पिछले कुछ दिनों मे भारतीय रेल से जुडी ,एक के बाद एक कई घट रही कई घटनाएं, दुर्घटनाओं ने एक बार फ़िर रेल यात्रा के दौरान सुरक्षा के मुद्दे को सामने ला दिया है। और राजधानी एक्सप्रेस को नक्सलियों द्वारा पूरी तरह से अपहर्त कर लेने की ताजातरीन घटना ने तो जैसे जता दिया है कि स्थिति अब कितनी दयनीय हो गई है। इस तरह की दु:साहसिक वारदात बेशक पहली बार हुई हो, और ये भी कि ऐसा बार बार न हो सके, किंतु इतना तो तय है कि रेल दुर्घटनाओं मे पिछली आधी शतब्दी में कोई कमी न आना ये संकेत कर दे रहा है कि भारतीय रेल अब भी सुरक्षित रेल यात्रा के एक गंभीर अनिवार्य शर्त को पूरा कर पाने में पूरी तरह से विफ़ल रही है॥रेल दुर्घटनाओं का जो आंकडा रहा है वो सरकारी होने के कारण ,अपने आप में ही भ्रमित करने वाला और हमेशा ही अविश्वसनीय रहा है। किंतु स्थिति का अंदाजा सिर्फ़ इस बात से ही लगाया जा सकता है कि मोटे तौर पर इतना कहना ही काफ़ी होगा कि प्रति सप्ताह रेलों के परिचालन में अनियमितता , उनकी सुरक्षा में बरती जा रही घोर लापरवाही , यात्रियों के साथ किये या होने वाली अमानवीय घटना की कोई न कोई वारदात हो ही जाती है। फ़िर चाहे वो किसी भी रूप में, किसी भी स्तर पर हो।इन घटनाओं, दुर्घटनाओं मे जानमाल की हानि की बिल्कुल ठीक ठीक सूचना न भी उपलब्ध हो तो भी ये बहुत आसानी से पता चल जाता है कि आज भी रेल यात्रा को बेहद ही असुरक्षित और कष्टदायी ही समझा जाता है।अब से एक दशक पहले रेलवे से जुडी सभी कमियों, कमजोरियों, दोषों ,अपूर्ण योजनाओं और नहीं पूरे किये जा सकने वाले सुधार उपायों के लिये बजट का नहीं होना या संस्धानों की कमी को ही जिम्मेदार ठहरा कर इतिश्री कर ली जाती थी । किंतु अब जबकि ये प्रमाणित हो गया है कि रेलवे न सिर्फ़ लाभ में बल्कि बहुत ही मुनाफ़े में चल रही है तो भी सुरक्षित यात्रा के अनिवार्य लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर पाना बहुत ही अफ़सोसजनक बात है ।और बहुत बार ऐसी दुर्घटनाओं के बाद जांच आयोगों की रिपोर्टों, समीक्षा समितियों की अनुशंसाओं से ये बात बिल्कुल स्पष्ट है कि भारतीय रेलवे न तो इन दुर्घटनाओं से कोई सबक लेती है और न ही भविष्य के लिये कोई मास्टर प्लान तैयार कर पाती है। इसे देख कर तो ऐसा ही लगता है कि रेलवे प्रशासन के लिये सुरक्षित यात्रा कोई मुद्दा है ही नहीं, सो उस पर क्यों सोचा, विचारा जाए।जहां तक इन दुर्घटनाओं के कारणों की बात है तो आंकडों के अनुसार वर्ष 2008-2009 मे कुल 177 दुर्घटनाओं मे से लगभग 75 दुर्घटनाएं खुद रेलवे के कर्मचारियों की लापरवाही के कारण हुई है । इससे पहले के वर्षों मे भी रेलवे स्टाफ़ की गडबडी के कारन लगभग 52 % दुर्घटनाएं हुई हैं। इनके अलावा दुर्घटनाओं की दूसरी प्रमुख वजह रही है साजिश और तोडफ़ोड की घटनाएं। आंकडों के अनुसार ऐसी घटनाऒ में दिनोंदिन बढोत्तरी ही हुई है। ऐस नहीं है कि सरकार या रेलवे प्रशासन की ओर से कभी इस दिशा में कोई विचार नहीं किया गया, बल्कि वर्ष 1998 में एक रेलवे सुरक्षा समिति बनी जिसने सिफ़ारिश की , कि रेलवे कर्मचारियों के कामकाज में सुधार लाया जाए तथा उन्हें विशेष प्रशिक्षण देने की व्यवस्था हो । और इसके लिये वर्ष 2013 को लक्ष्य के रूप में रखा गया और ये तय किया गया कि तब तक एक फ़ूलप्रूफ़ सिस्टम विकसित किया जाए ।किंतु वास्तविकता क्या रही इसका अंदाजा इस तथ्य से ही लगाया जा सकता है कि रेलवे मंत्रालय की लापरवाही से पिछले पांच वर्षों से सद्स्य सिग्नल की नियुक्ति नहीं की जा सकी है। ज्ञात हो कि संरक्षा से जुडे इस महत्वपूर्ण पद पर कैबिनेट ने 2005 में ही अपनी स्वीक्रति दे दी थी । और इसके ऊपर से ये कि वर्ष 2008-2009 में संरक्षा मद में 1500 करोड रुपए का बजट आवंटन हुआ था जबकि 2009-2010 के लिये न जाने क्या सोच कर इसे महज 900 करोड रुपए कर दिया गया।इन दुर्घटनाओं के लिये जिम्मेदार और जिस एंटी कौलिजन डिवाइस ,ट्रेन प्रोटेक्शन एंड वार्निंग सिस्टम ..आदि जैसी महत्वपूर्ण परियोजनाएं ..न जाने कब से लटकी या लटकाई जा रही है।इन तथ्यों और आंकडों को देखकर यदि आम आदमी के मन में ये आशंका उठती है कि एक तरफ़ उनको को नयी नयी आधुनिक , ट्रेनों, सुविधायुक्त रेलवे कोचों, दोरंतो और बुलेट जैसी द्रुतगामी रेलों का ख्वाब दिखाया जा रहा है जबकि मात्र सुरक्षित रेल यात्रा का बुनियादी अधिकार ही नहीं दिलवाया जा सका है । निकट भविष्य में सरकार इन दुर्घटनाऒं से कोई सबक लेगी ऐसी उम्मीद तो कतई नहीं दिखती, अलबत्ता मुआवजा राशि की घोषणा की औपचारिक खानापूर्ति जरूर करती रहेगी । हालांकि इन यात्रा बीमा की राशि और मुवावजे राशि को संबंधित लोगों द्वारा प्राप्त हो पाना भी अपने आप में एक त्रासदी से कम नहीं है।
सोमवार, 26 अक्तूबर 2009
रेल दुर्घटनायें : एक नियमित नियति
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रेल दुर्घटना
एक आम आदमी ..........जिसकी कोशिश है कि ...इंसान बना जाए
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सही कहा है अजय भाई आपने ...
जवाब देंहटाएंनमस्कार
एक तथ्यपरक आलेख विषय के विश्लेषण के साथ। पढ़कर काफी जानकारियां मिलीं।
जवाब देंहटाएंमुद्दा विचारणीय है
जवाब देंहटाएंबी एस पाबला
एक रेल दुर्घटना के तो हम स्वयं भुक्त भोगी हैं,
जवाब देंहटाएंहमारी आई नही थी, इस लिए बच गये।
वास्तविकता तो यह है कि केंद्र औऱ राज्य सरकारों की विफलता गवर्नेस के मामले में सभी क्षेत्रों में बढ़ती जा रही है। वह वक्त की चुनौतियों के लिए देश को तैयार करने में सक्षम नहीं रही हैं। इस में किसी एक दल को दोष देना उचित नहीं है। सभी दलों का रवैया कमोबेश एक जैसा है। यह बढ़ती हुई अराजकता के चिन्ह हैं। जो निकट भविष्य में व्यव्स्था के संपूर्ण बदलाव की आवश्यकता निरुपित करते हैं।
जवाब देंहटाएंदिनेश राय द्विवेदी जी के बात से पूरी तरह सहमत । परिवर्तन की शुरुआत हो चुकी है । अभी संख्यात्मक परिवर्तन हो रहा है यह और बढेगा जैसे कि दुर्घटनाये, दंगे , आक्रोश . वगैरह जो शीघ्र ही गुणात्मक मे बदल जायेगा ।
जवाब देंहटाएंसही कह रहे हो!
जवाब देंहटाएंविचारणीय मुद्दा
जवाब देंहटाएंहम नियति के भरोसे ही बैठे हैं .. क्यूंकि जिन्हें चिंता करनी चाहिए,वो निश्चिंत हैं .. और आप इतना बोझ लिए घूम रहे हैं !!
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