शुक्रवार, 26 मार्च 2010

बताईये सबसे घटिया टीवी समाचार चैनल कौन सा है ?



यूं तो इन दिनों टीवी समाचार चैनलों पर कुछ भी कहना सुनना व्यर्थ ही है ।आज चौबीस घंटे तक गला फ़ाड फ़ाड कर समाचार दिखाते ये चैनल , समाचार को दिखाने से पहले उसे बनाते कैसे हैं , उसे पैदा  कैसे करते हैं , उसे एक्सक्लुसिव का तडका कैसे लगाते हैं ? और इसके लिए कैसे कैसे आडंबर रचते/रचवाते हैं ये जितना खुद मीडिया को पता है उतना ही अब आम लोगों को भी पता है । अब तो वो स्टिंग औपरेशन्स का टीआरपी बढाने वाला जादुई दौर भी नहीं रहा । तभी तो आजकल समाचार चैनल , टीवी धारावाहिक , विभिन्न हास्य व्यंग्य कार्यक्रमों , रिएल्टी शोज़ आदि को भी समाचार बना कर परोस रहे हैं ।

                               इसके साथ ही कभी तंत्र मंत्र , कभी ग्रह ज्योतिष , तो कभी कुछ और भी खूब जमा जमा कर परोस रहे हैं । अपराध की दुनिया की खबरों को नाट्य रूपांतर का मसाला लगा कर तो गज़ब तरीके से पेश किया जा रहा है ।और इन सबके बीच तमाम झूठे सच्चे , सडे गले विज्ञापन तो हैं ही । किसी भी दुर्घटना /हादसा/अपराध आदि का होना तो इनके लिए ठीक वैसा ही होता है जैसे ..गिद्धों के लिए ताजी लाश ..फ़िर वो चाहे इंसानों की हो या पशुओं की क्या फ़र्क पडता है ? न तो इन समाचार चैनलों का कोई थिंक टैंक होता है , न ही कोई ऐसी योजना जिसके लिए संवाददाता को कोई विशेष मेहनत , कोई बहुत कठिन परिश्रम करने की जरूरत हो । इन सभी समाचार चैनलों का दायरा असल में इतना सिमट सा गया है कि चौबीस घंटों में भी इनके पास दिखाने बताने को वही घिसा पिटा रवैया ही है ।
                         
                              इन समाचार चैनलों में कितनी संवेदनशीलता और सामाजिक जिम्मेदारी का एहसास बचा है उसका अंदाज़ा कारगिल हमले के समय और फ़िर मुंबई के ताज होटल पर हुए आतंकी हमले के समय की गई रिपोर्टिंग से ही पता चल जाता है । जिन कैमरों को यही पता नहीं होता कि उन्हें दिखाना क्या है और जो वे दिखाने जा रहे हैं उसका प्रभाव , जिसे दिखाने जा रहे हैं उसपर कैसा होगा । मगर नहीं शायद , ये सोचने की फ़ुर्सत किसे है ?
 इनपर जितना भी कहा जाए कम है ..मगर आज जाने क्यों मन कर रहा है ये पूछने का कि तमाम समाचार चैनलों में ..वो कौन सा चैनल है तो आपको निहायत ही घटिया है ....। यदि मुझसे पूछते हैं तो ..एक ही स्वर में कहूंगा कि ...इंडिया टीवी । कारण बहुत से हैं ......और आपके लिए ?????

गुरुवार, 25 मार्च 2010

न्यायपालिका के फ़ैसले और उनके निहितार्थ : लिव इन रिलेशनशिप, बलात्कार आदि के परिप्रेक्ष्य में

कल इस पोस्ट को कोर्ट कचहरी पर लिखा था मगर आज फ़िर कुछ प्रश्नों को देखा तो लगा कि इसे दोबारा यहां पोस्ट करना अभी उचित होगा .....

मैंने बहुत बार अनुभव किया है कि जब समाचार पत्रों में किसी अदालती फ़ैसले का समाचार छपता है तो आम जन में उसको लेकर बहुत तरह के विमर्श , तर्क वितर्क और बहस होती हैं जो कि स्वस्थ समाज के लिए अनिवार्य भी है और अपेक्षित भी । मगर इन सबके बीच एक बात जो बार बार कौंधती है वो ये कि अक्सर इन अदालती फ़ैसलों के जो निहातार्थ निकाले जाते हैं , जो कि जाहिर है समाचार के ऊपर ही आधारित होते हैं क्या सचमुच ही वो ऐसे होते हैं जैसे कि अदालत का मतंव्य होता है । शायद बहुत बार ऐसा नहीं होता है ।

                      कुछ अदालती फ़ैसलों को देखते हैं जो पिछले दिनों सुनाए गए । एक चौदह पंद्रह वर्ष की बालिका के विवाह को न्यायालय ने वैध ठहराया , अभी पिछले दिनों अदालत ने कहा कि बलात्कार के बहुत से मामलों में पीडिता को बलात्कारी से विवाह की इजाजत देनी चाहिए ,बलात्कार पीडिता का बयान ही मुकदमें को साबित करने के लिए पर्याप्त है , समलैंगिकता , लिव इन रिलेशनशिप आदि और भी आए अनेक फ़ैसलों के बाद आम लोगों ने उसका जो निष्कर्ष निकाल कर जिस  बहस की शुरूआत की वो बहुत ही अधूरा सा था । सबसे पहले तो तो दो बातें इस बारे में स्पष्ट करना जरूरी है । कोई भी अदालती फ़ैसला , विशेषकर माननीय उच्चतम न्यायालय के फ़ैसले , जो सभी निचली अदालतों के नज़ीर के रूप में लिए जाते हैं , वे सभी फ़ैसले उस विशेष मुकदमें के लिए होते हैं और उन्हें नज़ीर के रूप में भी सिर्फ़ उन्हीं मुकदमों में लिया जा सकता है जिनमें घटनाक्रम बिल्कुल समान हो । हालांकि इसके बावजूद भी निचली अदालतें अपने सीमित कार्यक्षेत्र और अधिकारिता के कारण उन्हें तुरत फ़ुरत में अमल में  नहीं लाती हैं ।

उदाहरण के लिए जैसा कि एक मुकदमे के फ़ैसले में अदालत ने एक नाबालिग बालिका के विवाह को भी वैध ठहराया था । उस पर प्रतिक्रिया आई कि , इस तरह से तो समाज में गलत संदेश जाएगा । मगर दरअसल मामला ये था कि अदालत ने उस विशेष मुकदमें में माना था कि एक बालिका जिसका रहन सहन उच्च स्तर का है , जो आधुनिक सोच ख्याल वाले संस्कार के साथ पली बढी है , आधुनिक कौन्वेंट स्कूल में पढी है , शारीरिक मानसिक रूप से , ग्रामीण क्षेत्र की किसी भी हमउम्र बालिका से तुलना नहीं कर सकते । अब चलते हैं के अन्य फ़ैसले की ओर , बलात्कार पीडिता का विवाह बलात्कार के आरोपी के साथ कर देना चाहिए । यदि अपराध के दृष्टिकोण से देखें तो इसकी गुंजाईश रत्ती भर भी नहीं है । होना तो ये चाहिए कि बलात्कारियों को मौत और उससे भी कोई कठोर सजा दी जानी चाहिए ।

    अब हकीकत की बात करते हैं , अपने अदालती अनुभव के दौरान मैंने खुद पाया कि बलात्कार के  मुकदमें जो चल रहे थे उनमें से बहुत से मुकदमें वो थे जो कि पीडिता के पिता ने दर्ज़ कराए थे । लडका लडकी प्रेम में पडकर घर से निकल भागे , चुपके से विवाह कर लिया, बाद में पुलिस के पकडे जाने पर , माता पिता और घरवालों के दवाब पर बलात्कार का मुकदमा दर्ज़ करवा दिया जाता है । मुकदमें के दौरान ही पीडिता फ़रियाद लगाती है कि उसके होने वाले या शायद हो चुके बच्चे का पिता उसका वही प्रेमी, अब कटघरे में खडा आरोपी , और उसका पति ही है ..तो क्या फ़ैसला किया जाए । यदि कानूनी भाषा में किया जाए तो सज़ा है सिर्फ़ और सज़ा । मगर यदि मानवीय पक्षों की ओर ध्यान दिया जाए तो फ़िर ऐसे ही फ़ैसले सामने आएंगे जैसे आए ।

  ठीक इसी तरह जब फ़ैसला आया कि बलात्कार पीडिता का बयान ही काफ़ी है अपराध को साबित करने के लिए तो सबने बहस में हिस्सा लेते हुए कहना शुरू कर दिया कि तो फ़िर अन्य सबूतों की जरूरत नहीं है शायद । जबकि ऐसा कतई नहीं है । दरअसल उस खास मुकदमें में पीडिता के पास सिवाय अपने बयान के और किसी भी साक्ष्य , किसी भी गवाह को पेश न कर सकने की स्थिति थी ऐसे में अदालत ने इस आधार पर कि भारतीय समाज में अपनी इज्जत मर्यादा मान सम्मान को दांव पर लगा कर कोई भी महिला सिर्फ़ इसलिए किसी पर भी बलात्कार जैसे संगीन अपराध का आरोप नहीं लगा सकती कि उसका कोई इतर उद्देश्य है । और इसी आधार पर वो फ़ैसला दिया गया था ।

अब इस हालिया फ़ैसले को लेते हैं । अदालत ने स्पष्ट किया है कि भारतीय कानून के अनुसार भी यदि दो वयस्क पुरुष महिला अपनी सहमति से बिना विवाह किए भी एक साथ एक छत के नीचे रहते हैं तो वो किसी भी लिहाज़ से गैरकानूनी नहीं होगा । अब इसका तात्पर्य ये निकाला जा रहा है कि फ़िर तो समाज में गलत संदेश जाएगा । नहीं कदापि नहीं अदालत ने कहीं भी ये नहीं कहा है भारतीय समाज में जो वैवाहिक संस्था अभी स्थापित है उसको खत्म कर दिया जाए , या कि उससे ये बेहतर है , और ये भी नहीं कि कल को यदि उनमें से कोई भी इस लिव इन रिलेशनशिप के कारण किसी विवाद में अदालत का सहारा लेता है तो वो सिर्फ़ इसलिए ऐसा नहीं कर सकता क्योंकि अदालत ने इसे वैधानिक माना हुआ है । अब ये तो खुद समाज को तय करना है कि भविष्य में लिव इन रिलेशनशिप ..वाली परंपरा हावी होने जा रही है कि समाज युगों से स्थापित अपनी उन्हीं परंपराओं को मानता रहेगा । सीधी सी बात है कि जिसका पलडा भारी होगा ...वही संचालक परंपरा संस्कृति बनेगी ।

    जब कोई फ़ैसला समाचार पत्र में , या कि समाचार चैनलों में दिखाया या पढाया जाता है वो तो एक खबर के रूप में प्रस्तुत किया जाता है जो कि उनकी मजबूरी है । और यही सबसे बडा कारण बन जाता है आम लोगों द्वारा किसी अदालती फ़ैसले में छिपे न्यायिक निहितार्थ को एक आम आदमी द्वारा समझने में। इसके फ़लस्वरूप जो बहस शुरू होती है वो फ़िर ऐसी ही बनती है जैसी दिख रही है आजकल । समाचार माध्यमों को अदालती कार्यवाहियों, मुकदमों के दौरान कहे गए कथनों , और विशेषकर अदालती फ़ैसलों को आम जनता के सामने रखने में विशेष संवेदनशीलता और जागरूकता दिखाई जानी अपेक्षित है ।

सोमवार, 22 मार्च 2010

औचित्यहीन हो रहे हैं रोजगार पंजीयन कार्यालय


 


एक समय हुआ करता था जब लोग अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद जो पहला काम करते थे वो होता था जिले में स्थित रोजगार पंजीयन कार्यालय में अपना पंजीयन करवाना । और हो भी क्यों न उस समय रिक्त स्थानों के लिए निकलने वाली भर्ती के लिए बुलावा पत्र आदि यथायोग्य विद्यार्थियों को भेजे जाते थे । और ये एक निश्चित रिवाज़ सा बना हुआ था ।

भारत सरकार द्वारा रोजगार अनिवार्य सूचना अधिनियम 1959 ,के अनुसार ही देश भर में रोजगार पंजीयन कार्यालयों की स्थापना की गई । आज देश भर में कम से कम एक हजार रोजगार पंजीयन कार्यालय हैं , किंतु यदि गौर से देखें तो पाते हैं कि इनमें से कोई भी कार्यालय ऐसा नहीं है जो इच्छुक अभ्यर्थियों को रोजगार की मंजिल तक पहुंचाना तो दूर उन्हें इसका मार्ग भी दिखाने में सक्षम हो । कितनी दुखद बात है कि देश का इतना बडा उपक्रम , इतने तामझाम , इतने संसाधनों , कर्मचारियों , धन के साथ काम तो कर रहा है किंतु आज अपने उद्देश्य में पूरी तरह विफ़ल होकर औचित्यहीन हो चुका है । आज इन रोजगार पंजीयन कार्यालयों का सिर्फ़ एक ही मकसद भर रह गया है कि कुछ ऐसी नियुक्तियां , जिनके लिए मंगाए जा रहे आवेदनों में इन पंजीयन कार्यालयों में पंजीकरण आवश्यक होता है , में आवेदन करने के लिए इनमें पंजीकृत होना जरूरी है । बस इसीलिए झक मारकर विद्यार्थियों को इस कार्यालय के चक्कर लगाने पडते हैं ।

इन रोजगार कार्यालयों में पंजीकृत विद्यार्थियों की संख्या , मैट्रिक , स्नातक आदि के स्तर पर शिक्षित विद्यार्थियों की कुल संख्या , उसमें से रोजगार पा चुके और बेरोजगार बचे हुए विद्यार्थियों आदि की गणना का काम भी शायद ही होता हो । तो फ़िर ऐसे में ये विभाग सरकार के लिए , विद्यार्थियों के लिए , और समाज के लिए , सभी के लिए एक बेकार सी संस्था बन कर रह गया है , तो क्यों नहीं या तो इसे पूरी तरह ही बंद कर दिया जाए या फ़िर जिस उद्देश्य के लिए इनकी स्थापनी की गई थी उनके लिए इसे तैयार किया जाए ????? आपको क्या लगता है ??

शनिवार, 20 मार्च 2010

मालावती की माला से भी गंदा है ये ...इन पर भी थू थू थू




जी हां दलित मसीहा का चोला चंचा तो खूब उछला और आप सबने उसे देखा भी न सिर्फ़ देखा बल्कि भर भर के थूकम फ़जीहत भी की ..करनी भी चाहिए थी ..बेशक उससे मालावती की माला में लगे नोटों का वजन रत्ती भर भी कमी न आए और न ही शर्म उन्हें छू सके । मगर आज कुछ उससे भी भयानक उससे भी घटिया और उससे भी ....छोडोए आप खबर पढिए पहले

खबर है कि पंजाब में सड रहा है सैकडों करोड का गेहूं । खबर ये है कि अब जबकि इस गेहूं की नई फ़सल भी लगभग तैयार है तो पता चला है कि पिछले दो सालों से तैयार और जमा गेहूं जो लाखों मीट्रिक टन है ..वो अब सडने लगा है ...कारण भी तो सुनते जाईये ..उसे रखने के लिए सरकारों के पास जगह नहीं है ।गोदाम नहीं है ..वाह जिस देश में लाखों लोगों का पेट खाली है उस देश की सरकार के पास अनाज रखने के लिए जगह नहीं है और हालत ये है कि अब वो सडने के कगार पर है । पंजाब में इस वक्त 72 लाख मीट्रिक टन गेहूं पडा है जिसे केंद्र के लिए खरीदा गया था । इसमें से 68 लाख मीट्रिक टन पंजाब सरकर ने केंद्र के लिए खरीदा है जबकि 4 लाख टन फ़ूड कारपोरेशन औफ़ इंडिया ने खरीदा है । इसमें से 80 प्रतिशत गेहूं खुले में पडा हुआ है ..यानि बारिश धूप लग के एकदम सौलिड हो रहा है । और हमारी ..सरकार ..जय हो जय हो का नारा लगाने वाली ..गरीबों का ध्यान रखने वाली सरकार ...ने आम आदमी को बीस रुपए आटा खरीदने के लिए रख छोडा है ....और भूखे कितने हैं उसकी गिनती कौन करे । अब आगे की भी पढते जाईये । मौजूदा फ़सल के तैयार होते ही गेहूं समेत कुल अनाज की मात्रा बढकर 251 लाख टन हो जाएगी । जबकि पंजाब में इस वक्त सिर्फ़ 181 लाख मीट्रिक टन अनाज रखने की ही क्षमता है । यानि आने वाले समय में लगभग 70 लाख ....जी हां ....लगभग 70 लाख मीट्रिक टन अनाज ..खराब होने के लिए तैयार हो जाएगा । जबकि अभी ज्यादा समय भी नहीं बीता है जब आस्ट्रेलिया से गेहूं मंगाने की  उच्च स्तरीय सहायता ..गरीबों के लिए सरकार ने मुहैय्या कराई थी ।

     तो अब बताईए कि ..मालावती की माला से आप ज्यादा प्रसन्न हुए कि सरकार के इस नायाब प्रयास से । अरे हम आप भारतीय गणतंत्र की  गौरवमयी जनता हैं , ये आपका हमारा सौभाग्य कि कभी हमारे जनसेवक ..कभी खुद सरकार आपको हमें ..उनके ऊपर थू थू करने का सुनहरा मौका देती है ...और देती ही रहती है ..मगर सोच रहा हूं कि ...वे बेचारे जो जाने कब से भूखे प्यासे बैठे हैं ...वो थूक भी कहां पाते होंगे ??

गुरुवार, 18 मार्च 2010

असमय परिपक्व होता बचपन



अभी हाल ही में एक समाचार देखा सुना कि , किसी विद्यालय में एक सातवीं कक्षा में पढ रहे  बालक ने , अपने ही विद्यालय की तीसरी कक्षा में पढ रही एक बच्ची से बलात्कार करने की कोशिश की , ऐसा ही एक समाचार था कि कुछ बच्चों ने अपने एक सहपाठी को खेल के मैदान में ही पीट कर मार डाला , कुछ बच्चों ने अपनी  ही कक्षा के एक बच्चे को फ़िरौती के लिए अगवा किय और फ़िर हत्या कर दी ..आदि आदि । अब ये कोई ऐसी घटनाएं नहीं रही हैं जो साल दो साल में कभी कभार हो रही हैं । बल्कि अब तो ये आए दिनों की बात है । यदि इन आंकडों में बच्चों द्वारा ...मोटर दुर्घटना में लिप्तता, नशे की लत में लिप्तता, अश्लील सामग्रियों के उपयोग आदि जैसे आंकडे भी मिला दिये जाएं तो तस्वीर इतनी भयानक निकलती है कि ..क्षण भर में ही ये अंदाज़ा लग जाता है कि देश का भविष्य बनने वाले बच्चे ही असमय परिपक्व ...या कहा जाए कि अधकचरे परिपक्व हो रहे हैं ।

      
                आज बच्चे अपने चारों तरफ़ जैसा माहौल पा रहे हैं , टीवी नेट आदि पर जिस तरह की मनोरंजन सामग्री उन्हें अपने सामने दिख रही है , स्कूलों कालेजो जो वातावरण बना हुआ है और सबसे अधिक घर में जो परिवेश मिल रहा है उसीका परिणाम है कि आज बच्चे अपने स्वाभाविक बाल सुलभ बचपन से दूर होकर , बेहद उग्र हिंसक और तनावग्रस्त होते जा रहे हैं । आज शायद ही कोई बच्चा ...नाना नानी दादा दादी की गोद में सर रख कर कहानियां सुनते हुए सोता हो । शायद ही किसी परिवार में सुबह शाम की प्रार्थना आरती में बच्चा मां पिता के साथ खडे होकर उसे गाता हो । सच तो ये है कि पूरे परिवार , समाज और देश के ही संस्कार बदल रहे हैं तो ऐसे में बच्चे उससे कैसे अछूते रह सकते हैं । जो रही सही कसर है वो पूरी कर दी है आज की अति प्रतिस्पर्धी युग ने जिसमें बच्चे को उसके अल्पायु में ही ये अहसास करा दिया जा रहा है कि यदि वो असफ़ल है तो फ़िर जीवन ही बेकार है । बच्चों में बढती आत्महत्या की प्रवृत्ति इस बात का प्रमाण है ।

  हालांकि पश्चिमी देशों में तो ये परिपक्वता बहुत पहले से ही आई हुई है और वहां इसके गुण दोष समय समय पर परिलक्षित होते भी रहते हैं । किंतु भारत के बच्चों और पश्चिमी देशों के बच्चों के मानसिक स्तर , और सामाजिक परिवेश में बहुत अंतर है यही कारण है कि ये बात सभी को खल रही है । यदि इसके लिए भी समाज सरकार से किसी कानून की दरकार रखता है तो वो बेमानी है । सही मायने में तो एक हर व्यक्ति का , हर परिवार का , और हर समाज का खुद का दायित्व और जिम्मेदारी है कि यदि वो सचमुच चाहता है कि आने वाला कल सुरक्षित और सुंदर हो ....सबके लिए तो इसकी शुरूआत घर के भीतर से ही शुरू करनी होगी और सभी को करनी होगी । अन्यथा फ़िर उपर लिखित घटनाओं से अभ्यस्त होने के लिए खुद को तैयार करना होगा ....फ़ैसला खुद हमारे हाथों में है ॥




बुधवार, 17 मार्च 2010

गुटखा पान मसाला : एक धीमा ज़हर

गुटखा : एक धीमा जहर 



आज से एक दशक पहले तक आम लोगों ने यदि किसी पान मसाले के बारे में देखा सुना था या कि उपयोग किया करते थे तो वो शायद पान पराग और रजनीगंधा हुआ करता था । उसकी कीमत उन दिनों भी आम पान मसाले या सुपाडी से कुछ ज्यादा हुआ करती थी । और लोग बडे शौक से उसे खाया चबाया करते थे । मगर तब तक ये एक बुरी लत नहीं बनी थी और न ही तब आज की तरह घटिया पान मसाले जो अब गुटखे के नाम से प्रचलित हैं , का चलन इतने ज़ोरों पर था । मगर पिछले दस वर्षों में इस गुटखे खाने का चलन इतना जोर पकड गया है कि अब ये एक धीमे ज़हर के रूप में सबको डसता जा रहा है । सबसे दुख की बात तो ये है कि इस गुटखे खाने की लत के शिकार सबसे अधिक ११ वर्ष से ४० वर्ष की आयु के हैं । 


          बिहार , उत्तर प्रदेश , बंगाल , उडीसा, दिल्ली , आदि राज्यों में तो प्रति वर्ष इसकी खपत में लगभग ३८ प्रतिशत की वृद्धि ही ईशारा कर रही है कि ये अब एक नशे के लत की तरह सबको जकडता जा रहा है । आज बाज़ार में सिर्फ़ पचास पैसे एक रुपए के पाऊच में उपलब्ध गुटखे का ये पैकेट ,दांतों के  खराब होने  मुंह एवं गले के कैंसर , गुर्दे , आमाशय, आंत आदि सबके लिए बेहद ही घातक साबित होता है । इसके ज़हरीले होने का प्रमाण इस बात का उदाहरण अक्सर देकर किया जाता है कि यदि किसी गुटखे के पाऊच में थोडे से गर्म पानी की बूंदों के साथ ..ब्लेड के टुकडे भी रख दिए जाएं तो कुछ समय बाद वे भी गले हुए मिलते हैं । अब इसका अंदाज़ा सहज ही लगाया जा सकता है कि ये शरीर के अंदर जाकर कितना भयानक प्रभाव छोडता होगा ।


 इस मुद्दे पर गौर करने लायक एक और बात ये है कि ,शायद ही इस बात पर किसी ने कभी ध्यान दिया हो कि इन गुटखों का घटिया निर्माण और बहुत ही बेकार सामग्री के इस्तेमाल के कारण इसका मूल्य काफ़ी कम होता है । इसका दोहरा बुरा प्रभाव आम व्यक्ति पर पडता है । एक तरफ़ तो एक घटिया उत्पाद के सेवन से वो लगातार ही अपनी सेहत से खिलवाड करता जाता है , दूसरी तरफ़ चूंकि ये बेहद सस्ता होता है इसलिए धीरे धीरे खाने वाले की लत बढती जाती है । मोटे मोटे आंकडों के हिसाब से इसे खाने वाला एक व्यक्ति प्रति दिन कम से कम तीन गुटखे और ज्यादा से  ज्यादा पंद्रह बीस तक भी खा जाते हैं । सबसे खौफ़नाक बात ये है कि स्कूलों के बाहर इसकी खासी खपत देखी गई है । मतलब स्पष्ट है , आज के बच्चे भी तेजी से इसकी गिरफ़्त में फ़ंसते जा रहे हैं ।हैरत और दुख की बात ये भी है कि सरकार को इससे शराब की तरह बहुत बडी आय भी नहीं हो रही है जो कि सरकार इस पर अंकुश नहीं लगा रही है । यदि जल्दी ही इस ज़हर को फ़ैलने से नहीं रोका गया तो एक दिन ऐसा आएगा जब ये ज़हर लाईलाज़ हो जाएगा ।

रविवार, 14 मार्च 2010

नक्कालों से सावधान ....मगर कौन हो सावधान ?



आज देश में नक्कालों की समस्या बहुत चुपके चुपके मगर बहुत तेज़ी से बढती ही जा रही है । कोई भी उत्पाद, कोई भी सामग्री , खान पान की वस्तुएं , दवाईयां आदि सभी में नक्काली का कारोबार खूब फ़लफ़ूल रहा है । कोई भी पर्व त्यौहार ऐसा नहीं है जब मीडिया द्वारा ये न दिखाया बताया जाता हो कि अमुक स्थान पर बहुत बडी मात्रा में नकली खोया पनीर और मिठाईयां पुलिस द्वारा पकडी गई हैं । नकली शराब के सेवन से लोगों के मरने की घटनाएं भी आए दिन होती ही रहती हैं ।और सबसे दुख की बात है कि सरकार अपना एक प्रिय नारा " नक्कालों से सावधान " लगा कर इतिश्री कर लेती है ।

   यदि बाजार में खप रहे और खपाए जा रहे उत्पादों पर नज़र रख रहे विश्लेषकों की बात को सच माना जाए तो  उनके अनुसार , आजकल बाजार में उपल्ब्ध दैनिक उपयोग की वस्तुओं , तेल , क्रीम , पाउडर , टूथपेस्ट , आदि में नकली उत्पादों का प्रतिशत ..18 प्रतिशत  है , जबकि खाद्य वस्तुओं  में नकली पदार्थों की मिलावट की दर तो लगभग 32 प्रतिशत तक पहुंच चुकी है । और  इस बात का अंदाज़ा तो एक आम आदमी को शायद ही हो कि बाज़ार में उपलब्ध दवाईयों  में नकली दवाईयों का प्रतिशत जहां महानगरों में 17 से 22 प्रतिशत है तो वहीं दुखद  बात ये है कि बिहार और उत्तरप्रदेश जैसे राज्यों में नकली दवाईयों का प्रतिशत लगभग 38 प्रतिशत तक पहुंच चुका है । यही हाल शीतल पेय के नाम पर बेचे जा रहे पेय पदार्थों के साथ भी है । पिछले कुछ समय  में देश नकली और घटिया शराब पीने की वजह से लगातर हो रही मौतों ने भी बता दिया है कि नकली शराब की समस्या भी अब विकराल रूप धारण कर चुकी है ।

 एक तरफ़ तो सरकर नकली वस्तुओं से सावधान रहने की सलाह देती है , किंतु खुद ही इस समस्या से आंखे मूंद कर लापरवाह या फ़िर किसी छुपे हुए फ़ायदे के लिए चुप बैठी रहती है । नकली खाद्य पदार्थों, नकली शीतल पेयों और सबसे बढकर नकली दवाईयां आखिर किस वजह से धीमा ज़हन न माना जाए कोई बता सकता है ? तो फ़िर हर बार नकली पदार्थ बेचते दुकानदार , इन्हें बनाने वाले लोग , पुलिस और कानून के हत्थे चढने के बावजूद किस तरह से बच निकलते हैं । उन्हें भी मासूमों की हत्या या हत्या के प्रयास जैसे जुर्मों की श्रेणी में रख कर क्यों नहीं क्ठोर दंड दिया जाता है ? इसका तो सीधा सा मतलब ये है कि सरकार , प्रशासन , संबंधित संस्थाएं सब के सब जानबूझ कर इस धंधे को फ़लने फ़ूलने दे रहे हैं । और फ़िर हो भी क्यों न आखिर नकली वस्तुओं का सेवन करने वाला वर्ग ....वही सबसे बडा वर्ग ....गरीब और मध्यम वर्ग ही तो है , तो उसके लिए पहले ही कब इस सरकार ने सोचा है जो अब सोचेगी । मगर मुझे लगता है कि आम लोगों को जब भी ऐसी दुकानों, ऐसे स्थानो, और ऐसी फ़ैक्ट्रियों का पता चलता है जहां ये नक्काली का कारोबार चल रहा है उसे खुद या समूह बना कर पूरी तरह नष्ट कर देना चाहिए ..यही इसका सबसे बेहतर उपाय है ॥

शुक्रवार, 12 मार्च 2010

विकास या विध्वंस : तय खुद करना है


आज विश्व समाज जिस दो राहे पर खड़ा है उसमें दो ही खेमे स्पष्ट दिख रहे हैं। पहला वो जो किसी भी कारण से किसी ना किसी विध्वंसकारी घटना, प्रतिघटना, संघर्ष, आदि में लिप्त है । दूसरा वो जो विश्व के सभी अच्छे बुरे घटनाक्रमों , उतार चढाव , राजनितिक, सामाजिक और आर्थिक परिवर्तनों के साथ अपने विकास के रास्ते पर अपनी गति से बढ़ रहा है। आप ख़ुद ही देख सकते हैं कि , एक तरफ़, अमेरिका, इंग्लैंड, जापान। यूरोप, चीन, भारत, फ्रांस और कई छोटे बड़े देश अपनी अपनी शक्ति और संसाधनों तथा एक दूसरे के सहयोग से ख़ुद का और पूरे विश्व का भला और विकास करने में लगे हुए हैं। वहीँ एक दूसरा संसार जिसमें पाकिस्तान, इरान, अफगानिस्तान, कई अरब और अफ्रीकी देश, आदि जैसे देश हैं जो किसी न किसी रूप में अपने पड़ोसियों और एक हद तक पूरे विश्व के लिए अनेक तरह की परेशानियों का सबब बने हुए हैं। या कहें तो उनका मुख्य उद्देश्य ही अब ये बन गया है कि अपने नकारात्मक दृष्टिकोण और क्रियाकलापों से पूरे विश्व का ध्यान अपनी ओर लगाये रखें ।

ये जरूर है कि जो देश बिना किसी अदावत के अपने विकास और निर्माण में लगे हैं , वे ही आज दूसरे विश्व जो कि विध्वंसकारी रुख अपनाए हुए हैं, उनके निशाने पर हैं, कभी आतंकवादी हमलों, तो कभी अंदरूनी कलह के कारण से उनके पड़ोसी यही चाहते हैं कि किसी न किसी रूप में वे भी भटकाव का रास्ता पकड़ लें। लेकिन ये तो अब ख़ुद उस समाज को ही तय करना होगा कि उसे किस रास्ते पर चलना है, वर्तमान में जबकि भारत और पकिस्तान के बीच रिश्ते अच्छी दौर में नहीं हैं , हालांकि दिखाने की कोशिश तो हो रही है तो , ऐसे में तो ये प्रश्न और भी महत्वपूर्ण हो जाता है । क्योंकि इतना तो तय है कि आप एक साथ चाँद पर कदम रखने और दुश्मनों के साथ युद्ध में उलझने का काम नहीं कर सकते, खासकर तब तो जरूर ही, जब आपके सामने अमेरिका का उदाहरण हो। जिस अमेरिका ने ११ सितम्बर के हमले की प्रतिक्रयास्वरूप पहले इराक़ और फ़िर अफगानिस्तान का बेडा गर्क किया उसे देर से ही सही, आज भारी आर्थिक मंदी का सामना करना पर रहा है।

आज विश्व सभ्यता जिस जगह पर पहुँच चुकी है उसमें तो अब निर्णय का वक्त ही चुका है कि आप निर्माण चाहते हैं या विनाश, और ये भी तय है कि जिसका पलडा भारी होगा, आगे वही शक्ति विश्व संचालक शक्ति होगी इन सारे घटनाक्रमों में एक बात तो बहुत ही अच्छी और सकारात्मक है कि आतंक और विध्वंस के पक्षधर चाहे कितनी ही कोशिशें कर लें मगर एक आम आदमी को अपने पक्ष में अपनी सोच के साथ वे निश्चित ही नहीं मिला पायेंगे। और यही इंसानियत की जीत होगी। अगले युग के लिए शुभकामनायें...

मंगलवार, 9 मार्च 2010

नशा है अपराध दर में वृद्धि का बडा कारण




पिछले कुछ वर्षों में देश में होने वाले अपराध दर में बहुत ही तेजी से वृद्धि हुई है सबसे दुखद बात तो ये रही है कि बहुत समय तक अपराध और खून खराबे से दूर रहने वाले ग्रामीण प्रदेश भी धीरे धीरे इनकी चपेट में आते गए हैं अपराधशास्त्र पर अध्य्यन और अन्वेषण करने वाले बताते हैं कि हालांकि सामाजिक असंतुलन , आर्थिक स्तर में बडा अंतर और इनसे जुडे और भी कई कारण हैं मगर एक बडा प्रमुख कारण है नशा जी हां अपराध ब्यूरो रिकार्ड के अनुसार , बडे छोटे अपराधों, बलात्कार, हत्या, लूट, डकैती, राहजनी आदि तमाम तरह की वारदातों में नशे विशेषकर शराब के सेवन का मामला लगभग ७८ प्रतिशत तक है और बलात्कार जैसे जघन्य अपराध में तो ये दर ९७ प्रतिशत तक पहुंची हुई है अपराधजगत की क्रियाकलापों पर गहन नज़र रखने वाले मनोविज्ञानी बताते हैं कि अपराध करने के लिए जिस उत्तेजना, मानसिक उद्वेग और दिमागी तनाव की जरूरत होती है उसकी पूर्ति ये नशा करता है जिसका सेवन एक उत्प्रेरक की तरह काम करता है मस्तिष्क के लिए

सबसे दुखद आश्चर्य की बात ये है कि सरकार और प्रशासन द्वारा ये बात भलीभांति जानने के बावजूद , आबकार , से होने वाली अथाह आर्थिक आय के लोभ के कारण मद्यपान को बढावा दिया जा रहा है गांधी जी स्वतंत्रता के पहले और उसके बाद भी मद्यनिषेध के पक्षधर थे , मगर शायद कालांतर में सरकारों को और समाज को भी शराब के सेवन को बढावा देना ही ज्यादा श्रेयस्कर मार्ग लगा और अब तो जैसे धीरे धीरे इसे और बढावा ही दिया जा रहा है गली गली में खुलने वाले पब , शराब की दुकानें , आदि तो पहले से ही भरमार हैं अब तो सरकार की नई नीतियों के तहत विभिन्न किस्म की शराब घर पर ही और्डर पर उपलब्ध कराने की कमाल की योजनाएं भी बनाई गई हैं इनके साथ साथ हर छोटे मोटे त्यौहार , उत्सव , किसी आयोजन , समारोह आदि पर शराब का सेवन तो जैसे एक संस्कृति और परंपरा सी बन गई है इसका परिणाम ये हुआ है कि सिर्फ़ बहुत सारे अपराध बल्कि आए दिन होने वाली सडक दुर्घटनाओं, हादसों आदि के लिए भी यही जिम्मेदार हैं अब तो नकली शराब के सेवन की घटनाओं में होने वाली मौतों की संख्या में भी निरंतर वृद्धि हो रही है

आज जिस तरह से इसके सेवन की प्रवृत्ति बढ रही है , आज का युवा वर्ग , और अब तो महिलाएं भी से शराब के सेवन की आदि होती जा रही हैं ,उससे ये तो तय है कि आने वाले समय में इसके कुप्रभाव खुद उनको और उनके साथ साथ इस समाज को भी झेलने पडेंगे बेशक अपराध के लिए नशे के सेवन के अलावा और भी बहुत से कारक जैसे , बेरोजगारी और आर्थिक असामनता भी जिम्मेदार हैं मगर चूंकि इनका हल तुरत फ़ुरत में ढूंढना तो कतई संभव नहीं है ही नशे को इतनी जल्दी प्रतिबंधित करना आसान है , मगर अभी से इसे हतोत्साहित करने के लिए कुछ कदम तो उठाए ही जा सकते हैं सरकार और प्रशासन अपना इतना बडा आर्थिक नुकसान उठाने को तैयार होंगे ऐसा लगता तो नहीं है इसलिए समाज को खुद ही इस दिशा में पहल करनी होगी , जैसा कि कुछ प्रांतों और स्थानों में महिलाओं ने एक मुहिम चला कर किया भी था भविष्य में ये ऐसी मुहिम ज़ोर पकड लें तो ही कुछ परिवर्तन सकता है


Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...