शुक्रवार, 24 दिसंबर 2010

निशाने पर हैं स्वयंसेवी संस्थाएं

राजधानी दिल्ली में हाल ही में ,बच्चों की खरीद फ़रोख्त की घटना में जिस तरह से एक स्वयंसेवी संस्था की लिप्त्ता जगजाहिर हुई है उसने एक बार फ़िर से देश भर में चल रही तमाम स्व्यंसेवी संस्थाओं को सवाल के घेरे में रख दिया है ॥ ऐसा नहीं है कि ऐसे किसी घृणित काम में किसी स्वयं सेवी संस्था का नाम पहली बार आया है । वर्तमान में जिस तरह के देश के सामाजिक , राजनीतिक , प्रशासनिक हालात हैं उसमें कोई भी तंत्र कोई भी व्यवस्था इस सर्व्यापी और सर्वग्राह्य बन चुके अपराध का हिस्सा न बनने देने से खुद को रोक नहीं पाया है । मगर सबसे अधिक अफ़सोस उन व्यवस्थाओं के लिए होता है जो समाज और उसकी सेवा के नाम पर या उसके इर्द गिर्द है । इनमें से एक बहुत बडी व्यवस्था है चिकित्सा और शिक्षा , बहुत ही दुखदायी बात ये है कि आज दोनों ही व्यवस्थाएं , लालच , और धनोपार्जन का पर्याय मात्र बन कर रह गई हैं ।
ब्लॉग से डोमेन की ओर अग्रसर हूं

मंगलवार, 21 दिसंबर 2010

खिलाडियों की उपेक्षा/अपमान ...देश का खेल चरित्र




यूं तो इस देश में खिलाडियों की उपेक्षा का अपना एक अलग ही खेल के समानांतर ही एक इतिहास है , मगर जब देश के खिलाडी सबको चौंकाते हुए राष्ट्रमंडल खेलों में या किसी बडे अंतरराष्ट्रीय खेल प्रतियोगिता में पदकों से देश की शान बढाते हैं तो लगता है कि शायद इस बार के बाद से इस देश को , सरकार को और प्रशासन को इतनी तमीज आ जाए कि , संघर्षशील का न सही विजेताओं का ही और सम्मान न कर पाए तो न सही मगर इतना तो तय कर ही सके कि उनका अपमान न हो । ये अपमान हर बार पिछली बार से अधिक ज्यादा असहनीय सा लगता है न सिर्फ़ उन खिलाडियों को बल्कि आम जनता को भी ।

यदि ये कहा जाए कि पूरी दुनिया में हॉकी के जादूगर के नाम से विख्यात भारतीय खिलादी मेजर ध्यानचंद को भी सिर्फ़ खेल दिवस के बहाने घडी दो घडी याद करके बस औपचारिकता निभा ली जाती है तो कोई गलत नहीं होगा । जिस हॉकी टीम को ध्यानचंद और उनके समकालीनों ने अपनी मेहनत और श्रम से सींच कर बुलंदियों पर पहुंचाया था आज वो न सिर्फ़ अंदरुनी बल्कि बाहरी सियासी कूटनितिक लडाई का मैदान बना हुआ है । और अब फ़िर कभी उस समय को भारतीय हॉकी खिलाडी पा सकेंगे ये एक दिवास्वप्न ही लगता है । न सिर्फ़ ध्यान चंद बल्कि अपमानित होने वाली खिलाडियों की सूची में उडन परी पीटी उषा , ओलंपिक पदक विजेता पहलवान सुशील , और अब हाल ही में एशियाई खेलों में स्वर्ण पदक विजेता धावक सुधा सिंह का नाम भी शामिल हो गया है । इस खिलाडी के साथ तो ये हुआ कि प्रदेश सरकार द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में जिसमें खुद सुधा सिंह को ही मुख्य अतिथि के रूप में बुलाया गया था , उस प्रदेश के खेल मंत्री अयोध्या प्रसास पाल ने ही नहीं पहचाना .बल्कि प्रदेश स्तर के खेल उच्चाधिकारियों तक ने उनकी उपेक्षा की । इस घटना से वे इतनी व्यथित हुई कि उन्होंने फ़ैसला किया कि अब वे कभी उस प्रदेश से नहीं खेलेंगी , किंतु मंत्री और अधिकारी द्वारा खेद जताने पर वे मान गई हैं ॥इससे भी हालिया मामला ये हुआ है कि सानिया नेहवाल जो अभी विश्व की दो नंबर की बैडमिंटन खिलाडी हैं, आधिकारिक साईट पर उनके विषय में कोई सूचना ही नहीं अद्यतित की गई है । ये भी नहीं कि उन्हें हाल ही में खेल रत्न से नवाज गया है । ये सिलसिला अभी आगे भी बदस्तूर चलने की संभावना है ।

इन खबरों के अलावा खिलाडियों की दुर्दशा की और भी बहुत सारी खबरों में जो अक्सर सुनने को मिलती है वो ये कि खेलों में सक्रियता की कमी होते ही या फ़िर खेल के मैदान से हटते ही उन खिलाडियों और उनके परिवार की हालत भुखमरी से जूझने जैसी हो जाती है । यदि इन खबरों और खिलाडियों की ऐसी हालत के बाद भी देश के किसी कोने में कोई सायना , कोई सुधा , कोई उषा यदि अब भी जाने कितनी ही विपरीत परिस्थितियों में खेल के नाम पर अपना सर्वस्व झोंक रही है तो ये इस देश की खुशकिस्मती है और खिलाडियों की शायद बदकिस्मती ही बन जाएगी कभी न कभी ।

बुधवार, 15 दिसंबर 2010

सावधान ! न्याय व्यवस्था संक्रमणकाल में है ... अजय कुमार झा






ऐसा कहा जाता है कि , यदि सिर्फ़ एक गांठ को धीरे से खींच दिया जाए तो फ़िर परत दर परत सब उघडने लगता है । आजकल कुछ कुछ ऐसा ही देखने को मिल रहा है भारतीय न्यायपालिका में । ऐसा लग रहा है मानो एक होड सी लग गई है , रोज कोई न कोई ऐसी घटना , कोई न कोई ऐसा खुलासा , और कोई न कोई ऐसा वक्तव्य आम जनता के सामने आ रहा है जो आम जनता के इस विश्वास को और भी पुख्ता कर रहा है कि ...नहीं अब न्यायपालिका में भी सब कुछ ठीक नहीं है और वहां भी संक्रमणकाल तो शुरू हो ही चुका है ..शायद बहुत पहले ही शुरू हो चुका था मगर अब घाव रिस रहा है और मवाद बाहर आ रहा है ।

ज्ञात हो कि , अभी तो एक विवाद थमा भी नहीं था , हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने पहले एक अधीनस्थ उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के आचरण और क्रियाकलापों के संदिग्ध दिखने जैसी टिप्पणी की , जिसे वापस लेने के लिए दायर की एक याचिका में तो जैसे न्यायपालिका खुद ही अपने ऊपर उठ रही उंगलियों से आजिज आकर खीज कर ऐसी कडी भाषा में अपने विचार व्यक्त किए कि न सिर्फ़ न्याय क्षेत्र से जुडे कानूनविद ..सरकार , प्रशासन सभी हतप्रभ रह गए । इस मामले की पृष्ठभूमि और दूरगामी परिणामों पर अभी बहस चल ही रही थी कि इसी बीच एक बार फ़िर सबका ध्यान पुन: न्यायपालिका की ओर चला गया । एक निवर्तमान न्यायमूर्ति ने सार्वजनिक रूप से वक्तव्य दिया कि , जिस सूचना की जानकारी न होने का दावा एक पूर्व न्यायाधीश कर रहे हैं उस बारे में उन्हें न सिर्फ़ मौखिक बल्कि लिखित रूप से दी गई थी ।

इस घटना ने एक बार फ़िर कई गंभीर प्रश्न व्यवस्था के सामने रख दिए हैं । पहला तो ये कि , तो आखिर जनता ये मान कर चले अब कि , कोई भी स्तर आज भ्रष्टाचार , कदाचार , घूसखोरी जैसी स्थापित हो चुकी भारतीय कार्यप्रणाली से अछूते नहीं हैं अब । दूसरा और ज्यादा मह्त्वपूर्ण ये कि , आखिए वो कौन सा दबाव , वो कौन सी वजह थी जो न्यायमूर्ति को ये खुलासा तब करने से रोक रही थी जब वो उन्हीं मुख्य न्यायाधीश के सहकर्मी थे । तो क्या आम जनता यही समझे कि , न्यायपालिका तक में वरिष्ठ और शक्तिशाली सहकर्मी के खिलाफ़ बोलने का साहस नहीं होता है और वे भी आम कर्मचारी की तरह डरे और सिकुडे हुए रहते हैं । आज अचानक ही क्यों और कैसे उन्होंने ये सहजता से कह दिया ।

आम आदमी जो पहले ही प्रशासन , राजनीतिज्ञों और अब तो उसमें मीडिया की साठ गांठ से आज तक निराश और क्षुब्ध था अब न्यायपालिका को संक्रमित होता देख कर , वो भी सर्वोच्च स्तर तक , को देख कर आक्रोशित और स्तब्ध है । यदि अब भी जल्दी ही सब कुछ पूरी तरह न सही मगर संतोषजनक स्तर तक ठीक नहीं किया जा सका तो फ़िर आने वाला समय तो आम जनता खुद ही तय करेगी कि उसे करना क्या है , सहना क्या है ? लेकिन सबसे बडा यक्ष प्रश्न यही है कि ये करेगा कौन ????


रविवार, 12 दिसंबर 2010

नो वर्क नो मनी ..बंद कर दिया जाए संसद सत्र को अब





पिछले बीस दिनों से समाचार पत्रों पर जनता एक ही सुर्खियां पढती आ रही है कि गतिरोध जारी ..संसद आज भी नहीं चली । और पूरक खबर के रूप में जो खबर होती है कि आम जनता का फ़लाना ढिमकाना पैसा व्यर्थ चला गया । यहां आम आदमी सोचता है कि आखिर उसका पैसा क्यों व्यर्थ चला गया ..उसका वो पैसा जो सरकार ने ना जाने कौन कौन से करों की आड में , कौन कौन सी सुविधाओं को देने , के एवज में बिल भुगतान के रूप में उससे वसूला है ..और उसने वो उस हिस्से में से दिया है जिसे कमाने के लिए उसे जाने कितनी मेहनत करनी पड रही है । एक नौकरी पेशा फ़िर चाहे वो निजि क्षेत्र का हो या सार्वजनिक क्षेत्र का , वो ये समझने में असमर्थ रहता है कि , जब उसके कार्यकाल में उसके एक दिन के अवकाश के लिए उसे या तो छुट्टी देनी पडती है या फ़िर उसकी तनख्वाह में से उसे उस दिन का पैसा कटवाना होता है तो फ़िर उसी जनता के प्रतिनिधि या उससे भी बढकर जनसेवकों द्वारा लगातार बीस तीस दिनो तक काम नहीं कर पाने के बावजूद आम लोगों का पैसा क्यों व्यर्थ होना चाहिए ।

आज हर तरफ़ भ्रष्टाचार का ही बोलबाला है और इस समय तो जिस तरह से उसकी परतें खुलती दिख रही हैं उससे इसकी व्यापकता भी दिख रही है । आम जनता की नज़र में तो आज प्रशासन , न्यायपालिका , विधायिका और कार्यपालिका सब के सब कटघरे में खडे हैं । अब तो कोई भी स्तर और कोई भी अंग ऐसा नहीं बचा है जहां भ्रष्टाचार की छाया न पडी हो तो फ़िर क्या पक्ष और क्या विपक्ष । इसमें कोई शक नहीं कि आज संसद में एक अच्छे विपक्ष की तरह मौजूदा व विपक्ष भी सरकार के भ्रष्टाचार को बाहर लाने के लिए कमर कसे बैठी है । मगर फ़िर आम जनता ये भी सोच रही है कि आखिर और कितने दिनों तक इस मुद्दे पर आम जनता के लिए भविष्य के लिए तय की जाने वाली नीतियां और कानून बनाने वाले समय को बलि पर चढाया जाता रहेगा ।

इससे अलग एक बात और ये भी है कि , जिस संयुक्त संसदीय जांच समिति के गठन की मांग को लेकर आज विपक्ष अडा हुआ है क्या ये हलफ़नामा दायर कर सकता है ..कोई भी विधायिका , संसद और तमाम संबंधित प्रतिनिधि ...है कोई भी जो ये हलफ़नामा दायर कर सके कि उस जांच की रिपोर्ट में दोषी पाए गए लोगों को सजा दिलवाई जा सकेगी । या फ़िर ये कि इस घोटाले में आम जनता का जो भी पैसा डकार लिया गया है उस पैसे को उस दोषी व्यक्ति से वसूल कर देश को वापस किया जा सकेगा । या फ़िर कि ये बताया जा सकता है कि आज तक ऐसी तमाम संयुक्त संसदीय जांच समितियों की रिपोर्ट के आधार पर अमुक अमुक राजनीतिज्ञों और नौकरशाहों को सजा का फ़रमान सुनाया जा सका , इसलिए जेपीसी ही आखिरी विकल्प बचता है । इस मुद्दे पर सरकार का चाहे जो भी निर्णय हो , किंतु आए दिन संसद में जिस तरह से बार बार ऐसे ही मुद्दों पर संसद में सडक जाम जैसा नज़ारा पेश करने का जो काम देश के जनप्रतिनिधि कर रहे हैं वो न सिर्फ़ देश की जनता की आंखों में खटकने लगा है बल्कि अब तो विश्व समुदाय भी यही सोचने पर विवश है कि आखिर ये उसी देश की सर्वोच्च संस्था है जो दावा कर रहा है कि उसे संयुक्त राष्ट्र संघ में स्थाई सदस्यता चाहिए । अब वक्त आ गया है कि ...काम नहीं तो पैसा नहीं के तर्ज़ पर इन जैसे तमाम लोगों की तनख्वाह और भत्ते बंद कर देने चाहिए॥

शुक्रवार, 10 दिसंबर 2010

न्यायिक प्रक्रिया में परिवर्तन की दरकार



पिछले कुछ दिनों में जिस तरह से न्यायिक क्षेत्र में पनप रहे कदाचार व अन्य अनियमितताओं की खबरें आती रही हैं उसने एक बार फ़िर से इस चर्चा को गर्म कर दिया है कि क्या अब समय आ गया है जब पूरी न्याय प्रणाली में परिवर्तन किया जाए । कभी कभी तो बहुत सी एक जैसी घटनाओम और अपराधों के मामले में खुद न्यायपालिका अपने आदेशों और फ़ैसलों में इतना भिन्न नज़रिया दिखा दे रही हैं कि आम लोग ये समझ ही नहीं पाते हैं कि आखिर न्याय कौन सी दिशा में हुआ है । इतना ही नहीं बहुत बार तो न्यायिक आदेश की व्याख्या करते करते आम जनता को अपने साथ सरासर अन्याय होता हुआ सा महसूस हो जाता है । भारतीय न्यायिक प्रक्रिया की एक सबसे बडी कमी है उसके फ़ैसलों उसके दृष्टिकोण और उसके क्रियाकलाप पर आम आदमी द्वारा किसी भी तरह की असुरक्षित प्रतिक्रिया देने का नितांत अभाव ।

आज स्थिति इतनी बदतर है कि , आज इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने सर्वोच्च न्यायालय के सामने इस बात की अर्जी लगाई कि , कुछ दिनों पहले सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों पर भ्रष्टाचार में लिप्तता विषयक जो तल्ख टिप्पणी की थी उसे वापस लिया जाए । इस अर्जी पर उच्च न्यायालय की अरजी को खारिज करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने जो कडी फ़टकार लगाई , उसे लगाते हुए वो जरूर अभी हाल ही में हुई उस घटना को नज़रअंदाज़ कर गई जब एक वरिष्ठ अधिवक्ता ने बाकायदा गिनती करते हुए बताया था कि उन माननीय पर भी ऐसी ही टिप्पणी लागू की जा सकती थी । इससे इतर केंद्र सरकार की एक स्थाई संसदीय समिति ने भी अब पूरी तरह से इस मामले में अपनी कमर कस ली है । भविष्य में भ्रष्ठ न्यायाधीशों से निपटने के लिए सरकार कडे नियम कानून लाने का विचार कर रही है । उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति की आयु बासठ वर्ष से पैंसठ वर्ष किए जाने की सिफ़ारिश भी की गई है ।

पिछले एक दशक से न्यायपालिका की भूमिका में जिस तरह का बदलाव आया और एक स्वनिहित शक्ति का संचार उसमें आया स्वाभाविक रूप से उसमें समाज में व्याप्त वो सभी दुर्गुण आ गए तो अन्य सार्वजनिक संस्थाओं में आ जाती हैं । किंतु इस बात की गंभीरता को भलीभांतिं परखते हुए इसके उपचार में कई प्रयास भी शुरू हो गए थे ।जजेज़ जवाबदेही विधेयक का मसौदा , अखिल भारतीय न्यायिक सेवा आदि का मसौदा इन्हीं प्रयासों का हिस्सा था । ये सरकारों की अकर्मठता है या आलस्य या फ़िर कि कोई छुपी हुई मंशा कि अब तक इस दिशा में कोई भी कार्य नहीं हो पाया है । न्यायिक प्रक्रिया की खामी की जहां तक बात है तो सबसे पहले और सबसे अधिक जो बात उठती है वो न्यायिक अधिकारियों की नियुक्ति की प्रक्रिया जिसमें भाई भतीजावाद का आरोप लगता रहता है । एक ही स्थान पर नियुक्त रहने के कारण इस अंदेशे को बल भी मिल जाता है । इन्हीं सबके कारण न्यायिक क्षेत्र में परिवर्तन वो भी आमूल चूल परिवर्तन किए जाने के स्वर उठने लगे हैं ।

गुरुवार, 2 दिसंबर 2010

भ्रष्टाचार मिटाने के लिए पहले देश को ही मिटाना होगा




एक बार फ़िर सब कुछ लगभग ठीक ठाक सा चलता दिखने के बावजूद अचानक ही घोटालों , घपलों की फ़ेहरिस्त सी खुल रही है । अब तो लोगों को वर्षों पहले की नरसिम्हा सरकार की याद हो आई है ..जिस अकेली सरकार के लगभग सभी मंत्रियों ने अपने खाते में कम से कम एक बडा घोटाला तो डाला ही था । और अब इतने समय के बाद , एक बार फ़िर एक मनमोहिनी सरकार देश को घोटालों और घपलों के स्वर्ण युग में ले आई है । आम जनता प्रतिदिन बडी ही व्यग्रता से प्रतीक्षा करती है कि , देखा जाए कि आज कौन सा नया घोटाला आ रहा है पुराने घोटाले से थोडा सा ध्यान बंटाने के लिए । और भ्रष्टाचार का आलम देखिए कि देश के राजनीतिज्ञों , और प्रशासकों ,का भ्रष्टाचार तो अब ऐसी घटना है जिसका कोई संज्ञान ही नहीं लिया जाता , खुद सर्वोच्च न्यायालय ने अभी हाल ही में अपने अधीनस्थ मगर उच्च स्तर की अदालत के न्यायाधीशों के आचरण और भ्रष्टाचार लिप्तता का आरोपी होने जैसा कुछ कुछ ईशारा ही किया था कि , वहां कार्यरत एक वरिष्ठतम अधिवक्ता ने बाकायदा शपथपत्र देकर कहा कि जब उन्होंने कहा था कि भ्रष्टाचार के छींटे खुद सर्वोच्च स्तर तक भी पहुंच चुकी है । अब बच ही क्या गया है , न्यायपालिका अनेकों बार भ्रष्टाचार के मुकदमों की सुनवाई करते समय ये कह चुकी है अब तो बस एक ही रास्ता बचा है कि भ्रष्टाचारियों को सरे आम फ़ांसी के फ़ंदे पर टांग देना चाहिए , मगर फ़िर भी इसके बावजूद भी आज तक किसी भी भ्रष्टाचारी को फ़ांसी पर चढाना तो दूर , उनका बाल भी बांका नहीं किया जा सका है । उलटे ही अगर वो राजनीतिज्ञ है तो उसका कद और भी बडा हो जाएगा और अगर प्रशासक है तो निकट भविष्य में राजनीतिज्ञ बन जाने की संभावना प्रबल हो जाती है ।


हाल ही के राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन करने मे हुए घोटाले से शुरू हुआ ये सिलसिला अब थमने का नाम ही नहीं ले रहा है , आदर्श घोटाला हो या कि स्पेक्ट्रम घोटाला , सभी एक से बडे एक और निर्लज्जता और लालच की पराकाष्ठा को परिभाषित करते हुए । अब तो जैसे जनता ने भी इन पर प्रतिक्रिया देना बंद कर दिया है अन्यथा देश को जाने कितने पीछे धकेल देते ये घपले और घोटालों के लिए जिम्मेदार इन तमाम भ्रष्टाचारियों को न सिर्फ़ देश समाज और कानून का गुनाहगार माना जाना चाहिए बल्कि इंसानियत के दुश्मन की तरह का व्यवहार इनसे किया जाना चाहिए । वैसे तो भ्रष्टाचार नाम की ये बीमारी कोई एक देश , एक प्रांत , एक द्वीप या एक क्षेत्र की समस्या नहीं है बल्कि अब तो ये बार बार प्रमाणित हो चुका है कि विश्व का कोई भी देश किसी न किसी स्तर और किसी न किसी हद तक भ्रष्टाचार का दंश झेल चुका है ।हालांकि इस विषय का अध्य्यन करने वाले भ्रष्टाचार कारण एवं उन्मूलन पर अपने निष्कर्षों में कहते हैं कि , बुनियादी फ़र्क सिर्फ़ ये होता है कि किस देश और समाज ने भ्रष्टाचार के डंक को किस रूप में झेला है और उस दिशा में क्या सोचा और किया है । जैसे कई देशों में भ्रष्टाचार का विरोध खुद आम जनता ने इतनी तीव्रता से किया है कि उसने न सिर्फ़ भ्रष्टाचार के आरोपी को जाना पडा बल्कि उससे जुडे लोगों और संस्थाओं तथा सरकार तक का बंटाधार होते देर नहीं लगी है । कुछ देश तो इससे भी आगे जाकर हत्थे चढे भ्रष्टाचारियों को आम जनता की जरूरतों का कातिल करार देकर अपने गवर्नरों तक को फ़ांसी पर टांग चुकी है । विशेषज्ञ कहते हैं कि सबसे कठिन स्थिति उन देशों की है जहां भ्रष्टाचार को आम आदमी द्वारा ग्राह्य मान लिया गया है जैसे कि भारत और उसके आस पास के अन्य देश ।

भ्रष्टाचार से लडने के लिए न तो कोई कानून न ही कोई सरकारी नीति कारगर साबित हो रही है । इसकी सबसे बडी वजह ये है कि आम लोगों ने इसे एक नियमित नियति के रूप में अपना लिया है । कुल मिलाकर ये मान लिया गया है कि भ्रष्टाचार एक जडहीन वृक्ष है , जिसकी शाखें , पत्ते , फ़ल और फ़ूल , जाने किन किन सूत्रों से खुद को सींच कर अपने आपको बढाने में लगी हुई हैं । आम आदमी को न तो उसका आदि दिख रहा है न अंत और अब तो उस भ्रष्टाचार से लडने का माद्दा भी चुकता सा दिख रहा है । हालांकि सूचना का अधिकार जैसे कानूनों ने कुछ हद तक भ्रष्टाचार को नग्न करने का कार्य तो अवश्य किया है किंतु इसके आगे की स्थिति फ़िर वही ढाक के तीन पात जैसी हो जाती है । आखिर सरकार कभी ये आंकडे क्यों नहीं दे पाई कि , अमुक भ्रष्टाचारी के पास से इतना धन जब्त किया गया और उस धन से फ़लाना ढिमकाना परियोजना का कार्य पूरा किया गया । या फ़िर ये कि , आज तक जिस भी स्तर पर किसी ने भी भ्रष्टाचार के विरूध बिगुल फ़ूंकने का काम किया है उन्हें सरकार समाज ने अपना आदर्श और अगुआ मान कर सर आंखों पर बिठा लिया हो या फ़िर कि उसकी और उससे संबंधित लोगों की सुरक्षा और संरक्षा की गारंटी ले ली हो । इसके उलट उस दिन से उसके जीवन की मुश्किलें बढ जाती हैं । भ्रष्टाचार मिटाने के लिए अब नए सिरे से और हर स्तर से हर वो नियम हर उस नीति को बदलना होगा जो भ्रष्टाचार की गुंजाईश को पैदा करते हैं । ऐसा हो पाएगा ये अभी दूर की कौडी लगती है ॥
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