मंगलवार, 23 फ़रवरी 2010

बेहद घटिया है भारत का आपदा प्रबंधन




आज बंगलौर की एक बहुमंजिला इमारत में शार्टसर्किट से आग लगने के बाद जान बचाने के लिए मची अफ़रातफ़री में अब तक की जानकारी के अनुसार लगभग नौ लोगों की मृत्यु हो गई । इस घटना ने कुछ सालों पहले दिल्ली के उपहार सिनेमा अग्निकांड की याद दिला दी । हालांकि इश्वर का शुक्र है कि ये आग उतनी तो भयंकर तो नहीं थी मगर फ़िर भी मासूमों की जान तो लील ही गई । सबसे दुखद बात तो ये है कि अब मरने वाले लोगों में से तीन तो आग से बचने के लिए उस इमारत से कूद कर अपनी जान गंवा बैठे हैं । अब इससे ज्यादा घटिया बात और क्या हो सकती है कि जो देश एक तरफ़ तो भविष्य की महाशक्ति बनने का दावा कर रहा है , चांद पर अपने बूते अपना यान भेजने का दंभ भर रहा है ,और जाने इस तरह के कितने बडे बडे काम अपने नाम कर रहा है । उस देश में आपदा प्रबंधन के नाम पर कुछ भी नहीं है । चाहे वो कुंभ जैसे महाआयोजनों में जुटी भगदड मचने को रोकने और संभालने की बात हो , हर साल बिहार ,बंगाल, उत्तर प्रदेश आने वाली बाढ की विभीषका से निपटने की बात हो , आए दिनों होने वाली सडक दुर्घटनाओं और रेल दुर्घटनाओं के बाद मचने वाली अफ़रातफ़री का नज़ारा हो या फ़िर अब देश की एक नियमित नियति बन चुकी आतंकी घटनाओं के बाद हाथ खडे करने वाली स्वास्थ्य सेवाएं हों , किस किस हादसे ,घटना , दुर्घटना की गिनती करें । एक भी ऐसा हादसा और दुर्घटना नहीं होती जिसमें लगता कि स्थानीय , राजकीय या राष्ट्रीय स्तर पर आपदा प्रबंधन की स्थिति अच्छी है ।


महानगरों में जिस तरह से बहुमंजिला इमारतों के निर्माण में तेज़ी आई है आश्चर्यजनक रूप से इन बहुंजिला आवासीय और व्यावसायिक इमारतों में सभी सुरक्षा नियमों की जबरदस्त अनदेखी की जाती है । इतना ही नहीं हद तो ये है कि न सिर्फ़ इन इमारतों में बल्कि स्कूलों , अस्पतालों , सिनेमा हालों , मल्टीप्लेकसों और बडे बडे शौपिंग मौलों में भी बचाव के रास्ते, आगजनी से बचने के उपाय , दुर्घटना के समय पडने वाले साधनों और उपायों की उपस्थिति जैसे कारकों पर तो कभी कुछ करना तो दूर की बात है मगर शायद ही इन पर कभी कुछ सोचा गया हो । हालांकि ऐसी किसी घटना दुर्घटना के बाद हमेशा ही सरकार हर बार नए सिरे से जाने कैसी कैसी घोषणाएं कर डालती है और उन पर कुछ दिनों तक पैसा और श्रम लगाया भी जाता है । मगर समय के बीतते जाने के साथ ही सब कुछ फ़ाईलों और उस योजना की रूपरेखा बनते बनते ही खत्म हो जाती हैं । और फ़िर किसी नई घटना/दुर्घटना होने तक बस सब यूं ही खामोश रहता है ।

ये बडे ही हैरत की बात है कि बात बेबात सरकार और हमारा प्रशासन , पश्चिमी देशों की नकल करता है , जाने कैसी कैसी अजीबोगरीब और कभी कभी तो बिल्कुल ही अप्रायोगिक योजनाएं और विचार अपनाने को उद्धत रहता है । वो इन सुरक्षा उपायों , आपदा प्रबंधन के गुर , और इस दिशा में वहां किए गए कमाल के कार्यों , तकनीकों और साधनों के उपयोग को क्यों नहीं अपना पाता है । ऐसा नहीं है कि भारत में वो क्षमता नहीं है कि आपदा प्रबंधन की दिशा में वो सफ़लता नहीं हासिल कर सकता बल्कि , गहरे नलकूपों में गिरे बच्चों को निकालने में सेना , प्रशासन आदि ने जिस अद्भुत इच्छा शक्ति का प्रदर्शन किया था वो काबिलेतारीफ़ था । मगर देश की अरब जैसी संख्या के लिहाज़ से तो ऐसे प्रयास ऊंट के मुंह में जीरे जैसा भी नहीं है । अब समय आ गया है कि सरकार और प्रशासन आपदा प्रबंधन जैसे मुद्दों को अपनी पहली वरीयता में रखे और उन पर गंभीरतापूर्वक काम करे । आम जनता, और मीडिया को भी चाहिए कि वो सरकार पर इसके लिए दबाव बनाए ।वर्ना तो जनता मरती रहेगी और मीडिया उन्हें कवर करती रहेगी ।



सोमवार, 22 फ़रवरी 2010

क्या नकारात्मकता ज्यादा आकर्षित करती है ?

क्या आपको बहुत पहले दिखाया जाने वाला एक विज्ञापन याद है। उस विज्ञापन में एक नन्ही से बच्ची , स्कूल की पास से आने जाने वालों को एक पैम्फ़लेट पकडाती है, जैसे कि अक्सर ही लाल बत्ती पर आपको हमें भी कोई न कोई पम्फ्लेट पकडा देता है, और जैसा कि अक्सर ही होता है कि हम सभी उस पर एक उड़ती हुई निगाह डालते हैं और फेंक देते हैं, ठीक उसी तरह उस बच्ची द्वारा दिए गए कागज़ के टुकड़े को सभी आने जाने वाले हाथ में लेकर थोडा आगे जाने पर फेंक देते हैं। एक स्कूटर चालक जो ये सब देख रहा होता है , वो बच्ची के पास आता है और उसे बताता है कि अब उसे ये पम्फ्लेट किसी के भी हाथ में देने से पहले उसे अच्छे तरह मरोड़ कर देना है। वो नन्ही बच्ची ऐसा ही करती है, फ़िर जिस पहले आदमी को वो ये कागज़ तोड़ मडोदकर देती है , वो पहले उस बच्ची को गौर से देखता है फ़िर उसे कगाज़ के टुकड़े को खोल कर पढने लगता है।

मुझे लगता है कि इंसान का मनोविज्ञान , चाहे उत्सुकता के कारण या फ़िर कि खुराफाती कारणों से अक्सर या ज्यादातर नकारात्मक चीजों की तरफ़ आसानी से आकर्षित होता है। बल्कि ये कहूं कि कि सकारात्मक बातों , चीजों की तरफ़ चाहे एक बार को उसकी नज़र ना जाए या जाए भी तो वो उसे नज़र अंदाज़ कर दे मगर उल्टी भाषा , उल्टी बातों और उल्टी चीजों की तरफ़ उतनी ही जल्दी आकर्षित हो जाता है। किसी बच्चे को आप किसी बात के लिए मना कीजीए तो मैं ये तो नहीं कहता कि शत प्रतिशत , मगर आम तौर पर ज्यादा बच्चे वही काम करने में दिलचस्पी दिखाएँगे। एक और उदाहरण देता हूँ, किसी ने अपने चिट्ठे पर अपने पोस्ट का शीर्षक दिया, इसे बिल्कुल मत पढ़ना, आपन माने या ना मने , मगर उस दिन जितने लोगों ने उसे पढा था उससे पहले उसके पोस्ट को कभी भी इतने लोगों ने नहीं पढा था।


"ऐसा नहीं है कि सिर्फ़ नकारात्मक बातें ही मन को और मस्तिष्क को आकर्षित करती हैं मगर कुछ तो कनेक्शन जरूर है इन बातों में, या पता नहीं कि ऐसा सिर्फ़ मेरे साथ होता है.................."




शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2010

तो आ ही गया परीक्षाओं ....अरे नहीं आत्महत्याओं का दौर ....




अब तो नए साल की शुरूआत से ही समय जिनके लिए कर्फ़्यूनुमा हो जाता है , जिनके आने जाने घूमने फ़िरने, खेलने कूदने तक पर मनाही हो जाती है .....वे होते हैं दसवीं और बारहवीं की बोर्ड परीक्षा में शामिल होने वाले विद्यार्थी । और फ़िर परीक्षाओं का समय जैसे जैसे नजदीक आता जाता है तो ये स्थिति और भी दुरूह हो जाती है या कहा जाए कि बनाई जाती है । फ़िल्में रिलीज़ होना टल जाती हैं , शादियों , पार्टियों को यथासंभव टाला जाता है । कहीं मेहमान बन कर और मेज़बान बन कर भी रहना /जाना गंवारा नहीं किया जाता ....भई ! आखिर बच्चों की परीक्षा का समय है ...तो दुनिया थम जानी चाहिए न । लगना चाहिए कि सभी मिल कर (सभी मतलब , माता-पिता, पूरा परिवार , रिश्तेदार , पूरा समाज ) उन विद्यार्थियों के लिए ही चिंतित हैं । इस बात को इतना ज्यादा महत्व दिया जाने लगता है कि एक तनाव सा माहौल में व्याप्त हो जाता है । और इसका परिणाम होता है कि उन बच्चों पर इतना ज्यादा मानसिक और शारीरिक दबाव पड जाता है कि कि उनके लिए ये परीक्षाओं का दौर कम आत्मह्त्याओं का दौर बन जाता है ।

पिछले सिर्फ़ पांच सालों के आंकडों पर नज़र डालें तो शायद ये जानकर सबको दुख और हैरानी हो कि सिर्फ़ पिछले पांच सालों में ही इन परीक्षा के तनाव , परीक्षा परिणामों के अपेक्षित अनापेक्षित अंदेशे मात्र ने और परीक्षा में मिली असफ़लता ने कुल 669 विद्यार्थियों को मौत के मुंह में पहुंचा दिया है । सरकार , मनोविज्ञानी, समाजशास्त्री , विद्यालय प्रशासन , अभिभावक सभी पिछले कुछ समय से शायद अब इस स्थिति को भलीभांति समझते हुए इन परीक्षाओं के मद्देनज़र विद्यार्थियों में उपज़े डर और तनाव को कम करने के भरसक प्रयत्न कर रहे हैं । बहुत सारी हेल्पलाईनों और काऊंसिलिंग संस्थानों द्वारा सबका मनोबल बढाने का काम किया जा रहा है । मगर अफ़सोस की बात ये है कि इन सबके बावजूद बच्चों में परीक्षा को लेकर बना हुआ दबाव और उसके बाद उससे उपजी हताशा से बढती आत्महत्या की प्रवृत्ति में इज़ाफ़ा ही हो रहा है । और स्थिति दिनोंदिन विस्फ़ोटक बनती जा रही है । इससे ज्यादा दुखद बात और क्या हो सकती है कि देश के नवनिर्माण और विकास में महत्वपूर्ण योगदान करने वाले युवा यूं कालकवलित हो रहे हैं ।

अब भी यदि ये सबने मिलकर भी इस दिन पर दिन बिगडती स्थिति पर गंभीरतापूर्वक नहीं सोचा किया तो फ़िर बहुत जल्द ही हालात विस्फ़ोटक होने वाले हैं । सबस अहम बात तो ये है कि बच्चों पर से ये दबाव किस तरह से कम किया जाए कि उन्हें ये न लगे कि ये परीक्षा और इसका परिणाम ही जिंदगी की शुरूआत है और शायद अंत भी । इसका कोई दूसरा विकल्प नहीं है । ये बिल्कुल सही बात है कि आज के तीव्र प्रतिस्पर्धी युग में जीवन के इस रेस में बने रहने के लिए इसके साथ कदम ताल करना जरूरी हो जाता है मगर जीवन लेने देने की कीमत पर तो कतई नहीं । खासकर उनके लिए जो जाने किस दबाव में सबसे अधिक नंबर या प्रतिशत या उससे थोडा सा कम आने के बाद भी जान देने पर उतारू हो जाते हैं । इसके लिए न सिर्फ़ बच्चों की मानसिकता , उनका अतिमहात्वाकांक्षी होना आदि में बदलाव लाने के साथ शिक्षा पद्धति में भी व्यापक बदलाव लाना होगा । देखना है कि इस दिशा में कितना काम हो पाता है .....और वो भी कब ??????????


बुधवार, 17 फ़रवरी 2010

आखिर हमेशा विवाद को ही सम्मान क्यों ?(दौपदी .....विवाद के बहाने एक चर्चा )




हाल में साहित्य कला अकादमी द्वारा ,श्री वाई लक्ष्मीप्रसाद की पुस्तक द्रौपदी को पुरस्कृत किया गया । जब इस पुस्तक के विरोध किए जाने की खबरें समाचारों में सुनी तो उत्सुकता बढ गई कि आखिर ऐसा क्या लिखा गया है इस पुस्तक में ,। जानने पर पता चला कि इस पुस्तक में द्रौपदी के चरित्र पर खूब सारा लिखा गया है यहां तक कि द्रौपदी को कृष्ण की एक प्रेमिका के रूप में भी दर्शाया गया है । जबकि हम बचपन से ही पढते सुनते आ रहे थे कि द्रौपदी के चीरहरण के समय जब वो हर तरफ़ से हार गई और पूरी तरह बेबस होने के बाद अपने भ्रात समान कृष्ण को पुकारा जिन्होंने उसकी मदद की । इस बात से जुडी कुछ बातें मस्तिष्क को उद्वेलित कर रही हैं । सबसे पहली बात तो ये कि पिछले कुछ समय से एक परंपरा खूब प्रचलन में आ गई है । यदि कुछ बेचना हो तो उसे जबरन किसी भी कारण से विवादित कर दो । विवाद न सिर्फ़ उसका बाजार और बडा कर देगा बल्कि जिस तरह का प्रचलन इन दिनों बढता जा रहा है उसके अनुसार किसी न किसी पुरस्कार के लिए उसकी दावेदारी भी बढा देगा । और यही प्रचलन अब एक परंपरा बनती जा रही है । दुखद आश्चर्य तो ये है कि साहित्य कला अकादमी जैसी संस्थाओं को पूरे वर्ष की साहित्यिक कृतियों में से आखिर क्यों और कैसे कोई एक ऐसी पुस्तक/ग्रंथ/उपन्यास ऐसा नहीं मिल पाता जो निर्विवादित हो ।

अब इस पुस्तक से जुडे एक अन्य पहलू पर बात करते हैं । हिंदू धर्म के चमत्कारिक और पौराणिक चरित्र हमेशा से ही अन्वेषण और बहस का विषय रहे हैं । ऐतिहासिक साक्ष्यों के अभाव और धर्मग्रंथों मे अतिश्योक्ति की संभावना के कारण इसे विवादित बना कर परोसने वालों के लिए ये एक ऐसे मौके की तरह होता है जो इसका सदुपयोग/दुरूपयोग अपनी बंद पडी साहित्यिक दुकानों को चमकाने के लिए करना चाहते हैं। महज़ अंदाज़ों संभावनाओं के आधार पर न सिर्फ़ इन धर्मग्रंथों /धार्मिक नीतियों/ चरित्रों/मान्यताओं .....आदि सबको ही तोड मरोड कर किसी भी रूप में परोसने के लालच से खुद को नहीं रोक पाते । हालांकि सबसे बडी विडंबना ये है कि इन पुस्तकों के लेखक खुद कभी भी किसी तथ्य ( जो ये अपनी सोच और अंदाज़े पर पाठकों के सामने रखते हैं ) को पूरी तरह तो क्या आंशिक रूप से भी प्रमाणित करने का माद्दा नहीं रखते हैं । शायद उनकी ये कोशिश होती भी नहीं है और न ही मंशा होती है । और जो हित उद्देश्य होते हैं .....उसी का परिणाम होता है ऐसे विवादों की उत्पत्ति से उपजा मुनाफ़ा और ऐसे पुरस्कार भी ।

इससे अलग एक और बात जो इस मुद्दे से जुडी हुई है वो ये कि आखिर क्यों सभी को , चाहे वो मशहूर चित्रकर मकबूल फ़िदा हुसैन हों या कि विदेशी कंपंनियां , चाहे कोई फ़िल्मकार हो या फ़िर ऐसे ही साहित्यकार , आखिर इन सभी को हिंदू धर्म और उससे जुडे तथ्य ,उनके देवी देवता, उनके चरित्र ही क्यों अपने विषय के रूप में मिलते हैं । शायद इसका एक बडा कारण है हिंदू धर्म का सहिष्णु होना । भारत का वो तथाकथित धर्मनिरपेक्ष वाला चेहरा, वही सेक्यूलर छवि । इस तथाकथित धर्मनिरपेक्ष छवि के कारण ही कोई भी कभी भी हिंदू धर्म का और तो और भारत राष्ट्रीयता का भी अपमान करने में नहीं हिचकता । मगर फ़िलहाल तो देखना ये है कि कभी सीता , कभी द्रौपदी, और कभी शकुंतला को कटघरे में खडा करके अपनी दुकान सजाने चमकाने वालों को यूं ही कब तक सम्मानित किया जाता रहेगा ?????


मंगलवार, 16 फ़रवरी 2010

मीडिया के दो रूप और दो दिशाएं



आज जब एक मायने में मीडिया युग ही आ गया है , समाज का कोई क्षेत्र शायद अब ऐसा नहीं बचा है जहां पर मीडिया का दखल न हो । और किसी भी समाज के लिए ये जरूरी और अच्छी बात है कि सूचना संसार के माध्यम से वे कम से कम एक दूसरे से जुडे रहें । मगर यहां ये बताना और समझना अच्छा होगा शायद कि जैसे आज भी हमारा समाज कई मायनों में बहुत से अलग अलग स्तरों में बंटा हुआ है और उसी अनुरूप दोनों ही समाजों का मीडिया भी बहुत अलग है । जी हां बिल्कुल सच बात है ये , इसे यदि ऐसे समझा जाए तो बेहतर होगा । आज का शहरी समान जहां आई पौड, नेट , लैपटौप से लैस , फ़ैशन की हर सुख सुविधा से लबरेज़ बेफ़िक्री से एक भागमभाग की जिंदगी जीने में लगा है जहां उसे सिर्फ़ किसी तरह से आगे बढते जाना है , सारे सपने पूरे कर लेने हैं जितनी जल्दी हो सके उतनी जल्दी ही । वहीं दूसरा समाज जो इन महानगरीय हदों से थोडा बाहर निकलते ही दिखने लगता है और सुदूर ग्रामीण देहात में तो इसका कुरूप चेहरा वीभत्सता की हद तक पहुंच जाता है , वहां पर गरीब,भूखे, नंगे, कृशकाय पशुवत जीते इंसान के रूप में अभी भी बहुतायत मिल जाते हैं ।

इन दो समाजों का मीडिया भी बिल्कुल अलग अलग है । या यूं कहें न कि प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रानिक मीडिया के रूप में समांतर चल रहा मीडिया रेल की पटरियों की तरह साथ साथ चल तो रहा है मगर किसी भी स्थान, बिंदु पर एक दूसरे को काटता नहीं है और न ही मिलने की कोशिश करता है । मिल सकता भी नहीं है क्योंकि फ़िर दुर्घटना अवश्यंभावी हो जाएगा शायद । एक मीडिया जो दावा करता है कि उसकी खबर पाने और लाने की हद तेज से भी ज्यादा तेज है । कई बार तो इतनी तेज़ की घटना होने की अफ़वाह और अंदाज़े भी एक्सक्लुसिव खबर बनके सामने आ जाती हैं । स्टिंग /एक्सक्लुसिव आदि के नाम पर तो ये मीडिया कैमरे के दूसरी तरफ़ से जब जिस बात को चाहे जिस दिशा में मोड सकता है । इस मीडिया को नया सोचने करने की कोई जरूरत महसूस ही नहीं होती, हो भी कैसे इसे बस एक दूसरे की नकल करके बाजार में बिक जाने वाला सबसे चटखारेदार मसाला तैयार करन होता है । फ़िर चाहे वो दर्द बेच के हो या नंगापन , चाहे विस्फ़ोट बेचना हो या जलसा । इस मीडिया के लिए थिंक टैंक की कोई अहमियत नहीं है ,क्योंकि इसे सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में रहने मरने वाले गरीब कृषकों/मजदूरों के जीवन से कोई सरोकार नहीं है , वो कौन से इस मीडिया के ग्राहक हैं । इस मीडिया का एक विरोधाभासी और दिलचस्प चरित्र ये भी है कि अपना बाजार बनाने और बचाने के लिए ये आतंकी हमलों के वक्त क्या दिखाया या छुपाया जाना चाहिए , उसमें फ़र्क नहीं कर पाता है ,मगर प्रियदर्शनी मट्टू, आरुषि , और रुचिका को न्याय दिलवाने के लिए बेहिचक और बेझिझक न्यायिक परिक्षेत्र में भी घुस कर मीडिया ट्रायल शुरू कर देता है ।

अब बात दूसरे मीडिया की , प्रिंट मीडिया । आज विस्तार ,तकनीक, पाठक, और पत्रकारिता के हर मापदंड और को साथ लेकर चलते हुए इस मीडिया ने जहां अपने खादी की झोलाछाप और चप्पल चटकाती हुई छवि को तोड दिया है वहीं दूसरी तरफ़ साहित्य, हिंदी भाषा, आम जनजीवन से जुडाव , और भारतीय पारंपारिकता का निर्वहन करना बखूबी जारी रखा है । जिन समाचार पत्रों की प्रसार संख्या पहले हजारों में थी आज उनके तीस चालीस तो संस्करण ही निकल रहे हैं जिनके पाठक लाखों या करोडों में पहुंच चुके हैं । और नए नए समाचार पत्रों ,पत्रिकाओं, साप्ताहिकों, पाक्षिकों की संख्या में भी निरंतर वृद्धि हो रही है जो नि:संदेह बहुत ही सकारात्मक पहलू है । प्रिंट माध्यमों ने जहां छोटे ग्राम कस्बों के समाचारों को भी पूरा कवरेज दिया जा रहा है वहीं अब भी पूरी संजीदगी से न उनकी समस्याओं को सबके सामने रखा जा रहा है । दोनों के तुलनात्मक विशलेषण में एक बात मुझे बहुत कमाल की लगती है वो ये कि प्रिंट माध्यम ने ग्रामीण क्षेत्रों में अपनी सार्थकता को प्रमाणित को किया ही हुई है साथ ही शहरी समाज में भी उसका महत्व रत्ती भर भी कम नहीं हुआ है , और इलेक्ट्रोनिक मीडिया का इससे उलट बुरा हाल है । देखना ये है कि भविष्य में ये दोनों खुद को और देश और समाज को क्या दिशा दे पाते हैं ।



सोमवार, 15 फ़रवरी 2010

आतंकी हमलों से कोई सबक नहीं लेता




अभी तो भारत पाक रिश्तों को फ़िर से बुने जाने की कवायद शुरू भी नहीं हुई थी कि पुणे में एक आतंकी हमला हो गया । देश के अलग अलग भागों में नियमित अनियमित रूप से होने वाले ये हमले अब तो एक नियति से होकर रह गए हैं । इस बार मुंबई की जगह पुणे हो गया । और इस बार भी पिछले सभी आतंकी हमलों की तरह एक स्थाई सी परिचर्या निभाई जा रही है । हमलों के समाचार , कुछ घटिया सी एक्सक्लुसिव खबरें , चीख पुकार के बीच राजनीतिक प्रपंचनुमा राहत और मुआवजा घोषणाएं , बीच बीच में एक आध बार आर पार की लडाई का सडांध मारता नारा भी , और फ़िर सब कुछ सिर्फ़ तब तक याद रखा जाएगा जब तक कि कोई दूसरी बडी खबर न हो देखने सुनने के लिए । जी हां , अब ये सब सिर्फ़ एक खबर ही तो बन कर रह गई हैं सबके लिए । हालांकि इस बार तो इसे इस बात से भी जोड कर देखा जा रहा है कि पुलिस प्रशासन , पिक्चर की सुरक्षा में इतनी तल्लीन हो गई कि सुरक्षा की तरफ़ से चूक गई । मगर इस तथ्य से कोई इत्तफ़ाक इसलिए नहीं रखा जा सकता कि यदि उस दिन पुलिस और प्रशासन ऐसे किसी काम में व्यस्त नहीं होती तो ये हमला रुक सकता था ।

असल में तो चाहे लाख उपाय किए जाएं , चाहे कितनी भी सुरक्षा नीतियां अपनाई जाती रहें , एजेंसियों की सर्तकता से इनमें थोडी कमी तो आ सकती है , मगर जिस तरह से इन दिनों आत्मघाती हमलों की प्रवृत्ति बढती जा रही है उसमें तो फ़िर किसी भी तरह से इन पर पूरी तरह काबू पा लेना बहुत ही कठिन काम है ।सबसे बडी बात तो ये है कि इन आतंकी घटनाओं से आज तक कभी भी कोई सबक नहीं सीखा गया है ,और शायद ऐसा इसलिए भी है क्योंकि इन हमलों में अक्सर आम लोग ही मरते रहे हैं । ये माना जा सकता है कि ऐसी आतंकी गतिविधियों को न तो रातोंरात रोका जा सकता है न ही पूरी तरह से इन्हें खत्म किया जा सकता है । मगर ये सोच कर खामोश बैठ जाना दूसरी सबसे बडी गलती होगी ॥इसलिए ये तो हो ही सकता है कि इन्हें बढावा सरंक्षण देने वालों से न सिर्फ़ पूरी सख्ती से निबटा जाए बल्कि उनसे किसी भी तरह की कोई शिकायत , कोई बात नहीं की जाए । इससे बेहतर तो ये होगा कि ऐसे सभी आतंकियों को उनके किए की इतनी कठोर सजा दी जाए कि इससे कम से कम उन लोगों में ये भय तो हो कि इतना सब करने के बाद भी उनका कुछ बिगडने वाला नहीं है । पिछले कुछ वर्षों से अफ़जल कसाब जैसे आतंकियों को यहां सहेज कर रखे जाने का औचित्य उस आम जनता के समझ में नहीं आता जो इन हमलों का शिकार होती रही है






शनिवार, 13 फ़रवरी 2010

भारत पाक के बदलते रिश्ते


एक बार फ़िर से भारत पाक रिश्तों को पटरी पर लाए जाने की कवायद शुरू हो चुकी है । दोनों देशों के सचिव स्तर की वार्ता के लिए संभावनाएं तलाशी जा रही हैं ,और वे मुद्दे तय किए जा रहे हैं जिनपर बातचीत होनी है । विकास के इस दौर मेम य़ॆ आवश्यक सा लगता भी है कि पडोसी राष्ट्रों के साथ संबंध शांतिमय और विवादरहित हों और इसके लिए किए जा रहे प्रयासों का स्वागत किया जाना चाहिए । मगर देश के आम नागरिक की तरह सोचा जाए तो मन में कुछ सवाल तो उठते ही हैं । मुंबई पर हुए आतंकी हमले के बाद से अब तक आखिर पाकिस्तान की तरफ़ से ऐसा क्या हुआ या किया गया है कि पाकिस्तान को वार्ता की मेज पर आमंत्रित किया जा रहा है । उस हमले में पाकिस्तान की भूमिका पर जो सवाल उठाए गए थे क्या उनका जवाब भारत सरकार को मिल गया है जो इस वार्ता के लिए इतनी बेसब्री दिखाई जा रही है । यदि ये वार्ता अभी नहीं होती है तो भारत का ऐसा कौन सा नुकसान हो जाएगा जिसकी भरपाई के भय से भारत इस शांति वार्ता के लिए तैयार हो रहा है । क्या अमेरिका, ब्रिटेन जैसे देशों का कोई प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष दबाव भारत को इस शांति वार्ता में बैठने के लिए मजबूर कर रहा है ?

शांति वार्ता होनी चाहिए और वर्तमान परिस्थितियों में तो ये बहुत जरूरी भी है कि सबके साथ संबंध मधुर बना कर चला जाए । किंतु किसके साथ ये भी तो देखना ही होगा । सरकार को अपने देशवासियों को ये बताना चाहिए कि वे कौन से कारण हैं कि जो भारत को पाकिस्तान के साथ आर पार की लडाई की स्थिति से सीधा शांति वार्ता तक खींच लाए । सरकार को ये भी तय करना होगा कि बार बार ऐसे शांति प्रयासों, समझौतों, शांति वार्ताओं की आड में सबका ध्यान भटकाने के बाद पीठ पीछे हमेशा ही कोई न कोई आतंकी हमले की साजिश की जाती रही है । राजनीतिज्ञ आराम से सब कुछ भुला कर शांति वार्ता की मेजों पर जा बैठते हैं कोरे आश्वासनों और दावों के आधार पर भविष्य में शांति और सौहार्द के सपने दिखाए जाने लगते हैं , मगर हर बार अपनों को खोता आम आदमी कैसे इतनी जल्दी और बार बार ये सब कुछ भूल जाए ?

इतिहास गवाह रहा है कि पाकिस्तान हमेशा ही दोहरे चरित्र वाला रुख अपनाता रहा है और सबसे बडी बात है कि अब तो ये भी साबित हो चुका है कि जिन आतंकी संगठनों और अलगाववादियों की तरफ़ से पाक अधिकारी और राजनेता भविष्य में किसी आतंकी हमले न किए जाने का आश्वासन दे देते हैं , वे खुद इन पाक अधिकारियों और सरकार का कहना नहीं मानते । आज तालिबान ने पाकिस्तान की जो हालत की हुई है वो किसी से छुपी नहीं है । सरकार को इस वार्ता की शुरूआत करने से पहले ये तो बताना ही होगा कि एक तरफ़ तो भारत विश्व शक्ति बनने के दावे कर रहा है, तो दूसरी तरफ़ अब भी अपने पडोसी देशों के साथ द्विपक्षीय रिश्तों का बनना बिगडना अमेरिका ब्रिटेन फ़्रांस जैसे देशों की पहल और दबाव पर निर्भर करता है । यदि सरकार इन सब बातों को स्पषट रूप से जनता के सामने नहीं रख पाती है तो फ़िर हमारी समझ से सरकार को कोई हक नहीं बनता कि आनन फ़ानन में शांति वार्ता में कूद जाए ॥

आज का मुद्दा की पिछली पोस्ट अमर उजाला तथा हरिभूमि में प्रकाशित



मुझे आप सबको बताते हुए बहुत ही खुशी हो रही है कि" आज का मुद्दा" की पिछली पोस्ट को दो प्रमुख समाचार पत्रों ने स्थान दिया है । चित्र को बडा करके देखने के लिए उस पर चटका लगा दें । इस संबंध में मेरे ब्लोग कुछ भी कभी भी पर प्रकाशित होने वाली कल की पोस्ट , दिल्ली ब्लोग बैठक, आखिरी रिपोर्ट , कुछ रोचक बातें , जरूर पढिएगा , ....आपको और आनंद आएगा .....। दोनों ही समाचार पत्रों का धन्यवाद , प्रिंट के पाठकों तक ब्लोग का लेखन पहुंचाने के लिए , और आप सबका आभार इसे पढने के लिए ।

शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2010

कटघरे में न्यायपालिका




आज समाचार पत्र में छपी दो खबरों ने अपनी तरफ़ ध्यान आकर्षित किया पहली खबर थी कि उत्तराखंड उच्चन्यायालय में हाल ही में नियुक्त न्यायमूर्ति निर्मल यादव के खिलाफ़ सीबीआई ने ये दावा किया है कि उन्होंने फ़र्जीतरीके से जमीन खरीदी है दूसरी ये कि एक साक्षात्कार में अपने निजि अनुभवों को साझा करते हुए दिल्ली उच्चन्यायालय के मुख्य न्यायाधीश श्री अजीत प्रकाश शाह ने सर्वोच्च न्यायालय में नियुक्ति के लिए अपनाई जा रहीप्रक्रिया और कोलेजियम पर सवालिया निशान उठाते हुए उसे पारदर्शी नहीं बताया वर्तमान में जिस तरह से एकके बाद एक करके न्यायपालिका से जुडी अनेक घटनाएं सामने रही हैं वो सिर्फ़ न्यायपालिका को कटघरे मेंखडा कर रही हैं बल्कि कहीं कहीं आम जनता का न्याय व्यवस्था पर से उठते हुए विश्वास को भी परिलक्षित कररहे हैं

पिछले कुछ समय में जिस तरह बहुत सी घटनाओं में , उत्तर प्रदेश के घोटाले में , अपनी संपत्ति सार्वजनिक करनेके मामले में और इसी तरह की सभी बातों में जिस तरह से न्यायपालिका पर प्रश्न चिह्न लगे हैं वो किसी भी सूरत मेंअच्छी बात तो कतई नहीं है आज जब देश एक तरफ़ कर्तव्यहीन सरकार , भ्रष्ट प्रशासन और पूरी तरह सेअव्यवस्थित व्यवस्था के चंगुल में फ़ंसी जनता बुरी तरह त्रस्त और फ़ंसी हुई है ,ऐसे में यदि बचा विश्वसनीयएकमात्र स्तंभ भी हिलने लगेगा तो फ़िर ईश्वर ही मालिक है न्यायपालिका यूं तो अपने अंदर रही विसंगतियोंऔर कमियों को दूर करने में सिर्फ़ सक्षम है बल्कि वो कर भी रही है जिस तरह से अभी न्यायपालिका ने खुदही ये निर्णय ले लिया कि सभी न्यायिक अधिकारी अपनी संपत्ति की सार्वजनिक घोषणा करेंगे, उसने सभीआलोचकों के मुंह पर ताला लगा दिया ।किंतु हाल ही में एक और प्रवृत्ति देखने को मिल रही है कि एक तरफ़ तो विभिन्न स्तरों पर भ्रष्टाचार की खबरें सामने रही हैं ऊपर से न्यायिक प्रशासन की कमियों आदि पर खुद न्यायपालिका के भीतर से आवाजें उठ रही हैं

ऐसे समय में जब पूरा देश समाज न्यायपलिका की तरफ़ आस से देख रहा है , न्यायपालिका पर निरंतर बढतेदबाव को कम करने की तमाम कोशिशें की जा रही हैं तो ऐसे में न्यायपालिका का इस तरह से डगमगाना बहुत हीचिंता की बात है उम्मीद ये की जानी चाहिए कि जल्द ही इस स्थिति से उबर के न्यायपालिका खुद एवं देश को सही दिशा में लाने में कामयाब हो सकेगी

गुरुवार, 11 फ़रवरी 2010

निशाना बनती फ़िल्में



एक बार फ़िर एक और पिक्चर राजनीतिक प्रपंचियों के निशाने पर है शाहरूख खान की नई पिक्चर माय नेमइस खान का विरोध बाकायदा उस पिक्चर के पोस्टर फ़ाड के उस पिक्चर का संभावित प्रदर्शन करने वाले सिनेमाघरों में तोड फ़ोड करके किया जा रहा है पिछले कुछ समय में किसी किसी बात को विरोध का मुद्दा बना केफ़िल्मों और फ़िल्मकारों के विरूद्ध उग्र एवं हिंसक प्रदर्शन करना एक आम प्रवृत्ति बन गई है मगर इस बात तो येविरोध पिक्चर, उसके कथानक, चित्रण, या डायलाग को लेकर नहीं किया जा रहा है , बल्कि अभिनेता शाहरूखखान द्वारा आईपीएल क्रिकेट टूर्नामेंट के संदर्भ में पाकिस्तानी खिलाडियों से संबंधित किसी बयान के विरोध मेंकिया जा रहा है

यूं तो महाराष्ट्र में स्थानीय राजनीतिक दलों द्वारा क्षेत्रीयता को अपनाने के नाम पर जो कुछ किया करवाया जा रहाहै वो नि:संदेह बहुत ही भयानक भविष्य की ओर ईशारा कर रहा है लेकिन इस बार जिस तरह से कहीं का तीतर, कहीं का बटेर वाली बात पकड कर शाहरूख खान की पिक्चर को निशाना बनाया जा रहा है उसके दूरगामी औरनकारात्मक परिणाम खुद महाराष्ट्र को भी भुगतने पडेंगे यदि एक मिनट को मान भी लिया जाए कि येतथाकथित राष्ट्रवादियों का अपने देश के प्रति देशभक्ति के जज़्बे को दिखाने के लिए ऐसा कर रहे हैं , तो उनसे औरउन जैसे तमाम विरोधियों से ये तो पूछा ही जाना चाहिए कि आखिर विरोध का मतलब सिर्फ़ हिंसक प्रतिक्रिया, विनाश और विध्वंस ही क्यों ?

ये भी तो किया जा सकता है कि ऐसी सभी विवादित किताबों, पिक्चरों और व्यक्तियों की पूर्णतया उपेक्षा की जाए यदि उन तमाम विरोधी संगठनों को लगता है कि उनकी मुहिम ठीक है तो उन्हें आम जनमानस को भी अपने साथजोडने की हिम्मत दिखानी चाहिए मगर शायद उन्हें अपनी असलियत और ताकत का अंदाज़ा बखूबी होता हैतभी वे विरोध का ये आसान रास्ता चुनते हैं

बुधवार, 10 फ़रवरी 2010

चिंताजनक स्थिति में हैं देश के बाल सुधार गृह और कल्याण केंद्र


आजकल राजधानी दिल्ली में स्थित एक बाल सुधार गृह और कल्याण केंद्र चर्चा में बना हुआ है । नहीं ये कोई विशेष उपलब्धि या किसी नई योजना की शुरूआत होने के कारण नहीं है , बल्कि असलियत ये है कि पिछले एक डेढ माह में ही इस बाल आश्रय केंद्र में दुखद आश्चर्यजनक रूप से लगातार बीस बच्चों की मौत हो चुकी है । हां ये आंकडा सिर्फ़ इस वर्ष का ही है । इससे बडे अफ़सोस और दुख की बात शायद कोई दूसरी नहीं हो सकती कि देश की राजधानी में ही , उस समय जब देश में बचे हुए बाघों की संख्या पर चिंता जताते हुए उन्हें बचाने की मुहिम चलाए जाने की वकालत हो रही है , उसी समय एक बाल आश्रय केंद्र में बच्चे मर रहे हैं या फ़िर मारे जा रहे हैं ।और ऐसा पहली बार नहीं हुआ है कि इस तरह की खबरें आई हैं कि बाल सुधार केंद्र , नारी निकेतन, कल्याण केंद्रों आदि में रखे जाने वालों पर अत्याचार , यौन उत्पीडन, हत्या, और कई और तरह के जुल्म किए जा रहे हैं


यदि पिछले पांच वर्षों के आंकडों पर नज़र डाली जाए तो जो स्थिति सामने आती है वो न सिर्फ़ चौंकाने वाली है बल्कि कहा जाए तो भयानक है । इन आश्रय स्थलों में प्रति माह तीन से पांच बच्चे /बालिका ..नशे की लत का शिकार , दो से तीन बच्चे /बालिका .....यौन उत्पीडन का शिकार और प्रति दो तीन महीने में एक से दो बच्चे या बालिका की मृत्यु हो जाती है । इतना ही नहीं इन तमाम आश्रय स्थलों/सुधार गृहों में जीवन इतना नारकीय होता है कि जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता । न सिर्फ़ रहन सहन बल्कि भोजन , कपडे और दैनिक निवृत्ति के साधन भी अपर्याप्त होते हैं । स्वास्थ्य चिकित्सा आदि की घोर असुविधा के कारण गंभीर रूप से बीमार और मरने वाले बच्चों की संख्या में नियमित रूप से ईजाफ़ा होता रहता है । सबसे बडे आश्चर्य की बात तो ये है कि एक तो इन घटनाओं को पहले इन केंद्रों से बाहर नहीं आने दिया जाता है , और यदि आ भी जाती हैं तो फ़िर पुलिस और प्रशासन दोनों मिल कर इन घटनाओं की ऐसी लीपापोती करती हैं कि ऐसा लगता है कि जैसे कुछ हुआ ही न हो ।

सामाजिक कल्याण मंत्रालय जिनके अधीन ये केंद्र काम करते हैं , आरोप ये भी लगता है कि जितनी तरह के भी गैरकानूनी कार्य इन केंद्रों में किए या करवाए जाते हैं उनमें इनसे संबंधित अधिकारियों और कर्मचारियों की भी मिलीभगत होती है । ये हो सकता है कि सभी केंद्रो का ऐसा हाल न हो और कुछ वाकई बहुत अच्छा और सकारात्मक काम कर रहे हैं मगर जिस तरह की स्थिति सामने है उससे तो यही साबित होता है कि अधिकांश की स्थिति बहुत ही हृदयविदारक ही है । ये इस बात से भी साबित हो जाता है कि आए दिन यहां की स्थिति से डर कर , बहुत से बच्चे इसमें से भाग निकलते हैं। सरकार समाज मीडिया और आम लोगों को इन सुधार केंद्रों में हो रही गडबडियों के लिए अब गंभीरता से सोचना चाहिए । विशेषकर मीडिया को चाहिए कि वे अपने प्रयासों से ऐसी सभी घटनाओं को जनता और प्रशासन के सामने रखे



गुरुवार, 4 फ़रवरी 2010

फ़िर से दिल दो हाकी को ........और पैसे दो क्रिकेट को




जी हां आजकल टीवी पर ये विज्ञापन खूब दिखाया जा रहा है , कभी कोई क्रिकेट खिलाडी तो कभी , कभी ओलंपियन पदक विजेता कोई खिलाडी बहुत सी अच्छी सी बातें कहता हुआ आखिर में कहता है कि इस बार हाकी का विश्व कप अपने देश में होने जा रहा है और वो तो तो भारत के सारे मैच देखेगा । इसके बाद बडे ही मन से कहा जाता है .........फ़िर से दिल दो हाकी को ....और इसके बाद मेरे मन से अपने आप निकलता है ...हां फ़िर से दिल दो हाकी और पैसे नाम शोहरत ,सब कुछ दो ....अपने चहेते क्रिकेट को ...। ओह एक पल को ये सब देख कर तो ऐसा लगा जैसे हाकी के स्वर्णिम दिन न सही मगर कुछ न कुछ दिन तो बहुरेंगे ही ।

इतने पर ही मन फ़िर बोल उठा कि आखिर क्या हो जाएगा रातोंरात जो सब हाकी को अपना दिल दे बैठेंगे ।पहले तो जब मैं सभी उन सभी का जिसके जिसके साथ ये राष्ट्रीय शब्द जुडा हुआ है ...,उनकी स्थिति देखता हूं तो लगता है कि इनके साथ राष्ट्रीय संबोधन को तो हटा ही दें तो बेहतर रहेगा .....बेशक ये हो सकता है कि ऐसा करने से उनके हालात पर रत्ती भर भी फ़र्क न पडे मगर कम से कम इतना तो होगा ही कि फ़िर एक अनावश्यक बोझ जो राष्ट्रीयता का दबाव बनाता सा लगता है , वो तो हटा हुआ रहेगा ही । अब देखिए न एक एक कर लिया जाए । हमारी राष्ट्र भाषा हिंदी ....आज भी संघर्षरत है जाने किन किन जगहों पर , जाने किन किन स्तरों पर । हमारे राष्ट्रीय प्रतीकों , राष्ट्रीय नदी घोषित नदी गंगा आज मरण शैय्या पर है । राष्ट्रीय पशु बाघ की हालत तो ये है कि पूरे देश में ये सिर्फ़ गिनती के कुछ सौ ही बचे हैं । बताईये सवा अरब की इंसानों की जनसंख्या में बाघों की संख्या सिर सैकडों में सिमट कर रह गई है । और इत्तफ़ाक देखिए कि जब हाकी को दिल देने की बात चल रही है तो उसके साथ ही बाघों को बचाने की भी बात की जा रही है । तो समझा क्या जाए आखिर ..........यही कि राष्ट्रीय शब्द से जुडी सभी चीज़ों के लिए अपना देश और देशवासी संवेदन शून्य .....तथा सरकार प्रशासन बिल्कुल किंकर्तव्यविमूढ हो कर बैठे हैं ।

मुझे ये तो नहीं पता कि इस प्रचार /नारे /घोषणा आदि से हाकी या बाघों या कि गंगा नदी की स्थिति पर कितना और क्या फ़र्क पडेगा मगर इतना जरूर है कि यदि इन सबके प्रति अब भी सजगता, संजीदगी , सक्रियता और सचेतता नहीं आई जनमानस में तो फ़िर वह दिन दूर नहीं जब ..हम अपनी आने वाली नस्लों को किसी भी तरह से ये समझा नहीं पाएंगे कि आखिर .....हाकी को राष्ट्रीय खेल क्यों कहा जाता था । बाघ का चित्र उन्हें टीवी सिनेमा में ही दिखा पाएं , और गंगा के लिए भी कुछ ऐसा ही । अब समय आ चुका है कि बिना देर किए इन पर काम शुरू किया जाए ।
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