अब तो नए साल की शुरूआत से ही समय जिनके लिए कर्फ़्यूनुमा हो जाता है , जिनके आने जाने घूमने फ़िरने, खेलने कूदने तक पर मनाही हो जाती है .....वे होते हैं दसवीं और बारहवीं की बोर्ड परीक्षा में शामिल होने वाले विद्यार्थी । और फ़िर परीक्षाओं का समय जैसे जैसे नजदीक आता जाता है तो ये स्थिति और भी दुरूह हो जाती है या कहा जाए कि बनाई जाती है । फ़िल्में रिलीज़ होना टल जाती हैं , शादियों , पार्टियों को यथासंभव टाला जाता है । कहीं मेहमान बन कर और मेज़बान बन कर भी रहना /जाना गंवारा नहीं किया जाता ....भई ! आखिर बच्चों की परीक्षा का समय है ...तो दुनिया थम जानी चाहिए न । लगना चाहिए कि सभी मिल कर (सभी मतलब , माता-पिता, पूरा परिवार , रिश्तेदार , पूरा समाज ) उन विद्यार्थियों के लिए ही चिंतित हैं । इस बात को इतना ज्यादा महत्व दिया जाने लगता है कि एक तनाव सा माहौल में व्याप्त हो जाता है । और इसका परिणाम होता है कि उन बच्चों पर इतना ज्यादा मानसिक और शारीरिक दबाव पड जाता है कि कि उनके लिए ये परीक्षाओं का दौर कम आत्मह्त्याओं का दौर बन जाता है ।
पिछले सिर्फ़ पांच सालों के आंकडों पर नज़र डालें तो शायद ये जानकर सबको दुख और हैरानी हो कि सिर्फ़ पिछले पांच सालों में ही इन परीक्षा के तनाव , परीक्षा परिणामों के अपेक्षित अनापेक्षित अंदेशे मात्र ने और परीक्षा में मिली असफ़लता ने कुल 669 विद्यार्थियों को मौत के मुंह में पहुंचा दिया है । सरकार , मनोविज्ञानी, समाजशास्त्री , विद्यालय प्रशासन , अभिभावक सभी पिछले कुछ समय से शायद अब इस स्थिति को भलीभांति समझते हुए इन परीक्षाओं के मद्देनज़र विद्यार्थियों में उपज़े डर और तनाव को कम करने के भरसक प्रयत्न कर रहे हैं । बहुत सारी हेल्पलाईनों और काऊंसिलिंग संस्थानों द्वारा सबका मनोबल बढाने का काम किया जा रहा है । मगर अफ़सोस की बात ये है कि इन सबके बावजूद बच्चों में परीक्षा को लेकर बना हुआ दबाव और उसके बाद उससे उपजी हताशा से बढती आत्महत्या की प्रवृत्ति में इज़ाफ़ा ही हो रहा है । और स्थिति दिनोंदिन विस्फ़ोटक बनती जा रही है । इससे ज्यादा दुखद बात और क्या हो सकती है कि देश के नवनिर्माण और विकास में महत्वपूर्ण योगदान करने वाले युवा यूं कालकवलित हो रहे हैं ।
अब भी यदि ये सबने मिलकर भी इस दिन पर दिन बिगडती स्थिति पर गंभीरतापूर्वक नहीं सोचा किया तो फ़िर बहुत जल्द ही हालात विस्फ़ोटक होने वाले हैं । सबस अहम बात तो ये है कि बच्चों पर से ये दबाव किस तरह से कम किया जाए कि उन्हें ये न लगे कि ये परीक्षा और इसका परिणाम ही जिंदगी की शुरूआत है और शायद अंत भी । इसका कोई दूसरा विकल्प नहीं है । ये बिल्कुल सही बात है कि आज के तीव्र प्रतिस्पर्धी युग में जीवन के इस रेस में बने रहने के लिए इसके साथ कदम ताल करना जरूरी हो जाता है मगर जीवन लेने देने की कीमत पर तो कतई नहीं । खासकर उनके लिए जो जाने किस दबाव में सबसे अधिक नंबर या प्रतिशत या उससे थोडा सा कम आने के बाद भी जान देने पर उतारू हो जाते हैं । इसके लिए न सिर्फ़ बच्चों की मानसिकता , उनका अतिमहात्वाकांक्षी होना आदि में बदलाव लाने के साथ शिक्षा पद्धति में भी व्यापक बदलाव लाना होगा । देखना है कि इस दिशा में कितना काम हो पाता है .....और वो भी कब ??????????
शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2010
तो आ ही गया परीक्षाओं ....अरे नहीं आत्महत्याओं का दौर ....
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Bewajah ki tension hai. Hamare jamane ki to bat hi alag hua karti thi, pura ka pura kunba nakal karane ke liye nikal padta tha.
जवाब देंहटाएंमुसीबतें तो दुनिया में हमेशा से रही हैं .. पर आज के बच्चों को उनसे लडना नहीं सिखाया जाता .. इसके अतिरिक्त पहले बच्चे अपने मनमुताबिक कार्य किया करते थे .. आज सभी अभिभावक अपने बच्चों से एक ही उम्मीद पालते हैं .. किशोरों में आत्महत्या के लिए यही सबसे अधिक जबाबदेह है .. यदि अभिभावक बच्चों की मन:स्थिति समझें .. तो ऐसे हादसों को रोका जा सकता है !!
जवाब देंहटाएंप्रिंट मीडिया के लिए हैं ये सारे मुद्दे। नकल कराने से लेकर आत्महत्या करवाने और मुसीबतें पैदा करवाने के लिए भी। इस मुद्दे को भी प्रिंटमीडिया ले उड़ेगा बल्कि पोस्ट को।
जवाब देंहटाएंवाकई, शिक्षा व्यवस्था में बदलाव की आवश्यक्ता है. अच्छा आलेख.
जवाब देंहटाएंपता नहीं क्यूँ आज तक मुझे यहाँ कि शिक्षा प्रणाली पसंद नहीं आती .......यहाँ रट्टे मरने में जायदा विश्वास रखा जाता है ,मार्क्स अच्छे आने चाहिये ज्ञान हो या न हो ये ज़रूरी नहीं .............
जवाब देंहटाएंमेरे प्यारे अजय भाई
जवाब देंहटाएंहमे पढाई कभी ना भाई
यहा सोचा कि अपनी सोच
और अपना ही ब्लोग है
पर सच तो ये है कि
यहा भी बडे-बडे लफ़डे है
साफ़ साफ़ सच लिखो
तब भी हो गयी लडाई