अभिव्यक्ति का दमन
अभी कुछ समय पूर्व बाला साहब ठाकरे के निधन के समय मुंबई में दो
युवतियों को मुंबई पुलिस ने महज़ इसलिए गिरफ़्तार कर लिया था क्योंकि
उन्होंने फ़ेसबुक में कोई प्रतिकूल टिप्पणी की थी । बाद में उन्हें अदालत
द्वारा न सिर्फ़ छोड दिया गया बल्कि अदालत ने निर्देश भी दिए कि ऐसे मामलों
में बिना अदालती आदेश के किसी की गिरफ़्तारी न की जाए । अब हाल ही में
उ.प्रदेश के एक दलित चिंतक साहित्यकार को उत्तर प्रदेश पुलिस ने एक राजनेता
द्वार दी गई तहरीर के आधार पर दर्ज़ प्राथमिकी में गिरफ़्तार करके पुन: उसकी
पुनरावृत्ति की है । दोनों ही घटनाओं में दो अहम बातें सामने आ रही हैं ।
पहली ये कि लोकतंत्र की आत्मा अभिव्यक्ति है फ़िर चाहे वो सहमति हो या
असहमति शायद इसी के मद्देनज़र ही संविधान में इसे एक मूल अधिकार के रूप में
शामिल किया गया । दूसरी बात ये कि आज की सरकार , राजनेता व प्रशासन इतने
ज्यादा संवेदनहीन हो चुके हैं कि जरा सी आलोचना ( ध्यान रहे अपमान नहीं )
भी उन्हें नागवार गुजरता है और वे दमन का सहारा ले रहे हैं ।
उत्तर
प्रदेश के दलित चिंतक द्वारा दुर्गा शक्ति नागपाल निलंबन के मुद्दे पर
अपनी असहमति जताते हुए आलोचनात्मक टिप्पणी भर कर देना क्या इतना बडा जुर्म
हो गया सरकार व पुलिस की नज़र में कि उन्हें आनन फ़ानन में गिरफ़्तार कर लिया
गया । सरकार और प्रशासन शायद ये भूल रही हैं कि यदि आम आदमी जो पहले ही
सरकार की जनविरोधी नीतियों और भ्रष्ट आचरण से बुरी तरह क्षुब्द और आहत है
यदि उसे अपनी नाराज़गी , अपना क्रोध , शब्दों और वाक्यों में भी कहने लिखने
की आज़ादी नहीं होगी तो फ़िर वो समय दूर नहीं जब विश्व के अन्य देशों की तरह
यहां भी लोग सडकों पर उतर अन्य हिंसक और वैकल्पिक तरीके तलाशेंगे । ये ठीक
है कि संचार माध्यमों के विस्तार और अनियंत्रित स्वरूप के कारण बहुत कुछ
ऐसा सामने लाया जा रहा है जो किसी भी स्वस्थ समाज के लिए अच्छा नहीं कहा जा
सकता किंतु वैचारिक भिन्नता और असहमति को दबाने के लिए इस तरह झूठे और
आपराधिक मुकदमों के दम पर दमन का सहारा लेना खुद सियासत के लिए आत्मघाती
कदम साबित होगा ।
खाद्य सुरक्षा योजना
जैसी कि सरकार ने पहले ही घोषणा कर दी थी कि मौजूदा मानसून सत्र में
वो खाद्य सुरक्षा विधेयक लाएगी जो ये सुनिश्चित करेगा कि देश में किसी गरीब
को भूखा न रहना पडे । सुनने में तो ये योजना बेहद कल्याणकारी और बहुत ही
जरूरी जान पडती है , मगर आम जन की निगाह में इस पर अभी से संदेह ज़ताने के
कम से कम दो पुख्ता कारण तो जरूर मौजूद हैं । पहला तो ये कि ऐसी ही एक
मह्त्वाकांक्षी योजना "स्कूलों में मिड डे मील" दिए जाने वाली योजना का
संचालन किस गैर जिम्मेदाराना तरीके से किया जा रहा है ये बात अब किसी से
छुपी नहीं है । हालात ऐसे बन गए हैं कि अब गरीब से गरीब अभिभावक भी अपने
बच्चों को स्कूलों में खाना खाने से मना कर रहा है क्योंकि उसे उस खाने को
खाने के बाद किसी अनिष्ठ की आशंका रहती है । दूसरी बात ये कि सरकार द्वारा
समय समय गरीबों के लिए बनाई और लागू की जा रही ऐसी सैकडों योजनाओं के नाम
पर करोडों अरबों रुपए के घपले घोटाले और हेराफ़ेरा किए जाने का संदेह , भी
आम लोगों को इस योजना के प्रति उदासीन बना रहा है ।
इन सबसे
अलग सरकार ने आगामी आम चुनावों से ठीक पहले का समय इसे लागू करने के लिए
चुनकर रही सही कसर भी पूरी कर दी है । बेशक उद्देश्य में बहुत ही अच्छी लग
रही और भविष्य में बेशक बहुत ही लाभदायक भी सिद्ध होने की संभावना के
बावजूद भी फ़िलहाल ये सरकार का राजनीति से प्रेरित कदम माना जा रहा है मुख्य
विपक्षी दलों समेत अन्य बहुत सारे राजनीतिक दलों द्वारा भी इसमें बहुत
सारी बुनियादी कमियां बताई गई हैं जिसमें से एक सबसे अहम तो ये है कि इतनी
बडी दीर्घकालीन योजना के लिए धन कहां से जुटाया जाएगा इस बात का कोई खुलासा
भी नहीं किया गया है । जो भी हो , यदि सरकार न सिर्फ़ इस योजना बल्कि इस
सहित पहले की तमाम ऐसी जन कल्याणकारी योजनाओं का समय समय खुद ही मूल्यांकन
करे और उसकी सफ़लता और असफ़लता को देख कर भविष्य की योजनाओं की रूपरेखा बनाए
तो स्थिति नि:संदेह कुछ और होगी ।
thik kah rahe hain
जवाब देंहटाएंशुक्रिया भास्कर जी । टिप्पणी दर्ज़ करने के लिए आपका आभार
हटाएंthik kah rahe hain
जवाब देंहटाएंबिलकुल सही कहा, सही विश्लेषण अजय भाई!
जवाब देंहटाएंशुक्रिया शाहनवाज़ भाई । सहमति और टिप्पणी के लिए
हटाएंजहाँ तक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर लगाम की बात है तो सरकार को याद रखना चाहिए कि रबड़ को जितना दबाव वह उतनी ही तेज़ी से वापिसी करती है।
जवाब देंहटाएंबहुत ही पते की बात कही आपने शाहनवाज़ भाई
हटाएंआपकी बाकपटुता को सलाम है
जवाब देंहटाएंशुक्रिया उज्जवल । विश्वास बनाए रखें
हटाएंघनघोर अँधेरा दिख रहा है!
जवाब देंहटाएंहां सच कह रहे हैं आप स्थिति तो कुछ ऐसी ही है
हटाएं