मंगलवार, 16 फ़रवरी 2010

मीडिया के दो रूप और दो दिशाएं



आज जब एक मायने में मीडिया युग ही आ गया है , समाज का कोई क्षेत्र शायद अब ऐसा नहीं बचा है जहां पर मीडिया का दखल न हो । और किसी भी समाज के लिए ये जरूरी और अच्छी बात है कि सूचना संसार के माध्यम से वे कम से कम एक दूसरे से जुडे रहें । मगर यहां ये बताना और समझना अच्छा होगा शायद कि जैसे आज भी हमारा समाज कई मायनों में बहुत से अलग अलग स्तरों में बंटा हुआ है और उसी अनुरूप दोनों ही समाजों का मीडिया भी बहुत अलग है । जी हां बिल्कुल सच बात है ये , इसे यदि ऐसे समझा जाए तो बेहतर होगा । आज का शहरी समान जहां आई पौड, नेट , लैपटौप से लैस , फ़ैशन की हर सुख सुविधा से लबरेज़ बेफ़िक्री से एक भागमभाग की जिंदगी जीने में लगा है जहां उसे सिर्फ़ किसी तरह से आगे बढते जाना है , सारे सपने पूरे कर लेने हैं जितनी जल्दी हो सके उतनी जल्दी ही । वहीं दूसरा समाज जो इन महानगरीय हदों से थोडा बाहर निकलते ही दिखने लगता है और सुदूर ग्रामीण देहात में तो इसका कुरूप चेहरा वीभत्सता की हद तक पहुंच जाता है , वहां पर गरीब,भूखे, नंगे, कृशकाय पशुवत जीते इंसान के रूप में अभी भी बहुतायत मिल जाते हैं ।

इन दो समाजों का मीडिया भी बिल्कुल अलग अलग है । या यूं कहें न कि प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रानिक मीडिया के रूप में समांतर चल रहा मीडिया रेल की पटरियों की तरह साथ साथ चल तो रहा है मगर किसी भी स्थान, बिंदु पर एक दूसरे को काटता नहीं है और न ही मिलने की कोशिश करता है । मिल सकता भी नहीं है क्योंकि फ़िर दुर्घटना अवश्यंभावी हो जाएगा शायद । एक मीडिया जो दावा करता है कि उसकी खबर पाने और लाने की हद तेज से भी ज्यादा तेज है । कई बार तो इतनी तेज़ की घटना होने की अफ़वाह और अंदाज़े भी एक्सक्लुसिव खबर बनके सामने आ जाती हैं । स्टिंग /एक्सक्लुसिव आदि के नाम पर तो ये मीडिया कैमरे के दूसरी तरफ़ से जब जिस बात को चाहे जिस दिशा में मोड सकता है । इस मीडिया को नया सोचने करने की कोई जरूरत महसूस ही नहीं होती, हो भी कैसे इसे बस एक दूसरे की नकल करके बाजार में बिक जाने वाला सबसे चटखारेदार मसाला तैयार करन होता है । फ़िर चाहे वो दर्द बेच के हो या नंगापन , चाहे विस्फ़ोट बेचना हो या जलसा । इस मीडिया के लिए थिंक टैंक की कोई अहमियत नहीं है ,क्योंकि इसे सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में रहने मरने वाले गरीब कृषकों/मजदूरों के जीवन से कोई सरोकार नहीं है , वो कौन से इस मीडिया के ग्राहक हैं । इस मीडिया का एक विरोधाभासी और दिलचस्प चरित्र ये भी है कि अपना बाजार बनाने और बचाने के लिए ये आतंकी हमलों के वक्त क्या दिखाया या छुपाया जाना चाहिए , उसमें फ़र्क नहीं कर पाता है ,मगर प्रियदर्शनी मट्टू, आरुषि , और रुचिका को न्याय दिलवाने के लिए बेहिचक और बेझिझक न्यायिक परिक्षेत्र में भी घुस कर मीडिया ट्रायल शुरू कर देता है ।

अब बात दूसरे मीडिया की , प्रिंट मीडिया । आज विस्तार ,तकनीक, पाठक, और पत्रकारिता के हर मापदंड और को साथ लेकर चलते हुए इस मीडिया ने जहां अपने खादी की झोलाछाप और चप्पल चटकाती हुई छवि को तोड दिया है वहीं दूसरी तरफ़ साहित्य, हिंदी भाषा, आम जनजीवन से जुडाव , और भारतीय पारंपारिकता का निर्वहन करना बखूबी जारी रखा है । जिन समाचार पत्रों की प्रसार संख्या पहले हजारों में थी आज उनके तीस चालीस तो संस्करण ही निकल रहे हैं जिनके पाठक लाखों या करोडों में पहुंच चुके हैं । और नए नए समाचार पत्रों ,पत्रिकाओं, साप्ताहिकों, पाक्षिकों की संख्या में भी निरंतर वृद्धि हो रही है जो नि:संदेह बहुत ही सकारात्मक पहलू है । प्रिंट माध्यमों ने जहां छोटे ग्राम कस्बों के समाचारों को भी पूरा कवरेज दिया जा रहा है वहीं अब भी पूरी संजीदगी से न उनकी समस्याओं को सबके सामने रखा जा रहा है । दोनों के तुलनात्मक विशलेषण में एक बात मुझे बहुत कमाल की लगती है वो ये कि प्रिंट माध्यम ने ग्रामीण क्षेत्रों में अपनी सार्थकता को प्रमाणित को किया ही हुई है साथ ही शहरी समाज में भी उसका महत्व रत्ती भर भी कम नहीं हुआ है , और इलेक्ट्रोनिक मीडिया का इससे उलट बुरा हाल है । देखना ये है कि भविष्य में ये दोनों खुद को और देश और समाज को क्या दिशा दे पाते हैं ।



5 टिप्‍पणियां:

  1. बिलकुल सही कहा आपने .....इलेक्ट्रोनिक मीडिया तो सिर्फ बिकने में लगा हुआ .....है

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  2. यह सही है कि प्रिंट मीडिया में ग्रमीण और कस्बाई समाज स्थान पाता है। लेकिन मजदूर, किसान और श्रमजीवी तो वहाँ भी गायब है।
    आप ने मीडिया के द्वैत की तरफ अच्छा इशारा किया है।

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  3. पहली बात से सहमत. लेकिन मीडिया ट्रायल वाले आक्षेप से नहीं. यदि मीडिया इतना सक्रिय न होता तो राठौर मजे मार रहा होता. इसके बावजूद कुछ मामलों में इलेक्ट्रानिक मीडिया का रवैया दोहरा होता है जिससे दूरी नहीं बनाई गई तो त्याज्य हो जायेगी.

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  4. आदरणीय भारतीय नागरिक जी , आपके विचार बांटने के लिए शुक्रिया , वैसे मैंने कोई आक्षेप नहीं लगाया है ,मगर मीडिया ट्रायल जैसा शब्द ही तब अस्तित्व में आया जब कुछ मामलों में मीडिया ने बिना ही किसी ठोस आधार के किसी को दोषी ठहरा दिया , और फ़िर बाद में अपने कहे से मुकर गई , जैसे कि आरुषि मर्डर केस में तलवार दंपत्ति को भी और यही कारण है कि न्यायपालिका को भी कई बार इस मामले में प्रेस काउसिंल को हिदायत देनी पडी है । मार्गदर्शन करते रहें ।धन्यवाद
    अजय कुमार झा

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मुद्दों पर मैंने अपनी सोच तो सामने रख दी आपने पढ भी ली ....मगर आप जब तक बतायेंगे नहीं ..मैं जानूंगा कैसे कि ...आप क्या सोचते हैं उस बारे में..

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