गुरुवार, 18 मार्च 2010
असमय परिपक्व होता बचपन
अभी हाल ही में एक समाचार देखा सुना कि , किसी विद्यालय में एक सातवीं कक्षा में पढ रहे बालक ने , अपने ही विद्यालय की तीसरी कक्षा में पढ रही एक बच्ची से बलात्कार करने की कोशिश की , ऐसा ही एक समाचार था कि कुछ बच्चों ने अपने एक सहपाठी को खेल के मैदान में ही पीट कर मार डाला , कुछ बच्चों ने अपनी ही कक्षा के एक बच्चे को फ़िरौती के लिए अगवा किय और फ़िर हत्या कर दी ..आदि आदि । अब ये कोई ऐसी घटनाएं नहीं रही हैं जो साल दो साल में कभी कभार हो रही हैं । बल्कि अब तो ये आए दिनों की बात है । यदि इन आंकडों में बच्चों द्वारा ...मोटर दुर्घटना में लिप्तता, नशे की लत में लिप्तता, अश्लील सामग्रियों के उपयोग आदि जैसे आंकडे भी मिला दिये जाएं तो तस्वीर इतनी भयानक निकलती है कि ..क्षण भर में ही ये अंदाज़ा लग जाता है कि देश का भविष्य बनने वाले बच्चे ही असमय परिपक्व ...या कहा जाए कि अधकचरे परिपक्व हो रहे हैं ।
आज बच्चे अपने चारों तरफ़ जैसा माहौल पा रहे हैं , टीवी नेट आदि पर जिस तरह की मनोरंजन सामग्री उन्हें अपने सामने दिख रही है , स्कूलों कालेजो जो वातावरण बना हुआ है और सबसे अधिक घर में जो परिवेश मिल रहा है उसीका परिणाम है कि आज बच्चे अपने स्वाभाविक बाल सुलभ बचपन से दूर होकर , बेहद उग्र हिंसक और तनावग्रस्त होते जा रहे हैं । आज शायद ही कोई बच्चा ...नाना नानी दादा दादी की गोद में सर रख कर कहानियां सुनते हुए सोता हो । शायद ही किसी परिवार में सुबह शाम की प्रार्थना आरती में बच्चा मां पिता के साथ खडे होकर उसे गाता हो । सच तो ये है कि पूरे परिवार , समाज और देश के ही संस्कार बदल रहे हैं तो ऐसे में बच्चे उससे कैसे अछूते रह सकते हैं । जो रही सही कसर है वो पूरी कर दी है आज की अति प्रतिस्पर्धी युग ने जिसमें बच्चे को उसके अल्पायु में ही ये अहसास करा दिया जा रहा है कि यदि वो असफ़ल है तो फ़िर जीवन ही बेकार है । बच्चों में बढती आत्महत्या की प्रवृत्ति इस बात का प्रमाण है ।
हालांकि पश्चिमी देशों में तो ये परिपक्वता बहुत पहले से ही आई हुई है और वहां इसके गुण दोष समय समय पर परिलक्षित होते भी रहते हैं । किंतु भारत के बच्चों और पश्चिमी देशों के बच्चों के मानसिक स्तर , और सामाजिक परिवेश में बहुत अंतर है यही कारण है कि ये बात सभी को खल रही है । यदि इसके लिए भी समाज सरकार से किसी कानून की दरकार रखता है तो वो बेमानी है । सही मायने में तो एक हर व्यक्ति का , हर परिवार का , और हर समाज का खुद का दायित्व और जिम्मेदारी है कि यदि वो सचमुच चाहता है कि आने वाला कल सुरक्षित और सुंदर हो ....सबके लिए तो इसकी शुरूआत घर के भीतर से ही शुरू करनी होगी और सभी को करनी होगी । अन्यथा फ़िर उपर लिखित घटनाओं से अभ्यस्त होने के लिए खुद को तैयार करना होगा ....फ़ैसला खुद हमारे हाथों में है ॥
लेबल:
असमय परिपक्वता,
बचपन,
childhood
एक आम आदमी ..........जिसकी कोशिश है कि ...इंसान बना जाए
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बहुत बढिया विचार रखे है. मता-पिता के रूप मे हमे ही इस पर ध्यान देना होगा.
जवाब देंहटाएंthik hai. nice
जवाब देंहटाएंफ़ैसला खुद हमारे हाथों में है -बस, यही जानना होगा..किसी अन्य को दोष देकर कुछ हासिल न होगा!
जवाब देंहटाएंबहुत बढिया विचार रखे है. मता-पिता के रूप मे हमे ही इस पर ध्यान देना होगा.
जवाब देंहटाएंविचारने योग्य लेख...
जवाब देंहटाएंसमाज व्यक्ति से बना है ..यदि हर व्यक्ति स्वयम में सुधार कर ले तो समाज स्वयं सुधर जायेगा....
बहुत सही मुद्दा उठाया आपने अजय जी।मैं पूरी तरह सहमत हूं और इस मामले मे किसी कानून या सरकार की पहल से ज्यादा ज़रूरी है हम सबकी समाज की शुरूआत्।इसमे कोई शक़ नही बचपन भटक रहा है,खो रहा है और उसे समय पर नही बचाया गया तो हमारी अगली पीढी कैसी होगी इसकी कल्पना मात्र से डर लगता है।आभार आपका आपने बहुत ही ज़रुरी विषय पर बात की।
जवाब देंहटाएंसही कह रहे हैं आप। आज बच्चे अपने बालसुलभ व्यवहार से दूर कभी उग्र तो साथ ही कभी अपने आप में सिमटते जा रहे हैं। सच में विचारणीय मुद्दा है जिस पर समय रहते ध्यान देने की ज़रुरत है
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