अन्ना हज़ारे के जनाओंदोलन में लोकतंत्र में मतदान के महत्व पर चर्चा चली और लोकतंत्र की मजबूती के लिए आम लोगो के शत प्रतिशत मतदान की बात उछाली गई तो आम लोगों ने एक दिलच्स्प मगर गंभीर प्रश्न उठाया । यदि चुनाव में दर प्रत्याशी खडे हैं और आम आदमी की नज़र में दसों प्रत्याशी संदिग्ध और प्रश्नों के घेरे में हों तो ? क्या उस स्थिति में भी आम आदमी को लोकतंत्र की अनिवार्य परंपरा का निर्वहन करने के लिए मतदान करना चाहिए ? क्या मजबूरी में इस्तेमाल किए जाने से मतदान के मूल उद्देश्य की पूर्ति वाकई हो पाएगी ? सबसे अहम बात ये कि सामने प्रत्याशियों की जमात में एक भी मनोनुकूल उम्मीदवार नहीं पाकर क्या सचमुच ही आम मतदाता खुद को मतदान के लिए प्रेरित कर सकता है । अब सबसे बडी समस्या आम आदमी के सामने यही है कि लोकतंत्र में उसके पास अपना प्रतिनिधि चुनने के लिए विकल्प ही नहीं है । आज स्थिति इतनी नारकीय हो चुकी है कि ऐसी दुविधा हर स्तर पर होने वाले चुनाव की है ।
अगर इस समस्या के समाधान को तलाशने से पहले इसकी उतपत्ति की पडताल करना समीचीन होगा । स्वतंत्रता पूर्व राजनीतिक दलों , कांग्रेस ही प्रमुख थी मगर अलग -अलग विचारधाराओं के कारण विभिन्न राजनीतिक दलों का उदभव हुआ । भारतीय समाज की संरचनात्मक पृष्ठभूमि में प्राचीनकाल से ही , धर्म जाति भाषा और खॆत्र की महती भूमिका होने के कारण जल्दी ही ये सब कारक भी राजनीतिक दलों के गठन का आधार बनने लगे । इन सब के आधार पर बनने वाला राजनीतिक दलों के गठन का आधार बनने लगे । इन सब के आधार पर बनने वाली राजनीतिक पार्टियों ने अपने उद्देश्यों और एजेंडों के बिल्कुल स्पष्ट न होने के कारण बहुत बार उन उद्देश्यों की पूर्ति के बाद भी इन्हें समाप्त नहीं किया गया । सबसे बादा उदाहरण तो देश की सबसे बडी पार्टी कांग्रेस का ही लिया जा सकता है जिसके लिए यही कहा गया था कि स्वतंत्रता प्राप्ति के अपने उद्देश्य हासिल हो जाने के बाद इसे भंग कर दिया जाना चाहिए था । लेकिन स्वतंत्रता के उपरांत राजनीतिक महात्वाकांक्षा इतनी ज्यादा बढ गई थी कि सत्ता का मोह त्यागने का साहस कोई नहीं कर सका ॥
भारतीय संविधान के निर्माण के समय भी इस बात का ख्याल नहीं रखा गया कि राजनीतिक दलों के गठन में क्या , धर्म , जाति , भाषा , क्षेत्र आदि को आधार और किस सीमा तक बनाया जा सकता है ? इसका कुपरिणाम ये निकला कि इन सबके नाम पर लगातार राजनीतिक दल बनते रहे । इन तमाम क्षेत्रीय, छोटे और बिखरे हुए राजनीतिक दलों में पहले सत्ता पाने के लिए किए/कराए जाने वाले छोटे तंत्रों के रूप में काम किया उअर बाद में धन के बदले खरीदे जाने वाले उन चिप्पियों के रूप में उभरे जिन्हें चिपका कर बडे दलों ने सरकार बनाने में हो रहे छिद्रों को भरने का काम किया । इस पूरी प्रक्रिया में शुरू से लेकर आखिर तक आम मतदाता बार-बार छला जाता रहा । हालात धीरे-धीरे ऐसे हो गए कि पढा-लिखा ,शिक्षित और जागरूक मतदाता धीरे धीरे खुद को मतदान के प्रति उदासीन और फ़िर बिल्कुल अलग कर बैठा ।
आजादी के बाद बनी तमाम राजनीतिक पार्टियों के गठन को यूं तो आम मतदाता के लिए अनेकों बिकल्प की निरंतर उपलब्धता के रूप में लिया जाना चाहिए था ।किंतु बडे दलों के लगातार होते विघ्हटन , राजनीति में गैर राजनीतिक कारकों का , वर्चस्व , राजनीतिज्ञों में बढती अवसरवादिता , सत्ता और धन का बढता तालमेल जैसे कारणों ने आम मतदाता के सामने एक ऐसा दलदल खडा कर दिया कि उसे हर स्थिति में अपनी हालत उसमें डूबते जाने जैसी लगी । भारतीय संविधान में निहित प्रस्तावना, लोकतांत्रिक परंपराओं का सम्मान , कानूनी प्रक्रियाओं के प्रति निष्ठा और सबसे अहम आम जनता के प्रति जिम्मेदारी और सेवा की भावना की निरंतर होती अवहेलना ने शासन को निरंकुश किया और शासित को बुरी तरह निराश ।
इन तमाम परिस्थितियों के बीच संविधान में नए अनुच्छेदों का निर्माण कदाचार , भ्रष्टाचार ,दल-बदल , आदि से निपटने के लिए बने बनाए गए कानूनों और प्रावधानों का प्रभाव और परिणाम भी जब शून्य जैसा आया तो फ़िर आम जनता से ये अपेक्षा रखना कि वो अपने मताधिकार का प्रयोग करके स्थिति बदले देगी " अतिश्योक्ति "जैसा लगता है । भारतीय चुनाव प्रणाली भी कई नई तकनीक और साधनों से लैस होते रहने के बावजूद आम मतदाता का विश्वास खोती गई । मतदाता पहचान पत्र की अनिवार्यता , इलैक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों का प्रयोग , उम्मीदवारों द्वारा अपनी संपत्ति तथा अन्य ब्यौरों का सार्वजनिक करना जैसे तमाम उपाय नाकाफ़ी साबित हुए । आम लोगों को इस बात के लिए प्रोत्साहित करना होगा कि वे अपने जनप्रतिनिधियों से लगातार सवाल करते रहे , और उन्हें उत्तर देने के लिए विवश करें । सरकार द्वारा उनके जनकल्याण के लिए उन प्रतिनिधियों को या उनके द्वारा दी जा रही राशि की एक एक पाई का हिसाब लेने के लिए तैयार करना होगा ।
आज चुनाव प्रणाली में आमूलचूल परिवर्तन की आवशयकता महसूस की जा रही है । छोटे से छोटे तथा शीर्ष स्तर तक के चुनाव में धन का दुरूपयोग , शराब , हथियारों , पैसों तथा अन्य वस्तुओं के उपयोग से पूरे चुनावी परिदृश्य को बदलने की कोशिशों का कारगर तोड अब तलाशना ही होगा । प्रत्यक्ष या सीधे मतदान के अन्य विकल्पों को ढूंढ कर अपनाना होगा । न सिर्फ़ चुनाव प्रणाली बल्कि सरकार के गटन के लिए अब तक अपनाई जा रही प्रणालियों का भी आकलन विश्लेषण करना होगा ताकि ये मंडी बाजार सजा के प्रतिनिधियों की खरीद फ़रोख्त के खेल पर अंकुश लगाया जा सके । अब समय आ चुका है कि ,सभी को राजनीति की सफ़ाई के लिए अपने भविष्य को बचाने और बनाने के लिए खुद राजनीति में आना होगा । अब इसे अछूतों की तरह , अब इसे एक लाईलाज़ बीमारी मान कर , और एक गैर /गौण विषय मान कर नहीं छोडा जा सकता , कतई नहीं ।
आपके लेख में व्यक्त विचारों से पूर्णत: सहमत हूँ.
जवाब देंहटाएंश्रीमान जी, क्या आप तीसहजारी अदालत से जुड़ी एक छोटी-सी मदद कर सकते हैं.यदि हाँ, तब कल किस समय आपको फ़ोन करना उचित होगा. थोड़ी देर पहले किया था तब किसी महिला ने बताया फ़ोन ऊपर की मंजिल पर ही भूल गए हैं. कभी आपको समय मिले तब हमारे ब्लोगों का अवलोकन करके हमारा ज्ञानरुपी प्रकाश करें.
प्रिय रमेश जी ,
जवाब देंहटाएंजैसा कि मैंने आपको अभी फ़ोन पर बता दिया है और उसी अनुरूप मुझे उम्मीद है कि आप तीस अप्रैल को कार्यक्रम में अवश्य पहुंचेंगे और मेरे साथ ही अन्य मित्रों से मिलने का मौका भी आपको मिलेगा
प्रिय रमेश जी ,
जवाब देंहटाएंजैसा कि मैंने आपको अभी फ़ोन पर बता दिया है और उसी अनुरूप मुझे उम्मीद है कि आप तीस अप्रैल को कार्यक्रम में अवश्य पहुंचेंगे और मेरे साथ ही अन्य मित्रों से मिलने का मौका भी आपको मिलेगा
राजनीति के परे कुछ भी नहीं होता। गैर राजनैतिक होना भी एक राजनीति है। राजनीति समाज को नियंत्रित करती है। इसलिए समाज परिवर्तन बिना राजनीति के संभव नहीं है।
जवाब देंहटाएंश्रीमान जी, समय के साथ-साथ अपनी प्रोफाइल में बदलाव कर दिया करें. मेरे विचार में अच्छा होता है. जैसे-.न्यायमंदिर में फिलहाल कार्यरत.. या .न्यायमंदिर ..ककडूमा में फिलहाल कार्यरत.. आपके विचार्त्मक सुझाव ठीक लगे और स्वस्थ्य ठीक रहा तब जरुर आने का प्रयास करूँगा. वैसे शरीर अब इतना साथ नहीं देता है. अगर किसी तरह से हिम्मत करके आ भी जाता हूँ तब दो-तीन दिन तक थकान ही नहीं उतरती है.कभी आपको समय मिले तब हमारे ब्लॉग "सच का सामना" का अवलोकन जरुर करें.
जवाब देंहटाएंरमेश जी
जवाब देंहटाएंप्रोफ़ाईल में तीस हज़ारी इसलिए लिखा है क्योंकि वही मेरा स्थाई कार्यालय और मुख्यालय भी है , अन्य सभी जिला अदालतें भी कार्यक्षेत्र में ही आते हैं । आपसे एक आग्रह है कि कृपया आपसी संवाद के लिए मेल पते का उपयोग किया करें , क्योंकि इससे पोस्ट पर आने वाले अन्य पाठकों को असुविधा होती है । आशा है आप मेरा मंतव्य समझ गए होंगे । स्नेह बनाए रखिएगा
विचारणीय आलेख....
जवाब देंहटाएंआपने सही कहा अजय भाई.... लेकिन मेरा मन्ना है की साथ ही साथ हमें भी सबसे पहले अपने अन्दर घर कर गए भ्रष्टाचार को समाप्त करना पड़ेगा... हम माने या ना माने... लेकिन कहीं ना कहीं इस भ्रष्टाचार को पालने पोसने में सबसे ज्यादा ज़िम्मेदार इस देश का आम नागरिक ही है. सारे भ्रष्टाचारी इसी दुनिया का हिस्सा होते हैं... जिसे मौका मिलता है वही भ्रष्टाचार में लिप्त हो जाता है...
जवाब देंहटाएंजो साफ-सुथरे लोग इसमें नई पहल करते दिख रहे हैं,उन्हें मत देना भी सीखना होगा।
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