक अपराधी , जिसने एक नाबालिग बच्ची का बलात्कार करने के बाद उसकी हत्या कर दी थी की सज़ा पर बोलते हुए तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ ए पी जे अब्दुल कलाम ने अपना विचार देते हुए कहा था कि फ़ांसी की सज़ा सिर्फ़ गरीबों को ही न मिले क्योंकि बडे और रसूखदार अपराधी कानून के शिकंज़े से बच निकलते हैं । उनके इस वक्त्यव्य के बाद एक्नई बहस की शुरूआत हो गई थी कि क्य अगरीब और अमीर के लिए कानून की परिभाषा अलग अलग है ।

इससे अलग अभी हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय के एक न्यायमूर्ति महोदय ने कैपिटल पनिश्मेंट यानि मौत की सज़ा अक पहुंचने से पहले के विधिक मानक यानि " रेयरेस्ट ऑफ़ द रेयर की परिभाषा को सर्वथा अस्पष्ट करार देते हुए इसे दुरूस्त करने की वकालत की । उन्होनें एक विधि विशेषज्ञ के रूप में  अपनी बात रखते हुए कहा किमौजूदा कानून में दुर्लभतम में से दुर्लभ " अपराध मानए व समझने के लिए कोई स्पष्ट दिशा निर्देश नहीं है इसलिए ये पूर्णतया उस न्यायाधीश के विवेक पर निरभर करता है । यही वजह है किकभी कभी निचली अदालतों द्वारा दी गई अधिकतम सज़ा को ऊपरी अदालतों ने बिल्कुल उलट दिया है ।

विश्व के अन्य प्रमुख देशों में भी मौत की सज़ा को लेकर सवर्था भिन्न भिन्न मत हैं । मानवाधिकारों कीवकालत और मानव जीवन की संरक्षा करने वाले देशों ने मौत की सज़ा को न सिर्फ़ अमानवीय करार दिया हुआ है बल्कि इसे पूरे अंतरराष्ट्रीय कानूनों से हटाने केल इए भी बाकायदा मुहिम छेड रखी है । यदि इतिहास को खंगाला जाए तो अब से लगभग ढाई हज़ार वर्ष पहले फ़ांसी की सज़ा को ईरान में अपनाए जाने के साक्ष्य मिलते हैं वो भी पुरूष अपराधियों के लिए । उन्नीसवीं शताब्दी के अंत तक जब तक कि मौत की सज़ा के लिए ज़हर का इंजेक्शन या ऐसी ही किसी अन्य वैकल्पिक प्रणाली प्रचलन में  नहीं आई थी , फ़ांसी की सज़ा ही मुख्य तरीके के रूप में अपनाई जाती रही । आज भी मिस्र , भारत ,पाकिस्तान , मलेशिया , सिंगापुर तथा अमरीका के कुछ राज्यों में यह प्रचलित है ।

संसद पर हमले की दसवीं बरसी पर अफ़ज़ल गुरू की फ़ांसी की सज़ा के क्रियान्वयन में हो रही देरी ने पुन: इस्मुद्दे की ओर ध्यान खींचा है कि किसी अपराधी को मौइत की सज़ा सुनाए जाने और उसे इस सज़ा को दिए जाने के लिए क्या कोई समय सीमा तय होनी चाहिए । धनंजय चटर्ज़ी को सज़ा सुनाए जाने के लगभग डेढ दशक बाद उसे फ़ांसी पर लटकाए जाने के समय भी यही बात प्रमुखता से उछली थी । भारत की बहुस्तरीय न्यायिक व्यवस्था में अंतिम फ़ैसला आने में पहले ही बहुत अधिक विलंब होता है जबकि मौत की सज़ा पाए अपराधियों की अपील का निपटारा वरीयता के आधार पर पहले किया जाता है । अंतिम अदालती फ़ैसले केपश्चात भी मुजरिम के पास राष्ट्रपति के समक्ष दया याचिका दाखिल करने का अधिकार होता है और यहीं से विधिक प्रक्रिया सियासी दांव पेंच में उलझ कर रह जाती है । न तो इन दया याचिकाओं के निपटारे की कोई समय सीमा निर्धारित होती है और न ही इन्हें लेकर कोई मापदंड या दिशानिर्देश तय है ।

इसका परिणाम ये होता है कि जेलों में उच्च सुविधा पाए ये अपराधी गुनाहगार होते हुए भी राजकीय मेहमानों सी सुख सुविधा का लाभ उठाते रहते हैं । सालों साल लटकता इनके सज़ा का क्रियान्वयन जहां एक तरफ़ सरकार व शासन पर भारी आर्थिक बोझ डालता है वहीं दूसरी तरफ़ सेनाव अन्य सुरक्षा बलों के मनोबल को भी बुरी तरह गिरा देता है । अफ़ज़ल गुरू व अज़मल कसाब जैसे दुर्दांत आतंकियों के मामलों में तो ये संभावना भी काफ़ी प्रवल रहती है कि इन्हें जेलों से छुडाने के लिए या बदलालेने के लिए इनके साथी इससे ज्यादा बडी आतंकी घटनाओं को अंज़ाम दें ।


वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सरकार व प्रशासन को इस मुद्दे पर दो बातों के लिए अपना रूख बिल्कुल स्पष्ट कर देना चाहिए । पहली बात ये किक्या मौजूदा कानूनी व्यवस्था में मौत की सज़ा देने न देने पर किसी तरह की बहस विमर्श की गुंजाईश है । यदि नहीं तो किस कारण से राज्य की विधानसभाएं अदालतों द्वारा दोषी करार दिए जाने और फ़ांसी की सज़ा सुनाए जाने के बाद उन अपराधियों को माफ़ किए जाने की मांग उठाती हैं । यदि उन मुज़रिमों कोमाफ़ी दिए जाने या न दिए जाने का अधिकार किसी को है तो वो हैं पीडित और उनका परिवार ।

दूसर अहम मुदा है फ़ांसी की सज़ा सुनाने से लेकर फ़ांसी की सज़ा दिए जाने के बीच के समय कोतय किया जाना । आज लगभग सौ अपराधी देश की भिन्न भिन्न अदालतों में मौत की सज़ा सुनाए जाने के बाद मौत की सज़ा कोपाने की प्रतीक्षा में हैं । सरकार प्रशासन व नीति निउअम तय करने वाली संस्थाओं को अविलंब ही इस दिशा में ठोस निर्णय लेना होगा अन्यथा पहले ही सज़ा का खौफ़ खत्म हो चुके अपराधियों के लिए ये बडी सहज़ सी स्थिति होगी और कानून ,न्यायपालिका ,सेना , पुलिस व सुरक्षा बलों के लिए विकट । फ़िलहाल तो पूरा देश अफ़ज़ल व अज़मल कोदेश के प्रति किए गए आपराधिक दु: साहस का दंड दिए जाने के लिए सरकार की ओर देख रहा है ।

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मुद्दों पर मैंने अपनी सोच तो सामने रख दी आपने पढ भी ली ....मगर आप जब तक बतायेंगे नहीं ..मैं जानूंगा कैसे कि ...आप क्या सोचते हैं उस बारे में..

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