इसी विषय पर हाल ही में बने एक पिक्चर का पोस्टर चित्र , गूगल से साभार |
बहुत पहले ही भारतीय राजनीतिक के चरित्र को भली भांति परखते हुए किसी ने ठीक कहा था कि भारतीय राजनीति में धर्म ,जाति ,भाषा ,के आधार पर रखे गए विशेष प्रावधानों को वोट बैंक की तरह इस्तेमाल होने के कारण यही आशंका बनी रहेगी कि इसका उपयोग समय समय पर सत्ता के हितों के लिए किया जाता रहेगा । न्यायपालिका ने सरकार और राजनीतिज्ञों के इसी मंसूबे को भांप कर अपने एक महत्वपूर्न निर्णय में ये व्यवस्था दी कि किसी भी सूरत में आरक्षण की सीमा पचास प्रतिशत से अधिक नहीं होनी चाहिए ।
यहां ये देखना बहुत महत्वपूर्ण है कि बीते दो वर्ष में न सिर्फ़ आरक्षण बल्कि एक विशेष वर्ग में आरक्ष्ण को लेकर कई बार पूरे उत्तर भारत की यातायात व्यवस्था को ठ्प्प किया गया । सरकार और प्रशासन की तटस्थता व अक्रियशील रहने का खामियाज़ा न सिर्फ़ यातायात व्यवस्था के चरमराने तक ही भुगतना पडा बल्कि बहुत भारी आर्थिक नुकसान का दंश भी झेलना पडा । यहां तक कि ,बाध्य होकर न्यायपालिका को ही सरकार को झिंझोड कर उठाना पडा ।
इस बार इस मामले का ज्यादा तूल पकडना स्वभाविक है क्योंकि इस बार आधार जाति से अलग धर्म की ओर मुड गया है । देश के राजनीतिज्ञों के द्वारा अतिधर्मनिरपेक्षतावाद की नीति के तहत बेशक भारत की छवि को मांजने की जबरन कोशिश हो रही है किंतु धर्म , धार्मिक मुद्दों , चिन्हों , धर्म स्थलों को लेकर समाज कितना संवेदनशील है यह किसी से छुपा नहीं है । अल्पसंख्यकों को प्रस्तावित इस आरक्षण का आधार सरकार द्वारा अल्पसंख्यकों की स्थिति पर रिपोर्ट हेतु गठित सच्चर आयोग की रिपोर्ट ही बनी है । इसमें कोई संदेह नहीं कि आज विश्व के अन्य मुस्लिम बाहुल्य देशों के मुस्लिम समाज की स्थित से बहुत बेहतर होने के बावजूद आज भी पिछडेपन और अलगाव का दंश झेल रहा है । शिक्षा, रोजगार, सामाजिक हिस्सेदारी व प्रभाव आदि हर क्षेत्र में अल्प संख्यकों की स्थिति संतोषजनक से नीचे है । बेशक इसकी एक बहुत बडी वजह भी कहीं न कहीं वे खुद ही है ।
अल्पसंख्यकों को आरक्षण , यानि धार्मिक अल्पसंख्यकों को , उनके पिछडेपन से विकास की ओर लाने के लिए एक पूरक प्रयास, थोडी देर केलिए इसे दरकिनार करके सिर्फ़ आरक्षण व्यवस्था पर बात की जाए तो पता चलता है कि संविधान में तात्कालिक उपचार के रूप में अपनाई गए इस व्यवस्था को इतनी बार बुरी तरह से तोडा मरोडा गया कि ये पिछडों के विकास और स्तर के मूल उद्देश्य से ही भटक कर रह गई । सबसे अधिक चिंताजनक बात ये है कि देश के सभी योग्यता सिद्ध करने वाली चुनौतियों को सहज़ बना लेने के बावजूद भी कभी भी ये महसूस नहीं हो सका कि आरक्षण व्यवस्था ने सामाजिक संतुलन में महती भूमिका निभाई । इसके विपरीत इसने जातियों को उपजातियों तक से अलगाव को प्रोत्साहित किया । दूसरी तरफ़ इस व्यवस्था का लाभ पाने वालों को सामान्य गैर आरक्षित वर्ग से एक अघोषित ताना मिलता रहा ।
आज आरक्षण की व्यवस्था ने युवाओं में दो बातें तो पूरी तरह स्थापित कर ही रखी हैं । नौकरियों , दाखिलों , अन्य चुनौतियों में आरक्षण की व्यवस्था यानि अवसरों का बिल्कुल आधा हो जाना , जिसका प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष प्रभाव बाद में उस संस्थान की उत्पादकता पर भी पडता है । दूसरी ये कि जो इस व्यवस्था के लाभ पक्ष की ओर हैं क्या उनकी स्थिति और स्तर ने उनके वर्ग की स्थिति को मजबूत बनाकर उभारा है । कोई भी तात्कालिक उपाय इतनी देर तक लादे नहीं चलना चाहिए कि ऐसा लगने लगे कि यही स्थाई व्यवस्था होकर रह गई है ।
समाजशास्त्री अपने अध्य्यन और निष्कर्ष के आधार पर किसी भी देश में सामाजिक संरक्षण के रूप में आरक्षण की व्यवस्था के लिए धर्म , जाति व भाषा से इतर क्षेत्र को वरीयता दिए जाने की बात करते हैं । सबसे पहला आधार आर्थिक पिछडापन और पीडित गरीब परिवार के जीवन स्तर को एक मानक स्तर पर पहुंचते ही उसके लिए ये व्यवस्था समाप्त हो जानी चाहिए । हालांकि पिछले दिनों योजना आयोग के "गरीब " की परिभाषा ने समाजशास्त्रियों को पुन: सोचने पर विवश किया होगा । इसके अलावा शारीरिक मानसिक विकलांगता , विशिष्ट क्षेत्र , खेल ,कला आदि में प्रदर्शन करने वालों , समाज के लिए कुछ अनुकरणीय करने वालों के लिए इस व्यवस्था को अपनाया जाना चाहिए । लिंग भेद व कन्या भ्रूण हत्या के मद्देनज़र वे महिलाओं को न सिर्फ़ विशेष संरक्षण बल्कि ज्यादा प्रभावी अधिकार देने की बात कहते हैं । भारत का सामाजिक तानाबाना प्राचीनकाल से ही बहु-धर्मीय, बहुजातीय व बहुक्षेत्रीय रहा है , इसलिए अब ये बहुत जरूरी हो जाता है कि नीतियां और व्यवस्थाएं समाज को जोडने वाली बनें ,न कि तोडने वाली । बहरहाल , इस नए अल्पसंख्यक आरक्षण के सियासी और सामाजिक परिणामों की प्रतीक्षा पूरे देश को रहेगी ।