दक्षिण भारतीय सिनमा जगत का एक बड़ा नाम , मलयालम फिल्म उद्योग इन दिनों अपने उस काले अध्याय का सामना कर रहा है या कह सकते हैं कि उसका काला सच सामने आ गया है। ऐसा हुआ है जस्टिस हेमा समिति की वो रिपोर्ट को सरकार को पांच वर्ष पहले सौंपी गई थी जिसे 19 अगस्त को सार्वजनिक किया गया।
जस्टिस हेमा समिति की रिपोर्ट में मलयालम सिनेमा में महिलाओं के साथ होने वाले यौन उत्पीड़न और लैंगिक असमानता के मुद्दों की जांच की गई है। इस समिति का गठन केरल सरकार द्वारा किया गया था, जिसकी अध्यक्षता सेवानिवृत्त न्यायाधीश जस्टिस के हेमा ने की थी। रिपोर्ट में मलयालम फिल्म उद्योग में एक शक्तिशाली पुरुष समूह के अस्तित्व का खुलासा हुआ है, जिसमें 15 प्रमुख लोग शामिल हैं, जिनमें निर्देशक, निर्माता और अभिनेता शामिल हैं। रिपोर्ट के अनुसार, यह शक्तिशाली पुरुष समूह यह तय करता है कि कौन उद्योग में रहेगा और किसे फिल्मों में कास्ट किया जाएगा ¹।
मलयालम फिल्म उद्योग में जस्टिस हेमा कमिटी की रिपोर्ट के बाद कई अभिनेताओं पर आरोप लगे हैं, जिनमें से कुछ प्रमुख नाम हैं:दिलीप: अभिनेता दिलीप पर भावना मेनन के मामले में साजिश रचने का आरोप है।एम मुकेश: अभिनेता और सीपीआई (एम) विधायक एम मुकेश पर टेस जोसेफ और मीनू मुनीर द्वारा यौन उत्पीड़न के आरोप लगाए गए हैं।जयसूर्या: अभिनेता जयसूर्या पर मीनू मुनीर द्वारा यौन उत्पीड़न के आरोप लगाए गए हैंमणियानपिल्ला राजू: अभिनेता मणियानपिल्ला राजू पर मीनू मुनीर द्वारा यौन उत्पीड़न के आरोप लगाए गए हैं।इदावेला बाबू: अभिनेता इदावेला बाबू पर मीनू मुनीर द्वारा यौन उत्पीड़न के आरोप लगाए गए हैं ¹।
मी टू प्रकरण एक वैश्विक आंदोलन है जो यौन उत्पीड़न और यौन दुर्व्यवहार के खिलाफ आवाज उठाता है। यह आंदोलन 2017 में शुरू हुआ था, जब हॉलीवुड की अभिनेत्री एलिसा मिलानो ने ट्विटर पर #MeToo हैशटैग का इस्तेमाल करते हुए अपने साथ हुए यौन उत्पीड़न के अनुभव साझा किए थे।इसके बाद, दुनिया भर की कई महिलाओं ने अपने साथ हुए यौन उत्पीड़न और दुर्व्यवहार के अनुभव साझा किए, जिनमें कई प्रसिद्ध हस्तियाँ भी शामिल थीं। इस आंदोलन ने यौन उत्पीड़न और दुर्व्यवहार के खिलाफ आवाज उठाने के लिए एक मंच प्रदान किया और समाज में इस मुद्दे पर चर्चा शुरू की।
भारत में भी मी टू आंदोलन ने कई लोगों को अपने साथ हुए यौन उत्पीड़न के अनुभव साझा करने के लिए प्रेरित किया, जिनमें कई प्रसिद्ध हस्तियाँ भी शामिल थीं। इस आंदोलन ने भारत में यौन उत्पीड़न और दुर्व्यवहार के खिलाफ आवाज उठाने के लिए एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
बॉलीवुड में महिलाओं के शोषण के कई मामले सामने आए हैं, जिनमें यौन उत्पीड़न, दुर्व्यवहार और लैंगिक असमानता शामिल हैं। कुछ प्रमुख मामले हैं:तनुश्री दत्ता और नाना पाटेकर का मामला: तनुश्री दत्ता ने नाना पाटेकर पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया था, जिसने मी टू आंदोलन को भारत में शुरू किया था।विकास बहल और फैंटम फिल्म्स का मामला: विकास बहल पर यौन उत्पीड़न के आरोप लगाए गए थे, जिसके बाद फैंटम फिल्म्स को बंद कर दिया गया था। अनु मलिक और सोना महापात्रा का मामला: सोना महापात्रा ने अनु मलिक पर यौन उत्पीड़न के आरोप लगाए थे, जिसके बाद अनु मलिक को इंडियन आइडल से निकाल दिया गया था।आलोक नाथ और विनता नंदा का मामला: विनता नंदा ने आलोक नाथ पर यौन उत्पीड़न के आरोप लगाए थे, जिसके बाद आलोक नाथ को कई परियोजनाओं से निकाल दिया गया था।इन मामलों ने बॉलीवुड में महिलाओं के शोषण के मुद्दे को उजागर किया और इस मुद्दे पर चर्चा शुरू की
समाज शास्त्रियों की माने तो सिनेमा जगत में महिलाओं के शोषण को रोकने के लिए कई उपाय किए जा सकते हैं:जैसे शिकायत निवारण तंत्र: सिनेमा जगत में एक प्रभावी शिकायत निवारण तंत्र स्थापित करना चाहिए जो महिलाओं को अपनी शिकायतें दर्ज कराने के लिए सुरक्षित और समर्थन प्रदान करे। लैंगिक समानता प्रशिक्षण: सिनेमा जगत में काम करने वाले सभी लोगों को लैंगिक समानता और यौन उत्पीड़न के बारे में प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए। महिला सुरक्षा अधिकारी: सिनेमा जगत में महिला सुरक्षा अधिकारी नियुक्त किए जाने चाहिए जो महिलाओं की सुरक्षा और कल्याण के लिए जिम्मेदार हों। शोषण विरोधी नीतियां: सिनेमा जगत में शोषण विरोधी नीतियां बनाई जानी चाहिए जो स्पष्ट रूप से यौन उत्पीड़न और दुर्व्यवहार को परिभाषित करें और दंडित करें।महिला संगठनों को बढ़ावा: सिनेमा जगत में महिला संगठनों को बढ़ावा दिया जाना चाहिए जो महिलाओं के अधिकार के लिए निडर होकर खड़ा हो सके।
सिनेमा जगत में महिलाओं के शोषण में फिल्मों की भूमिका जटिल और बहुस्तरीय है। फिल्में हानिकारक स्टीरियोटाइप्स को बढ़ावा दे सकती हैं और महिलाओं को वस्तु बना सकती हैं, जिससे शोषण की संस्कृति बनती है। यहाँ कुछ तरीके हैं जिनसे फिल्में शोषण में भूमिका निभा सकती हैं:
वस्तुकरण: फिल्में अक्सर महिलाओं को वस्तु बना देती हैं, उन्हें केवल उनके शारीरिक रूप और यौन आकर्षण तक सीमित कर देती हैं।स्टीरियोटाइप्स: फिल्में महिलाओं के बारे में हानिकारक स्टीरियोटाइप्स को बढ़ावा देती हैं, उन्हें कमजोर, आज्ञाकारी और पुरुषों पर निर्भर दिखाती हैं।हिंसा का सामान्यीकरण: फिल्में महिलाओं के प्रति हिंसा को सामान्य बना सकती हैं, इसे स्वीकार्य या यहां तक कि ग्लैमरस बना सकती हैं।पितृसत्तात्मक मूल्यों को मजबूत करना: फिल्में पितृसत्तात्मक मूल्यों और मान्यताओं को मजबूत कर सकती हैं, यह विचार बढ़ावा देती हैं कि पुरुष महिलाओं से श्रेष्ठ हैं।प्रतिनिधित्व की कमी: फिल्में अक्सर महिलाओं के विविध प्रतिनिधित्व की कमी होती है, उन्हें हाशिए पर डाल देती हैं और यह विचार बढ़ावा देती हैं कि वे कथा के केंद्र में नहीं हैं।लिंगवादी संवाद और हास्य: फिल्में अक्सर लिंगवादी संवाद और हास्य का उपयोग करती हैं, जो महिलाओं के प्रति हानिकारक दृष्टिकोण को बढ़ावा देती हैं। शोषण का ग्लैमराइजेशन: फिल्में शोषण को ग्लैमराइज कर सकती हैं, इसे वांछनीय या स्वीकार्य बना सकती हैं।
हालांकि, फिल्में इन मुद्दों को चुनौती देने और परिवर्तन को बढ़ावा देने में भी भूमिका निभा सकती हैं। मजबूत, जटिल महिला पात्रों को चित्रित करके और शोषण और हिंसा जैसे मुद्दों को संबोधित करके, फिल्में सांस्कृतिक दृष्टिकोण को बदलने और अधिक समान उद्योग को बढ़ावा देने में मदद कर सकती हैं।न्यायमूर्ति हेमा समिति ने मलयालम फिल्म उद्योग पर एक महत्वपूर्ण प्रभाव डाला है, जिसमें सभी पेशेवरों के लिए, विशेष रूप से महिलाओं के लिए, एक सुरक्षित और अधिक सम्मानजनक कार्य वातावरण की आवश्यकता पर प्रकाश डाला गया है। यह एक अधिक समावेशी और न्यायसंगत उद्योग बनाने की दिशा में एक कदम है।