एक बार फ़िर एक और पिक्चर राजनीतिक प्रपंचियों के निशाने पर है । शाहरूख खान की नई पिक्चर माय नेमइस खान का विरोध बाकायदा उस पिक्चर के पोस्टर फ़ाड के उस पिक्चर का संभावित प्रदर्शन करने वाले सिनेमाघरों में तोड फ़ोड करके किया जा रहा है । पिछले कुछ समय में किसी न किसी बात को विरोध का मुद्दा बना केफ़िल्मों और फ़िल्मकारों के विरूद्ध उग्र एवं हिंसक प्रदर्शन करना एक आम प्रवृत्ति बन गई है । मगर इस बात तो येविरोध पिक्चर, उसके कथानक, चित्रण, या डायलाग को लेकर नहीं किया जा रहा है , बल्कि अभिनेता शाहरूखखान द्वारा आईपीएल क्रिकेट टूर्नामेंट के संदर्भ में पाकिस्तानी खिलाडियों से संबंधित किसी बयान के विरोध मेंकिया जा रहा है ।
यूं तो महाराष्ट्र में स्थानीय राजनीतिक दलों द्वारा क्षेत्रीयता को अपनाने के नाम पर जो कुछ किया करवाया जा रहाहै वो नि:संदेह बहुत ही भयानक भविष्य की ओर ईशारा कर रहा है । लेकिन इस बार जिस तरह से कहीं का तीतर, कहीं का बटेर वाली बात पकड कर शाहरूख खान की पिक्चर को निशाना बनाया जा रहा है उसके दूरगामी औरनकारात्मक परिणाम खुद महाराष्ट्र को भी भुगतने पडेंगे । यदि एक मिनट को मान भी लिया जाए कि येतथाकथित राष्ट्रवादियों का अपने देश के प्रति देशभक्ति के जज़्बे को दिखाने के लिए ऐसा कर रहे हैं , तो उनसे औरउन जैसे तमाम विरोधियों से ये तो पूछा ही जाना चाहिए कि आखिर विरोध का मतलब सिर्फ़ हिंसक प्रतिक्रिया, विनाश और विध्वंस ही क्यों ?
ये भी तो किया जा सकता है कि ऐसी सभी विवादित किताबों, पिक्चरों और व्यक्तियों की पूर्णतया उपेक्षा की जाए ।यदि उन तमाम विरोधी संगठनों को लगता है कि उनकी मुहिम ठीक है तो उन्हें आम जनमानस को भी अपने साथजोडने की हिम्मत दिखानी चाहिए । मगर शायद उन्हें अपनी असलियत और ताकत का अंदाज़ा बखूबी होता हैतभी वे विरोध का ये आसान रास्ता चुनते हैं
गुरुवार, 11 फ़रवरी 2010
निशाना बनती फ़िल्में
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बिलकुल सही कहा है शायद ये शडयन्त्र देश को तोदने के लिये ही है कुछ लोग अपने स्वार्थ के लिये कितना गिर सकते हैं ये ठाकर्3ए परिवार को देख कर अन्दाज़ा लगाया जा सकता है धन्यवाद्
जवाब देंहटाएंये लोग व्यवस्था के चाकर हैं। व्यवस्था संकट में है। महंगाई बेरोजगारी बढ़ रही है। न्याय व्यवस्था लाचार है। ऐसे में लोगों का ध्यान हटाने के लिए कुछ तो होना चाहिए। क्या शिवसेना, क्या कांग्रेस। ये सब इस व्यवस्था के चाकर हैं। शिकार हर बार जनता ही होती है।
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