सोमवार, 13 अगस्त 2012

बलात्कार .......








अभी हाल ही में दिल्ली की राज्य सरकार ने घोषणा की है कि राजधानी की सभी जिला अदालतों में बलात्कार के लिए मुकदमों की सुनवाई के लिए विशेष त्वरित अदालतों (फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट्स ) का गठन किया जाएगा । नि: संदेह सरकार की ये पहल बहुत आवश्यक और स्वागतयोग्य है , किंतु वहीं ये पहल यह भी ईशारा कर रही है कि समाज में विशेषकर महानगरों और शहरों में बलात्कार यौन हिंसा जैसे अपराध किस खतरनाक स्तर की तीव्रता से बढ रहे हैं ।

पिछले कुछ समय में ये देखा पाया गया है कि समाज में बढते अपराधों में "बलात्कार" सबसे ज्यादा किए जा रहे अपराधों में से एक है । शहरों , कस्बों से लगभग रोज़ ही न सिर्फ़ छेडछाड , यौन हिंसा , बलात्कार और सामूहिक बलात्कार तक की खबरें देखने सुनने व पढने को मिल रही हैं । और चिंताजनक बात ये है कि ये हालात तब हैं जबकि अब भी बहुत सारे मामले दर्ज़ नहीं हो पाते हैं ।


समाज में बढते बलात्कार के मामलों पर बेशक समाजविज्ञानी, अपराधशास्त्री , विधिवेत्ताओं और प्रशासन के अपने तर्क , कारण और राय है । समाजशास्त्री सीधे सीधे पश्चिमी देशों से आयातित हो रही यौन उनमुक्तता की बढती प्रवृत्ति को इन सबके लिए विशेषकर शहरी समाज में , एक बडा कारण मानते हैं । अपराध और उसकी प्रवृत्ति पर अध्ययन करने वाले कहते हैं कि समाज में बढती हिंसा व नशे का चलन इस अपराध में इज़ाफ़े का एक बडा कारण है ।


बढते हुए बलात्कार की घटनाओं के मद्देनज़र ही कभी घृणित अपराध के लिए अधिकतम यानि, मौत की सज़ा की मांग उठ रही थीं तो कभी " बलात्कार" को नए और वृहत संदर्भों में देखने की । इस बीच घटी कुछ अपराध घटनाओं ने न सिर्फ़ पूरे देश को झकझोर दिया बल्कि इस बहस को और हवा दे दी ।


.इन्हीं सब परिस्थितियों में पिछले दिनों विधायिका , कार्यपालिका और न्यायपालिका तक के क्षेत्र में बहुत सारे नए नियमों , कानूनों व प्रावधानों के बनने बनाने का प्रयास चलता रहा । इनमें सबसे पहला व उल्लेखनीय है "बलात्कार" की परिभाषा को नए सिरे से विस्तारित व व्याख्यायित करने की कवायद । हालांकि सिर्फ़ बलात्कार ही नहीं , बल्कि महिलाओं के प्रति हिंसा , कार्यस्थलों पर मानसिक , शारीरिक प्रताडना , एवं चेहरे पर तेज़ाब फ़ेंकने जैसे सभी अपराधों के लिए निर्धारित दंडों को और कठोर किया गया है ।


इतना ही नहीं कार्यस्थलों पर महिलाओं के साथ लैंगिक भेदभाव , शारीरिक मानसिक शोषण व प्रताडना को रोकने के लिए विशेष समितियों को बनाने का निर्देश दिया गया । जब पुलिस ने देखा और पाया कि शहरों में देर रात कार्यस्थलों से वापस लौटने वाली युवतियों/महिलाओं को हिंसा व यौन शोषण का शिकार बनाया जा रहा है तो अदालत ने अपने आदेशों द्वारा इनके लिए सरकार व प्रशासन को नए सुरक्षा उपायों/मानकों को बनाए अपनाए जाने का निर्देश दिया । काले शीशे चढे वाहनों में आपराधिक वारदातों विशेषकर बलात्कार की घटनाओं पर सख्त रूख अपनाते हुए पूरे देश भर की पुलिस को निर्देश दिया गया कि सभी वाहनों से काले शीशों को फ़ौरन हटा दिया जाए ।


यूं तो न्यायपालिका मुकदमे दर मुकदमे अपने फ़ैसलों से प्रशासन व विधायिका तक को परोक्ष -प्रत्यक्ष निर्देश देती रहती है , किंतु पिछले दिनों राजधानी की जिला अदालतों ने अपने कुछ फ़ैसलों से एक नई बहस को जन्म दे दिया । पहला उल्लेखनीय फ़ैसला वो रहा जिसमें अदालत ने बलात्कार के मुजरिम को कठोर कारावास की सज़ा सुनाने के साथ ही  ये कहा कि भारतीय दंड विधान के निर्धारित सज़ाओं के बावजूद और न ही अपराधियों में अब इस सज़ा का कोई भय रहा है । इसलिए अब समय आया गया है कि पारंपरिक सज़ाओं के अलावा वैकल्पिक सज़ाओं , मसलन रासायनिक व चिकित्सकीय पद्धति से मुजरिमों को नपुंसक बना देना , जैसी सज़ाओं पर भी विचार किया जाना चाहिए ।


ऐसे ही एक मुकदमें मुजरिम की अपील पर सुनवाई करते हुए दिल्ली उच्च न्यायालय ने मुलजिम को इस शर्त पर जमानत देने की बात कही कि वो पहले पीडिता को आर्थिक मुआवजा दे । इस नई पहल से उठी बहस के बाद अदालती निर्देशों के अनुरूप दिल्ली सरकार ने बलात्कार पीडिताओं को मुआवजा दिलाने के लिए एक विस्तृत योजना की शुरूआत की । इसमें पीडिताओं के लिए कई तरह की विधिक सहायताओं के अलावा उन्हें अंतरिम राहत राशि और मुआवजे की व्यवस्था का प्रावधान भी किया गया ।


बलात्कार को रोकने व नियंत्रित करने के लिए सामाजिक प्रशासन से जुडे सभी अंगों , विधायिका , न्यायपालिका और अन्य सब अपने अपने स्तर पर अनेक प्रयास कर रहे हैं , किंतु अफ़सोसजन और चिंताजनक बात ये है कि इन सबके बावजूद बलात्कार जैसा घृणित अपराध समाज में बढता ही जा रहा है । अपराध मनोविज्ञान का अध्ययन करने वाले विशेषज्ञ इसकी बढती दर के लिए सीधे सीधे समाज में बढती नशाखोरी की प्रवृत्ति , पाश्चात्य सभ्यता का अंधानुकरण व यौन स्वच्छंदता का बढता चलन व युवतियों \महिलाओं में आत्मरक्षा प्रशिक्षण का भाव , जटैल कानूनी प्रक्रियाएं एवं अधिकांश अपराधियों का सज़ा से बच निकलने के अलावा सबसे अहम है बलात्कार पीडिताओं के साथ समाज द्वारा अपराधियों सरीखा व्यवहार । इन तमाम चल रहे प्रयासों से यदि बलात्कार की बढती घटनाओं पर जरा सा भी फ़र्क पडता है तो ये नि:संदेह एक अच्छी शुरूआत होगी ।

गुरुवार, 2 अगस्त 2012

त्यौहार पर हावी हुआ बाज़ार






भारत में जब से उदारीकरण और बाज़ारवाद ने देश की आम जनता को उपभोक्तावाद और दिखावटी जीवन की ओर धकेला तभी से भारतीय समाज के तौर तरीके , परंपराएं , खान-पान , ज्ञान मनोरंजन और पर्व त्यौहारों तक को बाज़ारों और उत्पादों के अनुकूल परिवर्तित करने की एक योजनाबद्ध प्रक्रिया शुरू हुई । अब इस सारी कवायद का परिणाम दिखने लगा है । आज किसी भी पर्व त्यौहार से पहले ही नियोजित तरीके से बाज़ार को सज़ाया और बनाया जाने लगा है । सबसे पहले तो गौर करने वाली बात ये है कि पिछले एक दशक में देश में जिस तरह से मदर्स डे , फ़ादर्स डे , फ़्रेंडशिप डे , वेलैंटाइन डे , रोज़ डे , थैंक्स गिविंग डे और जाने कौन कौन से डे और नाइट को जबरन ही पहले शहरी समाज और फ़िर पूरे देश भर में ठूंसा गया । इस बहाने से संदेश , बधाई पत्रों , उपहारों और जाने किन किन उत्पादों के बाज़ार को खडा किया गया ।
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अभी हाल ही में खबर आई कि पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के कुछ क्षेत्रों के बाज़ारों में पडोसी चीन से थोक के भाव रखियों की आई खपत ने पूरे बाज़ार पर कब्जा जमा लिया है ।इसका खामियाज़ा क्षेत्र के छोटे दुकानदारों के साथ ही उन हजारों शिल्पकारों , दस्तकारों और मज़दूरों के काम और कमाई पर पडा है जो राखी , जन्माष्टमी पर और अन्य त्यौहारों पर देवी देवाताओं की पोशाकें बनाने का , दस्तकारी , चिप्पीकारी आदि का काम करके अपना पेट पाल रहे हैं । सरकार और प्रशासन तो पहले ही इन लघु उद्योगों के प्रति बेहद उदासीन और उपेक्षित रहे हैं किंतु अब बाज़ारों में विदेशों से आयातित उत्पादों ने तो जैसे इनकी कमर ही तोड कर रख दी है । मशीनों से निर्मित और आजकल के बच्चों की रुचियों के अनुरूप उन्हें आकर्षित करती हुई उनके कार्टून कैरेक्टरों एवं खिलौनेनुमा आदि जैसी राखियों के बाज़ार ने देशी उत्पादों को बुरी तरह प्रभावित किया है ।

ये स्थिति सिर्फ़ यहीं तक सीमित नहीं है । पश्चिमी देशों और समाज की तर्ज़ पर अब यहां भी , कम से कम शहरों में तो जरूर ही , घर के बने पकवान और मिठाइयों से ज्यादा उपहारों , शीतल पेयों , चॉकलेटों और अन्य खाद्य वस्तुओं के आदान प्रदान का चलन बढ गया है । हालांकि मिठाइयों के प्रति लोगों के रुझान कम होने का एक बडा कारण पिछले वर्षों में मिठाइयों में नकली एवं जहरीले घटिया पदार्थों की मिलावट की बढती प्रवृत्ति । प्रति वर्ष , बल्कि हर त्यौहार के आगे पीछे इस तरह की खबरें समाचारों में पढने देखने व सुनने को मिल जाती हैं कि अमुक स्थान पर इतना नकली खोया , मावा ,और मिलावटी मिठाई आदि पकडी गई किंतु प्रशासन की लचरता और इन मिलावटखोरों का सज़ा से बच निकलना इस प्रवृत्ति पर रोक नहीं लगा पा रहा है ।

यदि बरसों से चली आ रही परंपराओं , उत्सवों और त्यौहारों पर इस तरह से ही बाज़ारीकरण हावी होता रहेगा तो वह दिन दूर नहीं जब एक दिन ये सभी या तो अपनी प्रासंगिकता खो देंगे या शायद अपने मूल वास्तविक चरित्र से सर्वथा अलग हो जाएं ।
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