हाल ही में माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा एक मुकदमे के दौरान खीज कर की गई टिप्पणी के बाद एक बहस शुरू हो गई है । माननीय न्यायालय ने सरकार द्वारा यौन कर्मियों की स्थिति और उनकी दशा पर तथा बढते यौन व्यवसार पर सरकार की लापरवाही वाले रुख को देखते हुए खीज कर टिप्पणी की कि , इससे तो अच्छा क्या ये नहीं होगा कि सरकार इसे कानूनी मान्यता दे दे । बस इसी वक्तव्य को आगे खींच कर बढाया जा रहा है और उसे अपने अपने तरीके से विशलेषित किया जा रहा है । हालांकि ये पहला मौका नहीं है जब इस तरह की कोई बात इस विषय पर सामने आई है ।कुछ समय पूर्व भी समाज कल्याण मंत्रालय भी कुछ इसी तरह की योजना पर विचार कर रहा था , मगर जाने किन कारणों से वो बात कहीं अटक कर रह गई ॥सबसे पहले बात करते हैं न्यायालय के कथन की , न्यायपालिका के कहने का कहीं से भी ये मतलब नहीं था कि यदि वो बुराई खत्म नहीं हो पा रही है तो उसे वैधानिक मान्यता प्रदान कर दी जाए । बल्कि ये तो सरकार को जूता भिगो के मारने जैसी झिडकी थी कि , यदि सरकार कुछ वैसा करने में रुचि नहीं दिखा रही है तो फ़िर ऐसा ही सही ॥ ताकि कम से कम इसी से शर्मसार होकर सरकार कुछ गंभीर हो सके । अब बात करते हैं कि यौन व्यवसाय को वैधानिक मान्यता देने की । दरअसल जब कल्याण मंत्रालय ने इसी तरह का प्रस्ताव रखने की सोची थी तो उनके दिमाग में पश्विमी देशों में चलाई जा रही ऐसी ही योजनाएं थी । जिनसे प्रभावित होकर मंत्रालय भारत में भी उसे लागू करने की सोच रहा था । आईये पहले देखते हैं कि जर्मनी फ़्रांस आदि देशों में यौन व्यवसाईयों\यौन कर्मियों के लिए क्या किया जा रहा है ।
सबसे पहले पूरे देश भर के यौन व्यवसाईयों की पहचान करके उन्हें पंजीक्रत करके लाईसेंस जारी किया गया । इस लाईसेंस प्रणाली से कई लाभ हुए , एक तो उन्हें पुलिस दलाल आदि के अनावश्यक शोषण आदि से मुक्ति मिली । दूसरे उनको स्पष्ट पहचान मिल गई । सरकार को एक बार उनकी कुल संख्या/ उनकी स्थिति / उनका स्थान आदि का पता चलने के बाद शुरू हुआ उनके लिए कल्याण कार्यक्रमों की शुरुआत । इसके तहत सबसे पहले उनकी सुरक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक सरंक्षण की व्यवस्था की गई । न सिर्फ़ उनके बल्कि उनके आश्रितों और सबसे बढके उनके बच्चों के लिए आवास शिक्षा, रोजगार आदि की समुचित व्यवस्था की गई । इसके बाद पूरे योजनाबद्ध तरीके से उन्हें समाज में , समाज की मुख्यधारा में लाने की कोशिशें की गई । लेकिन इन सबके अमलीकरण के बीच सबसे जरूरी जिस बात का ध्यान रखा गया वो था , किसी को भी यौन कर्मी बनने से रोकना । इसके लिए न सिर्फ़ स्वयं सेवी संगठनों बल्कि आपराधिक संगठनों और खुद पहले से इस दलदल में फ़ंसे यौन कर्मियों की सहायता भी सरकार ने नि:संकोच ली । इसका परिणाम ये निकला कि आज उनकी स्थिति पहले के मुकाबले कहीं बेहतर है ॥
तो जब भी भारत में इस तरह की कोई कोशिश करने का विचार उठेगा तो क्या ये सरकार ये सुनिश्चित कर पाएगी कि उपर वर्णित सभी उपायों/ कदमों/ कानूनों को वो भलीभांति लागू करवा पाएगी । और तो दूर की बात है यदि सरकार अगले दस वर्षों तक सिर्फ़ देश भर में कार्यरत यौन कर्मियों की पहचान ही कर पाए तो गनीमत है । दिन प्रतिदिन असुरक्षित यौन संपर्क से एडस जैसी लाईलाज बीमारी की चपेट में आने तक से रोकने के लिए जरूरी छोटे छोटे उपायों तक को तो सरकार लागू नहीं करवा पा रही है । ऐसे में आने वाले समय में उनकी स्थिति में कोई सुधार आ पाएगा ..मुश्किल लगता है ॥
बुधवार, 16 दिसंबर 2009
भारत में यौन व्यवसाय को लेकर उठी एक बहस
मंगलवार, 15 दिसंबर 2009
सहायता कक्ष और शिकायत कक्ष : सबसे महत्वपूर्ण मगर सबसे उपेक्षित व्यवस्था
आज देश में भ्रष्टाचार अपने चरम पर है ..बल्कि यदि ये कहा जाए कि सारी सीमाएं लांघ चुका है || इसे समाप्त करने की सभी कोशिशें व्यर्थ होती दिख रही हैं ॥ अब तो ऐसा लगने लगा है कि ये घोषित अघोषित रूप से समाज में एक मान्यता सी प्राप्त कर चुका है तभी तो अब न ही कोई मुद्दा है न ही कोई समस्या कम से कम उनके लिये तो नहीं ही जो देश की संचालक शक्ति कहे जाते हैं ॥ भ्रष्टाचार के बढते जाने के पीछे बहुत से कारण हैं । मगर इसके जन्म के लिये कुछ छोटे छोटे कारण ही ज्यादा जिम्मेदार हैं । इनमें से एक कारण है लोगों में जानकारी का अभाव , ये कुछ तो लोगों की अशिक्षा के कारण है और कुछ है सरकार और प्रशासन द्वारा आम लोगों को समुचित और सही जानकारी नहीं दिये जाने की आदत ।
एक आम आदमी जब भी किसी सार्वजनिक कार्यालय , या कहें कि सरकारी दफ़्तर में पहुंचता है तो उसका सामना जिस व्यक्ति से सबसे पहले होता है वो होता है बिचौलिया या कहें कि दलाल । जी हां जो उस व्यक्ति को ये बताता है कि वो काम कैसे हो सकता है या कैसे किया जा सकता है जाहिर सी बात है कि वो उसे इस तरह से बताता है कि एक आम आदमी को ये एहसास हो जाता है कि ये पहाड पर चढने जैसा काम तो सिर्फ़ ..उसका तारणहार .वो दलाल ही करवा सकता है॥और यहीं से सिलसिला शुरू हो जाता है भ्रष्टाचार, घूसखोरी , अनैतिक काम का अंतहीन सिलसिला जो नीचे के स्तर से लेकर ऊपर के स्तर तक बेरोकटोक-बेधडक चलता चला जाता है । वो एक बैचौलिया इन सारे ओहदों तक पहुंच के लिए किसी संपर्क सूत्र की तरह काम करता है । बदले में हर काम बेकाम के लिए मनचाहे पैसे वसूल लेता है उस आम आदमी से । उस मिले पैसे में से ही वो ओहदे के अनुरूप सभी बाबू लोगों को उनका हिस्सा देता जाता है ।
अक्सर देखने में आता है कि लोग सिर्फ़ कुछ बातों के लिए ही गलत रास्तों का चुनाव करने को मजबूर हो जाते हैं । पहला काम में होने वाली देरी से बचने के लिए । यानि सभी के पास देने के लिए पैसे तो हैं मगर समय नहीं इसी बात का फ़ायदा उठाते हुए बिचौलिए/ भ्रष्ट कर्मचारी/अधिकारी अपने पैसे बनाते हैं । दूसरा होता है काम कैसे हो , इस जानकारी का अभाव । इसी अभाव में लोग पूरी प्रक्रिया को जानने समझने के झंझट से बचने के लिए और कई बार तो कोशिश करने के बावजूद भी समझ न आ पाने के कारण मजबूर होकर वही गलत रास्ता पकड लेते हैं । एक और कारण होता है वो होता है अपनी कोई गलती कोई कमी को छुपाने दबाने के लिए ये तो भ्रष्टाचार को ही और आगे बढाने जैसा होता है । अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं मानती हैं कि जिन देशों में भ्रष्टाचार है यदि उन देशों में सभी कार्यालयों में उचित स्थान पर ......एक सहायता कक्ष ....जिसमें संजीदा और सचेत ,ईमानदार लोगों की टीम हो ....यदि सच में ही ठीक से काम करे तो लगभग ३० प्रतिशत तक भ्रष्टाचार को शुरू होने से पहले ही रोका जा सकता है । अफ़सोस के अपने देश में इसकी संख्या २ प्रतिशत से भी कम है । जो भी जहां भी इस तरह के सहायता कक्ष बने हुए हैं वे या तो खाली पडे रहते हैं या उनमें तैनात कर्मियों का रवैया खुद ही इस तरह का होता है मानो वे खुद छुटकारा चाहते हों ॥
ऐसा ही एक दूसरा उपेक्षित मगर बहुत ही महत्वपूर्ण कक्ष और व्यवस्था है शिकायत कक्ष /शिकायत पेटी / शिकायत पुस्तिका ......आदि । आंकडों पर नज़र डालें तो आश्चर्यजनक रूप से देश में मौजूद इन सभी शिकायत प्रकोष्ठ, पुस्तिका, या पेटिका में कुल भ्रष्टाचार के खिलाफ़ पांच प्रतिशत भी दर्ज़ नहीं किया जाता । तो क्या लोग चाहते ही नहीं है कि ऐसा हो । नहीं ऐसा बिल्कुल भी नहीं है ।एक उदाहरण लेकर देखते हैं ..राज्य सरकार की बसों /रेलों आदि में बडे बडे अक्षरों में बहुत स्थानों पर लिखा होता है कि शिकायत एवं सुझाव पुस्तिका संवाहक के या अधीक्षक के पास उपलब्ध है , लेकिन क्या कभी आपने कोशिश की है कि उस पर शिकायत दर्ज़ की जाए । ऐसी कोई भी कोशिश कभी भी कामयाब नहीं हो पाती क्योंकि संबंधित कर्मचारी/अधिकारी ....मारपीट की नौबत तक उतर आने के बावजूद आपको वो उपलब्ध नहीं करवाएंगे । और जो आधुनिक सुविधाएं मसलन एस एम एस सेवा आदि मुहैय्या करवाई जा रही हैं उन पर खुद विभाग ही कितना संजीदा दिखता है इसका अंदाजा इसी बात से लग जाता है कि संदेश पहुंचने के बाद प्रत्युत्तर तक नहीं मिलता । , इन शिकायती साधनों को सुलभता से आम लोगों की पहुंच में लाया जाए और ,यदि इन शिकायतों को गंभीरता से लेकर उन पर कार्यवाही की जाए तो परिणाम कैसे निकलेंगे इसका अंदाजा बडी सहजता से लगाया जा सकता है ॥
अफ़सोस की बात है कि इन दोनों महत्वपूर्ण व्य्वस्थाओं से सरकार ने खुद को जिस तरह से अलग किया हुआ है या इनके प्रति जिस तरह से लापरवाह है उसे देखकर तो यही लगता है कि सरकार और प्रशासन तथा इससे जुडी सभी संस्थाएं भ्रष्टाचार को समाप्त करने के प्रति गंभीर नहीं हैं ॥ वे स्वयं सेवी संगठन जो इस दिशा में कार्य कर रहे हैं उन्हें भी इन दोनों पहलुओं की ओर सरकार और समाज का ध्यान दिलाना चाहिए ॥
सोमवार, 2 नवंबर 2009
भ्रष्टाचार : नासूर बनता एक रोग...
आज देश में एक समाज सेवक, एक सार्वजनिक पद पर बैठे व्यक्ति के पास ..दो हज़ार करोड की संपत्ति मिलती है । ये पैसा निश्चित रूप से आम जनता का...इस देश का पैसा ही है जो मधु कोडा ने ना जाने कब से हडपने की जुगत बना रखी थी..और हडप भी लिया था। अब जाकर ये सारा मामला सामने आया है। लगभग दो हजार करोड रुपए डकार कर बैठ गये मधु कोडा...दो हजार करोड । और ये कोई नया मामला नहीं है....अब तो ये इतनी नियमित सी घटना सी हो गई है कि ..बस एक खबर सी बन कर रह गई है ।और हो भी क्यों न ..आखिर यहां भ्रष्टाचार है ही कौन सा बडा मुद्दा । दो हजार करोड हों या पचास हजार करोड....कोई फ़र्क नहीं पडता। इस देश में यदि किसी क्रिकेट खिलाडी से मैच में कोई कैच छूट जाए तो उसके गुस्से में उस खिलाडी का घर तक जला दिया जाता है , मगर इतने बडे बडे अपराध ,भ्रष्टाचार, होते रहते हैं और आम लोग संवेदनहीन की तरह बिना कोई प्रतिक्रिया देते शून्य की तरह बने रहते हैं ।
इस देश में बिल्कुल निम्न स्तर से शुरू होकर उच्च से उच्च या कहें कि कई बार सर्वोच्च स्तर तक भ्रष्टाचार की पैठ रही है । इस देश में तो एक पूर्व प्रधानमंत्री ने सार्वजनिक तौर पर माना था कि भारत में भ्रष्टाचार का प्रभाव और प्रसार इतना अधिक है कि ..किसी भी सरकारी योजना का महज दो प्रतिशत ही उसके वास्तविक हकदार तक पहुंच पाता है और सारा हिस्सा भ्रष्टाचार की भेंट चढ जाता है । वहीं एक से अधिक बार तो खुद प्रधान मंत्री ही दर्जनों घपलों घोटालों मे संलिप्तता के आरोपी बने । भ्रष्टाचार के संदर्भ में एक अन्य पहलू ये है कि सबसे सुलब तथा सबसे अपेक्षित भ्रष्टाचार सार्वजनिक या कहें कि सरकारी क्षेत्र में ही व्याप्त है। भ्रष्टाचार की व्यापकता और धीरे धीरे नासूरनुमा आसुरी रूप लेते जाने का सबसे मुख्य कारण है इसमें लिप्त लोगों के मन से किसी भी कानूनी कार्यवाही और सजा के डर का निकल जाना । आर्थिक भ्रष्टाचार में लिप्त आरोपियों की फ़ेहरिस्त में एक निम्न स्तर पर नियुक्त क्लर्क हो या उच्चतम स्तर पर बैठ निदेश्क , कई बार रंगे हाथों पकडे जाने के बावजूद सजा से साफ़ बच निकलना एक रिवाज सा बन गया है । इसके अलावा बडे राजनीतिज्ञ ,प्रशासक एवम अधिकारी अव्वल तो पकडे नहीं जाते , यदि कभी शिकंजे में फ़ंसते भी हैं तो अपने रसूख और पैसे की बदौलत अपनी गर्दन आसानी से बचा लेते हैं। इस आर्थिक भ्रष्टाचार के संधर्भ मे एक विचारणीय तथ्य ये है कि किसी भी प्रकरण में इनके पास से दबाया गया धन किसी भी प्रकार से निकल नहीं पाता है। इसका परिणाम ये होता है कि अनैतिक तरीके से और बेइमानी से अर्जित धन का उपयोग खुद को बचाने में बखूबी कर लेते हैं। जबकि अन्य देशों में भ्रष्टाचार में लिप्त आरोपियों पर दंडात्मक कार्यवाही के साथ साथ उनकी संपत्ति भी जब्त कर ली जाती है । पडोसी देश चीन तो भ्रष्टाचार को एक बेहद संगीन जुर्म के रूप में देखता है । पिछले वर्ष सरकारी सहायता राशि में गडबडी के दोषी पाए जाने वाले एक भूतपूर्व गवर्नर ..जिसकी उम्र लगभग ७५ साल थी , उसे भी फ़ांसी की सजा सुना दी । इतन ही नहीं सार्वजनिक सेवा के १६ हजार ६०० कर्मचारियों को एक ही दिन नौकरी से निकाल बाहर कर दिया गया।अभी कुछ समय पूर्व ही इसी स्थिति को देखते हुए ..सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश महोदय ने किसी मुकदमे की सुनवाई के दौरान तल्ख टिप्पणी की थी ," अफ़सोस कि यहां का कानून इस बात की इजाजत नहीं देता, किंतु भ्रष्टाचार की व्यापकता को रोकने के लिए अब यही उपाय बचता है कि सभी दोषियों को चौराहे पर खडे किसी खंबे पर लटका देना चाहिये "। भ्रष्टाचार की समाप्ति में एक अन्य बधा है ईमानदार एवं प्रतिबद्ध व्यक्तियों की कमी । जैसा कि कहावत है कि सौ बेईमानों पर एक ईमानदार भारी पडता है इसलिये ये स्थिति तब सह्य है , किंतु ये दुखदायी तब बन जाती है जब दुव्यवस्था से अकेला लडता कोई ईमान्दार व्यक्ति पूरे भ्रष्टाचारी तंत्र का निशाना बन जाता है । किसी ईमानदार व्यक्ति द्वारा भ्रष्ट तंत्र के खिलाफ़ खडे होकर काम करने को प्रोत्साहित करना तो दूर पूरा तंत्र के इस प्रयास में लग जाता है कि या तो उसे भी किसी भी तरह से भ्रष्टाचार के दलदल में घसीट लिया जाए या फ़िर रास्ते से ही हटा दिया जाए।भ्रष्टाचार को , विशेषकर उच्च स्तर के भ्रष्टाचार पर नजर रखने एवं नियंत्रित करने के उद्देश्य से गठित केंद्रीय सतर्कता आयोग भी प्रभावहीन ही रहा ।कई बार सार्वजनिक रूप से भी अधिक अधिकारों की मांग करने वाले सि आयोग को महज औपचारिकता निभाने भर के लिये रखा हुआ है । इसी तरह कुछ वर्ष प्रधानमंत्री ने भ्रष्टाचार एवं अनियमितताओं को रोकने और सभी शिकायतों को सुनने व उसके त्वरित निपटारे हेतु एक विशेष प्रकोष्ठ के गठन की घोषणा की थी जो जल्दी ही सफ़ेद हाथी सिद्ध हुआ । भ्रष्टाचार को खत्म करने के उपायों में जिस उपाय को सबसे ज्यादा कारगर माना गया है वो है भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों को सार्वजनिक करना । पिछले कुछ वर्षों में निजि टीवी समाचार चैनलों ने गुप्त रिपोर्टिंग और स्टिंग करके ..एक के बाद न जाने कितने दफ़तरों का कच्चा चिट्ठा खोला था । इसका एक तत्काल असर तो ये हुआ कि चाहे कैमरे के डर से ही सही..उसमें कुछ कमी तो आई ही । भ्रष्टचार को हटाने में दूसरी प्रभावी सहायक हो सकती है शिकायत पुस्तिका । भ्रष्टाचार उन्मूलन से ा संबंधित एक सम्मेलन में कहा गया कि यदि इन शिकायत पुस्तिकाओं का समुचित उपयोग एक हथियार की तरह किया जाए तो लगभग चालीस प्रतिशत तक भ्रष्टाचार को कम किया जा सकता है । ये चेतने का समय है ...यदि अब भी न चेते तो ...परिणाम आत्मघाती साबित होंगे ।
सोमवार, 26 अक्टूबर 2009
रेल दुर्घटनायें : एक नियमित नियति
पिछले कुछ दिनों मे भारतीय रेल से जुडी ,एक के बाद एक कई घट रही कई घटनाएं, दुर्घटनाओं ने एक बार फ़िर रेल यात्रा के दौरान सुरक्षा के मुद्दे को सामने ला दिया है। और राजधानी एक्सप्रेस को नक्सलियों द्वारा पूरी तरह से अपहर्त कर लेने की ताजातरीन घटना ने तो जैसे जता दिया है कि स्थिति अब कितनी दयनीय हो गई है। इस तरह की दु:साहसिक वारदात बेशक पहली बार हुई हो, और ये भी कि ऐसा बार बार न हो सके, किंतु इतना तो तय है कि रेल दुर्घटनाओं मे पिछली आधी शतब्दी में कोई कमी न आना ये संकेत कर दे रहा है कि भारतीय रेल अब भी सुरक्षित रेल यात्रा के एक गंभीर अनिवार्य शर्त को पूरा कर पाने में पूरी तरह से विफ़ल रही है॥
रेल दुर्घटनाओं का जो आंकडा रहा है वो सरकारी होने के कारण ,अपने आप में ही भ्रमित करने वाला और हमेशा ही अविश्वसनीय रहा है। किंतु स्थिति का अंदाजा सिर्फ़ इस बात से ही लगाया जा सकता है कि मोटे तौर पर इतना कहना ही काफ़ी होगा कि प्रति सप्ताह रेलों के परिचालन में अनियमितता , उनकी सुरक्षा में बरती जा रही घोर लापरवाही , यात्रियों के साथ किये या होने वाली अमानवीय घटना की कोई न कोई वारदात हो ही जाती है। फ़िर चाहे वो किसी भी रूप में, किसी भी स्तर पर हो।इन घटनाओं, दुर्घटनाओं मे जानमाल की हानि की बिल्कुल ठीक ठीक सूचना न भी उपलब्ध हो तो भी ये बहुत आसानी से पता चल जाता है कि आज भी रेल यात्रा को बेहद ही असुरक्षित और कष्टदायी ही समझा जाता है।अब से एक दशक पहले रेलवे से जुडी सभी कमियों, कमजोरियों, दोषों ,अपूर्ण योजनाओं और नहीं पूरे किये जा सकने वाले सुधार उपायों के लिये बजट का नहीं होना या संस्धानों की कमी को ही जिम्मेदार ठहरा कर इतिश्री कर ली जाती थी । किंतु अब जबकि ये प्रमाणित हो गया है कि रेलवे न सिर्फ़ लाभ में बल्कि बहुत ही मुनाफ़े में चल रही है तो भी सुरक्षित यात्रा के अनिवार्य लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर पाना बहुत ही अफ़सोसजनक बात है ।और बहुत बार ऐसी दुर्घटनाओं के बाद जांच आयोगों की रिपोर्टों, समीक्षा समितियों की अनुशंसाओं से ये बात बिल्कुल स्पष्ट है कि भारतीय रेलवे न तो इन दुर्घटनाओं से कोई सबक लेती है और न ही भविष्य के लिये कोई मास्टर प्लान तैयार कर पाती है। इसे देख कर तो ऐसा ही लगता है कि रेलवे प्रशासन के लिये सुरक्षित यात्रा कोई मुद्दा है ही नहीं, सो उस पर क्यों सोचा, विचारा जाए।जहां तक इन दुर्घटनाओं के कारणों की बात है तो आंकडों के अनुसार वर्ष 2008-2009 मे कुल 177 दुर्घटनाओं मे से लगभग 75 दुर्घटनाएं खुद रेलवे के कर्मचारियों की लापरवाही के कारण हुई है । इससे पहले के वर्षों मे भी रेलवे स्टाफ़ की गडबडी के कारन लगभग 52 % दुर्घटनाएं हुई हैं। इनके अलावा दुर्घटनाओं की दूसरी प्रमुख वजह रही है साजिश और तोडफ़ोड की घटनाएं। आंकडों के अनुसार ऐसी घटनाऒ में दिनोंदिन बढोत्तरी ही हुई है। ऐस नहीं है कि सरकार या रेलवे प्रशासन की ओर से कभी इस दिशा में कोई विचार नहीं किया गया, बल्कि वर्ष 1998 में एक रेलवे सुरक्षा समिति बनी जिसने सिफ़ारिश की , कि रेलवे कर्मचारियों के कामकाज में सुधार लाया जाए तथा उन्हें विशेष प्रशिक्षण देने की व्यवस्था हो । और इसके लिये वर्ष 2013 को लक्ष्य के रूप में रखा गया और ये तय किया गया कि तब तक एक फ़ूलप्रूफ़ सिस्टम विकसित किया जाए ।किंतु वास्तविकता क्या रही इसका अंदाजा इस तथ्य से ही लगाया जा सकता है कि रेलवे मंत्रालय की लापरवाही से पिछले पांच वर्षों से सद्स्य सिग्नल की नियुक्ति नहीं की जा सकी है। ज्ञात हो कि संरक्षा से जुडे इस महत्वपूर्ण पद पर कैबिनेट ने 2005 में ही अपनी स्वीक्रति दे दी थी । और इसके ऊपर से ये कि वर्ष 2008-2009 में संरक्षा मद में 1500 करोड रुपए का बजट आवंटन हुआ था जबकि 2009-2010 के लिये न जाने क्या सोच कर इसे महज 900 करोड रुपए कर दिया गया।इन दुर्घटनाओं के लिये जिम्मेदार और जिस एंटी कौलिजन डिवाइस ,ट्रेन प्रोटेक्शन एंड वार्निंग सिस्टम ..आदि जैसी महत्वपूर्ण परियोजनाएं ..न जाने कब से लटकी या लटकाई जा रही है।इन तथ्यों और आंकडों को देखकर यदि आम आदमी के मन में ये आशंका उठती है कि एक तरफ़ उनको को नयी नयी आधुनिक , ट्रेनों, सुविधायुक्त रेलवे कोचों, दोरंतो और बुलेट जैसी द्रुतगामी रेलों का ख्वाब दिखाया जा रहा है जबकि मात्र सुरक्षित रेल यात्रा का बुनियादी अधिकार ही नहीं दिलवाया जा सका है । निकट भविष्य में सरकार इन दुर्घटनाऒं से कोई सबक लेगी ऐसी उम्मीद तो कतई नहीं दिखती, अलबत्ता मुआवजा राशि की घोषणा की औपचारिक खानापूर्ति जरूर करती रहेगी । हालांकि इन यात्रा बीमा की राशि और मुवावजे राशि को संबंधित लोगों द्वारा प्राप्त हो पाना भी अपने आप में एक त्रासदी से कम नहीं है।
गुरुवार, 22 अक्टूबर 2009
पहली पोस्ट अमर उजाला में तो दूसरी दैनिक आज समाज में,, कैसे मानूं कि गंभीर लेखन कोई पसंद नहीं करता
मैंने जब ये नया ब्लोग बनाया था तो ...जैसा कि पहले ही कह चुका हूं कि सिर्फ़ एक ही मकसद था।सबकी शिकायत थी कि यहां ब्लोग्गिंग को गंभीरता से नहीं लिया जा रहा है और कोई गंभीर विषयों को नहीं उठा रह है। मैं खुद भी अपनी कसमसाहट और जिम्मेदारी को परखना चाह रहा था। दूसरी तरफ़ अक्सर ये आरोप सभी लगाते हैं कि गंभीर लेखन को ज्यादा पसंद नहीं किया जाता। मुझे तो कहीं से भी ऐसा नहीं लगा। अब देखिये न जुम्मा जुम्मा चार दिन नहीं हुए ब्लोग बनाए। पोस्ट के नाम पर दो, ब्लोग्गर भाई/बहनों का भरपूर स्नेह मिला और रही सही कसर पूरी कर रहा है प्रिंट मीडिया..पहली को स्थान दिया अमर उजाला ने..तो दूसरी को आज दिनांक २२/१०/०९ को दिल्ली के दैनिक आज समाज ने .....
चित्र थोडा छोटा हो गया ...क्या करूं लगता है ठीक से स्कैन नहीं हुआ...इसे तो आप ब्लोग औन प्रिंट पर ही देख पायेंगे ठीक से..।उम्मीद है आप मेरा प्रोत्साहन इसी तरह बढाते रहेंगे।
मंगलवार, 20 अक्टूबर 2009
हाशिये पर :तलाकशुदा महिलाएं
बदलते सामाजिक परिवेश में भारत जैसे देश में भी पारिवारिक परंपराऐं, वैवाहिक मान्यतायें, और एक अटूट बंधन जैसी स्थापित हो चुकी अवधारणा किस तेजी से टूट रही है इस बात का अंदाजा सिर्फ़ इस बात से ही हो जाता है ..राजधानी की बहुत सी पारिवारिक अदालतों मे से सिर्फ़ एक पारिवारिक अदालत में ही प्रति माह सौ -सवा सौ तलाक लिये और दिये जा रहे हैं। और सबसे ज्यादा अफ़सोस की बात ये है कि ये दर प्रति दिन बढती ही जा रही है। तलाक की बढते चलन पर अद्ध्य्यन करने के बाद कुछ बहुत ही महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकल कर सामने आये हैं।
वर्तमान में तलाक का ये चलन सिर्फ़ शहरों में ही ज्यादा तेजी से फ़ैल रहा है। आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में तलाक के मामले बहुत ही कम हो रहे हैं। जबकि विवाह संबंधी विसंगतियां अभी भी सबसे अधिक ग्रामीण क्षेत्रों में ही पाई जाती हैं । सामाजिक विशलेषक इसका कारण मानते हैं, ग्रामीण क्षेत्रीय समाज काअ अधिक मजबूत और अब भी काफ़ी प्रभावी होना। यही कारण है कि दांपत्य जीवन में यदि कभी कोई गडबड वाली बात होती भी है तो पहले दोनों परिवार और फ़िर समाज भी बीचबचाव करके वैवाहिक संस्था को बचाने का ही प्रयास करते हैं।
इसके अलावा एक दूसरा अहम कारण है ग्रामीण महिलाओं मे शिक्षा और आत्मनिर्भरता की कमी । गांव में अभी स्त्री शिक्षा को बहुत ही उपेक्षित रखा जाता है, इसका एक परिणाम ये होता है कि फ़िर इससे उनके आत्मनिर्भर होने का सवाल ही नहीं उठता। इसी कारण से बहुत बार कई प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद जल्दी से कोई महिला अपनी ससुराल छोडने की स्थिति में नहीं होती। क्योंकि शायद उसके दिमाग में ये बात भी ्होती है कि किस कठिनाई से उसके माता पिता ने उसका विवाह करवाया था। ग्रामीण क्षेत्र की महिलाओं मे शिक्षा की कमी के कारण वे अपने अधिकार और उसकी प्राप्ति हेतु बने कानूनों के प्रति जागरूक नहीं हो पाती हैं। इसका एक परिणाम ये होता है कि विवाह टूटने से बच जाते हैं।
इससे इतर एक मुख्य कारण होता है विकल्पों की कमी। ग्राम क्षेत्र में आज भी दूसरा विवाह..विशेषकर यदि महिला का होना हो तो ये बिल्कुल अनोखी या कहें तो अनहोनी जैसी बात होती है।. यानि विवाहित स्त्री के पास इस बात का कोई विकल्प नहीं होता कि कि यदि विवाहित जीवन जीना है तो उसी परिवार में ही जीना होगा।ये डर भी उन्हें कोई प्रतिकूल कदम उठाने से रोक देता है।
इसके विपरीत शहरी जीवन में, महिलाओं का पूर्ण शिक्षित होना...नौकरी, व्यवसाय,आदि हर क्षेत्र में भागीदारी और सबसे बढकर अपने सभी कानूनी, सामाजिक अधिकारों की भलीभांति जानकारी ही वे मुख्य कारण हैं जो शहरों मे तलाक के चलन को बढावा दे रहे हैं। इन सबके साथ साथ एक सबसे बडी वजह है शहरों मे समाज का न होना..या किसी भी सामाजिक बंधन से बंधे न होने का एहसास । शहरों में आज लोग इतने संकुचित हो गये हैं कि उसे सिर्फ़ अपने परिवार, अपनी समस्याओं से ही फ़ुर्सत नहीं मिलती। ऐसे में कोई क्यों किसी के पारिवारिक जीवन को बचाने या तोडने में अपना समय गंवाएगा । और जहां तक अभिभावकों की भूमिका की बात है तो ये बात अब अक्सर देखेने सुनने को मिल जाती है कि कई बार तो घर सिर्फ़ इस कारण से टूटते जा रहे हैं क्योंकि बनती हुई बात को ..पति या पत्नि के माता पिता या किसी प्रभावी रिश्तेदार ने अपनी नाक का प्रश्न बना कर उसे और बिगाड कर रख दिया।
लडकियों का शिक्षित होना , न सिर्फ़ शिक्षित बल्कि समाज के हर सक्रिय पेशे में प्रभावी रूप से सक्रिय होना, इतना कि वे अपने जीवन से जुडे हर निर्णय को खुद ही ले सकें , भी परिवार के टूटने का कारण बन रहा है। दरअसल आज भले ही विकास के मायने बदल चुके हैं, पारिवारिक संरचनायें भी परिवर्तित हो रही हैं, किंतु इन सबके बावजूद आज भी भारतीय परिवारों में महिलाओं की भूमिका और उनसे घरेलू जिम्मेदारियों की जो अपेक्षा है वो हमेशा की तरह वही पुरातनकाल की है, जबकि आज के समय में न तो ये स्वाभाविक है और न ही अपेक्षित । ऐसे में ये स्थितियां उत्पन्न होना कोई अप्रत्याशित नहीं लगता । और देर सवेर परिवार की टूटने के हालात आ ही जाते हैं।
तलाक की ये बढती प्रव्रित्ति अपने साथ न सिर्फ़ कई सामाजिक विसंगतियां ला रही है बल्कि ..स्वंय तलाकशुदा महिलाओं और उस दंपत्ति के बच्चों को हाशिये पर लाने का काम कर रही है। गौर तलब है कि तलाकशुदा महिलाओं को भारत में किसी भी तरह का कोई विशेषाधिकार या आरक्षण की व्यवस्था नहीं है । चाहे लाख दावे किये जाएं, बेशक इस तरह की दलील दी जाती रहे कि तलाकशुदा महिलाओं की जिंदगी पर तलाक शुदा होने का बहुत बडा फ़र्क नहीं पडता ,या कि इस तरह के कथन कि तलाक से जिंदगी खत्म नहीं होती मगर हकीकत तो यही है कि तलाकशुदा महिला की आज भी भारतीय समाज में बिल्कुल अलग थलग स्थिति सी हो जाती है। जो नौकरी पेशा हैं या आत्मनिर्भर हैं वे तो फ़िर भी जैसे तैसे खुद के जीवन को व्यस्त और दुरुस्त कर भी पाती हैं। मगर उनकी हालत तो बहुत ही ज्यादा दयनीय हो जाती है जो न ससुराल में रह पाती हैं और तलाक के बाद उन्हें मायके में भी बहुत सी प्रतिकूल स्थितियों का सामना करना पडता है।जो दोनो ही स्थान में रहना नहीं चाहती और अपना अलग निवास बनाती हैं, उन्हें भी इस समाज की रुढिवादिता से अलग अलग रूपों मे रूबरू होना ही पडता है।
सबसे दुखद बात तो ये है कि सरकार,महिला संरक्षण संस्थानों, स्वंय सेवी संस्थानों आदि ने अभी तक इस विषय में कुछ भी गंभीरतापूर्वक सोचा किया नहीं है। अलबत्ता आवेदन पत्रों पर महिलाओं से उनकी वैवाहिक स्थिति के बारे में जरूर ही जाना जाता है। कानून में भी इन तलाक शुदा महिलाओं के लिये सिर्फ़ उनके पति या ससुराल से ही कुछ भी दिलाने का अधिकार प्रदान किया गया है।आज जिस तरह से तलाक की घटनायें बढ रही हैं..तो अब ये समय आ गया है कि इस बिंदु पर गौर किया जाए..और इनके लिये कुछ ठोस योजनाएं, कानून, और उनके राह्त के लिये बनाई जायें।उम्मीद हि कि निकट भविष्य में इस दिशा में कुछ किया जा सकेगा ।
बुधवार, 14 अक्टूबर 2009
पहली पोस्ट, आपका स्नेह, और अमर उजाला में स्थान

ये तो इस ब्लोग की पिछली पोस्ट में ही बता चुका हूं कि कुछ गंभीर लिखने को प्रेरित होकर इस नये ब्लोग की शुरूआत की । वादे के अनुसार पहली पोस्ट लिखी जो कि बच्चों के बदलते मनोविज्ञान या कहूं कि शहरी बच्चों के बदलते मनोविज्ञान पर आधारित थी। आशा के अनुरूप आप सबने खूब स्नेह और मार्गदर्शन के साथ उस नये ब्लोग को प्रोत्साहित किया। मगर शायद अभी दीवाली का तोहफ़ा भी मिलना था इस ब्लोग को सो आज के अमर उजाला ने इस ब्लोग की पहली पोस्ट और इकलौती भी, को अपने नियमित स्तंभ ब्लोग कोना में स्थान देकर मेरा और इस ब्लोग का सम्मान बढा दिया। आप सबके स्नेह और साथ के लिये बहुत बहुत शुक्रिया और अमर उजाला का आभार ।
उम्मीद है कि इस ब्लोग पर इसी तरह अलग अलग विषयों पर लिख कर इसकी सार्थकता को कायम रखने के अपने प्रयास में सफ़ल रह पाऊंगा । मेरे लिये ये और भी अधिक खुशी की बात है क्योंकि शायद ये कम ही होता है कि ब्लोग बनने और पहली पोस्ट लिखे जाने के चौबीस घंटे के भीतर ही ऐसी खुशी मिल जाये।
सोमवार, 12 अक्टूबर 2009
बच्चों का बदलता मनोविज्ञान
बच्चों के बदलते व्यवहार और मनोविज्ञान पर शोध कर रही संस्था ,"बालदीप" ने अपने सर्वेक्षण और अध्ययन के बाद तैयार की गयी रिपोर्ट में इस संबंध में कई कारण और परिणाम सामने रखे हैं।बदलते परिवेश के कारण आज न सिर्फ़ बच्चे शारीरिक और मानसिक रूप से अवयव्स्थित हो रहे हैं बल्कि आश्चर्यजनम रूप से जिद्दी , हिंसक और कुंठित भी हो रहे हैं। पिछले एक दशक में ही ऐसे अपराध जिनमें बच्चों की भागीदारी थी ,उनमें लगभग सैंतीस प्रतिशत की बढोत्तरी हुई है। इनमें गौर करने लायक एक और तथ्य ये है कि ये प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्रों की अपेक्षा, नगरीय क्षेत्र में अधिक रहा है। बच्चे न सिर्फ़ आपसी झगडे, घरों से पैसे चुराने, जैसे छोटे मोटे अपराधों मे लिप्त हो रहे हैं..बल्कि चिंताजनक रूप से नशे, जुए, गलत यौन आचरण,फ़ूहड और फ़ैशन की दिखावटी जिंदगी आदि जैसी आदतों में भी पडते जा रहे हैं।संस्था के अनुसार ऐसा नहीं है कि बच्चों मे आने वाले इस बदलाव का कोई एक ही कारण है। उन्होंने सिलसिलेवार कई सारे कारणों का हवाला देकर इसे साबित किया ।
इनमें पहला कारण है बच्चों के खानपान में बदलाव। आज समाज जिस तेजी से फ़ास्ट फ़ूड या जंक फ़ूड की आदत को अपनाता जा रहा है उसके प्रभाव से बच्चे भी अछूते नहीं हैं। बच्चों के प्रिय खाद्य पदार्थों में आज जहां, चाकलेट, चाऊमीन, तमाम तरह के चिप्स, स्नैक्स, बर्गर, ब्रेड आदि शामिल हो गये हैं वहीं, फ़ल हरी सब्जी ,साग दूध, दालें जैसे भोज्य पदार्थों से दूरी बनती जा रही है। इसका परिणाम ये हो रहा है कि बच्चे कम उम्र में ही मोटापे, रक्तचाप, आखों की कमजोरी,और उदर से संबंधित कई रोगों का शिकार बनते जा रहे हैं।
बच्चों के खेल कूद, मनोरंजन, के साधनों,और तरीकों में बद्लाव । एक समय हुआ करता था जब अपने अपने स्कूलों से आने के बाद शाम को बच्चे अपने घरों से निकल कर आपस में तरह तरह के खेल खेला करते थे। संस्था के अनुसार वे खेल उनमें न सिर्फ़ शारीरिक स्वस्थता, के अनिवार्य तत्व भरते थे, बल्कि आपसी सहायोगिता, आत्मनिर्भरता, नेत्र्त्व की भावना जैसे मानवीय गुणों का संचार भी करते थे। आज के बच्चों के खेल कूद के मायने सिर्फ़ टेलिविजन, विडियो गेम्स, कंप्यूटर गेम्स आदि तक सिमट कर रह गये हैं। और तो और एक समय में बच्चों को पढने सीखने में सहायक बने कामिक्स भी आज इतिहास बन कर रह गये हैं। जबकि ये जानना शायद दिलचस्प हो कि पश्चिमी देशों मे अभी भी बच्चों द्वारा इन्हें खूब पसंद किया और पढा जाता है ।
भारतीय बच्चों मे जो भी नैतिकता, व्यवहार कुशलता स्वाभाविक रूप से आती थी, उसके लिये उनकी पारिवारिक संरचना बहुत हद तक जिम्मेदार होती थी। पहले जब सम्मिलित परिवार हुआ करते थे., तो बच्चों में रिशतों की समझ, बडों का आदर, छोटों को स्नेह, सुख दुख , की एक नैसर्गिक समझ हो जाया करती थी। उनमें परिवार को लेकर एक दायित्व और अपनापन अपने आप विकसित हो जाता था। साथ बैठ कर भोजन, साथ खडे हो पूजा प्रार्थना, सभी पर्व त्योहारों मे मिल कर उत्साहित होना, कुल मिला कर जीवन का वो पाठ जिसे लोग दुनियादारी कहते हैं , वो सब सीख और समझ जाया करते थे। संस्था ने इस बात पर चिंता जाहिर करते हुए कहा कि आज जहां महानगरों मे मां-बाप दोनो के कामकाजी होने के कारण बच्चे दूसरे माध्यमों के सहारे पाले पोसे जा रहे हैं , वहीं दूसरे शहरों में भी परिवारों के छोटे हो जाने के कारण बच्चों का दायरा सिमट कर रह गया है ।
इसके अलावा बच्चों में अनावश्यक रूप से बढता पढाई का बोझ, माता पिता की जरूरत से ज्यादा अपेक्षा, और समाज के नकारात्मक बदलावों के कारण भी उनका पूरा चरित्र ही बदलता जा रहा है । यदि समय रहेते इसे न समझा और बदला गया तो इसके परिणाम निसंदेह ही समाज के लिये आत्मघाती साबित होंगे।
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