देसी पेय पदार्थों की लुप्त होती संस्कृति ...आज का मुद्दा
दिनोंदिन बदलते हुए इस भौगोलिक परिवेश में अब , गर्मियों के दिनों का या कहा जाए कि ग्रीष्म ऋतु का विस्तार सा हुआ है फ़रवरी के अंतिम सप्ताह से शुरू होकर नवंबर तक खिंचने वाली गर्मी , न सिर्फ़ शहरों का बल्कि ग्रामीण क्षेत्रों का भी हाल बुरा करके रखती है । एक समय ऐसा आता है जब पूरा मैदानी इलाका तपते हुए तवे के समान हो जाता है । ऐसा नहीं कि अबसे पहले इतनी गर्मी नहीं हुआ करती थी , बल्कि पहले तो महीनों तक लू झुलसाए रखता था लोगों को । लेकिन तबसे लेकर एक और बडी तब्दीली आई है लोगों की दिनचर्या में जिसने बहुत ही परिवर्तित किया है स्थितियों को और भारत की कई परंपराओं को ।
एक समय हुआ करता था , जब गर्मियों से लडने के लिए , खुद को सन स्ट्रोक , प्यास , और लू आदि की चपेट में आने के लिए देसी परंपराओं की पुरातन खानपान व्यवस्था का ही सहारा लिया करते थे । नींबू पानी या शिकंजी, बेल का ठंडा शर्बत , रूह अफ़ज़ा जैसे जाने कितने ही शर्बत ,सत्तू , जलजीरा , दही , लस्सी , मट्ठा और इन जैसे जाने ही कितने ही पेय पदार्थों को नियमित रूप से दिनचर्या का हिस्सा बना लिया जाता था ताकि , शरीर में पानी की कमी को कम किया जा सके और तासीर भी ठंडी रहे । इन देसी शीतल पेयों में हर एक न सिर्फ़ अपने स्वाद में बेहतरीन और अलग था बल्कि स्वास्थय के लिहाज़ से भी बहुत ही लाभदायक था । गर्मियों के दिनों में तो इसका सेवन एक ढाल की तरह ही काम किया करता था । समय बदला और स्क्वैश ने दस्तक थी , सभी ग्रीष्मकालीन फ़लों , के रस को बोतलबंद रूप में घर घर तक पहुंचाने का सिलसिला । चलिए ये भी ठीक था , कम से कम शर्बत के बहाने से मौसमी फ़लों के स्वाद के साथ ठंडा पानी शरीर में पहुंचता तो था ।
वैश्वीकरण के दौर के शुरू होते ही जो कुछ बडी तब्दीलियां आईं उनमें से एक था , भारत के घरों , दफ़्तरों , दावतों , दुकानों तक शीतल पेय पदार्थों की शुरूआत । घर आए अतिथि के स्वागत की परंपरा जो पहले शर्बत से शुरू हुआ करती थी वो अब शीतल पेयों की बोतलों में बंद होने की तैयारी की गई थी । बावजूद इस बात के कि पिछले कई सालों से लगातार ये बात उठ रही है कि इन शीतल पेय की बोतलों में कीटनाशक के साथ ही और भी अन्य रसायन ज़हर का काम कर रहे हैं । आज के बच्चों में , मोटापा , चिडचिडापन , रक्तचाप आदि की समस्या के लिए मुख्य रूप से इन शीतल पेय पदार्थों का सेवन ही है । जिस तरह से अलग अलग बहानों से इन शीतल पेय की कंपनियों ने विज्ञापन के बहाने से अपने पसंदीदा चरित्रों से उनका प्रचार करवाकर बच्चों तक को इसकी आदत लगाई है उससे स्पष्ट दिखता है कि ये सब एक सोची समझी हुई आर्थिक नीति के तहत ही किया जा रहा है ।
इस पूरे प्रकरण में जो सबसे ज्यादा अफ़सोसजनक बात है वो है सरकार व प्रशासन की उदासीनता । हालांकि राजस्थान , बिहार आदि जैसे कुछ प्रदेश इससे थोडे दूर हैं किंतु अन्य सभी शहरों , नगरों और अब तो ग्रामीण क्षेत्रों में भी पूरी योजना के साथ , पारंपरिक पेय पदार्थों के विकल्प के रूप में इन शीतल पेय पदार्थो को थोपने की साजिश रची जा रही है , किंतु सरकार , और प्रशासन को इस बात जरा भी चिंता नहीं है । जबकि असलियत ये है कि आज भी लोगों को शिकंजी ,जलजीरा , थम्स अप और लिम्का से ज्यादा पसंद आता है । अगर सरकार थोडी सी कोशिश करे तो शीतल दुग्ध पदार्थों , जैसे दूध , दही , लस्सी , मट्ठा आदि के विक्रय को बढावा देकर फ़िर से उनको बाजार से लडने लायक खडा किया जा सकता है । इस क्षेत्र में व्यवसाय कर रही कंपंनियों को भी इस बाजार की असीम संभावना को देखते हुए इस ओर ध्यान देना चाहिए । और आम लोगों को ये सोचना चाहिए कि आज शीतल पेय पदार्थों और फ़लों के जूस आदि में किस तरह से जान से खिलवाड करने वाले रसायनों का प्रयोग किया जा रहा है , बर्फ़ और पानी की गुणवत्ता संदेह में है , ऐसे में यदि घर में थोडे से श्रम से उससे बेहतर चीज़ उपलब्ध हो रही है तो वही श्रेयस्कर है । देखते हैं कि सरकार कब चेतती है
अहा...अजय आज का मुद्दा तो यकीनन सोचने पर मजबूर करता है कि कैसे अपने देसी पेय फिर से सबके लोकप्रिय हो जाएँ...
जवाब देंहटाएंदेशी पेय को फिर से बाज़ार में लाने के लिए हमें कोशिश करनी होगी क्योंकि बाज़ार तो मांग पर निर्भर करता है | अच्छा आलेख , बधाई
जवाब देंहटाएंसरकार क्यों चेतेगी भाई!
जवाब देंहटाएंउस को इस से क्या मिलेगा?
काश!! हम अभिमान करना जानते अपनी देशी वस्तुओं और खाद्य एव पेय पर..इनकी मांग करते तो कैसे न बाजार परोसता इनको....मगर हाय!! पश्चिम से होड़....बाजार में खड़े होकर शिकंजी पीना भी बिलो स्टेटस होने लगा.
जवाब देंहटाएंसुनते हैं कि बाबा रामदेव ऐसा ठंडा ईजाद किये हैं कि वहिका पी के भ्रष्टाचार-विरोधी आन्दोलन की भी गर्मी निकल जायेगी.ऊ तो कई गिलास गटक भी चुके हैं !
जवाब देंहटाएंवैसे इस गर्मी में पुरानी ठंडाई याद आती है जो बारातों में पिलाई जाती थी !