रविवार, 29 मई 2011

देसी पेय पदार्थों की लुप्त होती संस्कृति ...आज का मुद्दा







दिनोंदिन बदलते हुए इस भौगोलिक परिवेश में अब , गर्मियों के दिनों का या कहा जाए कि ग्रीष्म ऋतु का विस्तार सा हुआ है फ़रवरी के अंतिम सप्ताह से शुरू होकर नवंबर तक खिंचने वाली गर्मी , न सिर्फ़ शहरों का बल्कि ग्रामीण क्षेत्रों का भी हाल बुरा करके रखती है । एक समय ऐसा आता है जब पूरा मैदानी इलाका तपते हुए तवे के समान हो जाता है । ऐसा नहीं कि अबसे पहले इतनी गर्मी नहीं हुआ करती थी , बल्कि पहले तो महीनों तक लू झुलसाए रखता था लोगों को । लेकिन तबसे लेकर एक और बडी तब्दीली आई है लोगों की दिनचर्या में जिसने बहुत ही परिवर्तित किया है स्थितियों को और भारत की कई परंपराओं को । 


एक समय हुआ करता था , जब गर्मियों से लडने के लिए , खुद को सन स्ट्रोक , प्यास , और लू आदि की चपेट में आने के लिए देसी परंपराओं की पुरातन खानपान व्यवस्था का ही सहारा लिया करते थे । नींबू पानी या शिकंजी, बेल का ठंडा शर्बत , रूह अफ़ज़ा जैसे जाने कितने ही शर्बत ,सत्तू , जलजीरा , दही , लस्सी , मट्ठा और इन जैसे जाने ही कितने ही पेय पदार्थों को नियमित रूप से दिनचर्या का हिस्सा बना लिया जाता था ताकि , शरीर में पानी की कमी को कम किया जा सके और तासीर भी ठंडी रहे । इन देसी शीतल पेयों में हर एक न सिर्फ़ अपने स्वाद में बेहतरीन और अलग था बल्कि स्वास्थय के लिहाज़ से भी बहुत ही लाभदायक था । गर्मियों के दिनों में तो इसका सेवन एक ढाल की तरह ही काम किया करता था । समय बदला और स्क्वैश ने दस्तक थी , सभी ग्रीष्मकालीन फ़लों , के रस को बोतलबंद रूप में घर घर तक पहुंचाने का सिलसिला । चलिए ये भी ठीक था , कम से कम शर्बत के बहाने से मौसमी फ़लों के स्वाद के साथ ठंडा पानी शरीर में पहुंचता तो था । 

वैश्वीकरण के दौर के शुरू होते ही जो कुछ बडी तब्दीलियां आईं उनमें से एक था , भारत के घरों , दफ़्तरों , दावतों , दुकानों तक शीतल पेय पदार्थों  की शुरूआत । घर आए अतिथि के स्वागत की परंपरा जो पहले शर्बत से शुरू हुआ करती थी वो अब शीतल पेयों की बोतलों में बंद होने की तैयारी की गई थी । बावजूद इस बात के कि पिछले कई सालों से लगातार ये बात उठ रही है कि इन शीतल पेय की बोतलों में कीटनाशक के साथ ही और भी अन्य रसायन ज़हर का काम कर रहे हैं । आज के बच्चों में , मोटापा , चिडचिडापन , रक्तचाप आदि की समस्या के लिए मुख्य रूप से इन शीतल पेय पदार्थों का सेवन ही है । जिस तरह से अलग अलग बहानों से इन शीतल पेय की कंपनियों ने विज्ञापन के बहाने से अपने पसंदीदा चरित्रों से उनका प्रचार करवाकर बच्चों तक को इसकी आदत लगाई है उससे स्पष्ट दिखता है कि ये सब एक सोची समझी हुई आर्थिक नीति के तहत ही किया जा रहा है । 

इस पूरे प्रकरण में जो सबसे ज्यादा अफ़सोसजनक बात है वो है सरकार व प्रशासन की उदासीनता । हालांकि राजस्थान , बिहार आदि जैसे कुछ प्रदेश इससे थोडे दूर हैं किंतु अन्य सभी शहरों , नगरों और अब तो ग्रामीण क्षेत्रों में भी पूरी योजना के साथ , पारंपरिक पेय पदार्थों के विकल्प के रूप में इन शीतल पेय पदार्थो को थोपने की साजिश रची जा रही है , किंतु सरकार , और प्रशासन को इस बात जरा भी चिंता नहीं है । जबकि असलियत ये है कि आज भी लोगों को शिकंजी ,जलजीरा , थम्स अप और लिम्का से ज्यादा पसंद आता है । अगर सरकार थोडी सी कोशिश करे तो शीतल दुग्ध पदार्थों , जैसे दूध , दही , लस्सी , मट्ठा आदि के विक्रय को बढावा देकर फ़िर से उनको बाजार से लडने लायक खडा किया जा सकता है । इस क्षेत्र में व्यवसाय कर रही कंपंनियों को भी इस बाजार की असीम संभावना को देखते हुए इस ओर ध्यान देना चाहिए । और आम लोगों को ये सोचना चाहिए कि आज शीतल पेय पदार्थों और फ़लों के जूस आदि में किस तरह से जान से खिलवाड करने वाले रसायनों का प्रयोग किया जा रहा है , बर्फ़ और पानी की गुणवत्ता संदेह में है , ऐसे में यदि घर में थोडे से श्रम से उससे बेहतर चीज़ उपलब्ध हो रही है तो वही श्रेयस्कर है । देखते हैं कि सरकार कब चेतती है 

मंगलवार, 24 मई 2011

महामारी का नया रूप : मधुमेह.....आज का मुद्दा




चित्र , गूगल से साभार 


पिछले कुछ समय में विश्व स्वास्थय संगठन ने भारत जैसे बहुत से देशों को ये चेतावनी दी है कि आने वाले समय में मधुमेह का प्रकोप इतना बढने वाला है कि वो एक महामारी जैसा रूप ले लेगा । एक अनुमान के मुताबिक अगले ही कुछ सालों में सिर्फ़ भारत में ही साढे चार करोड लोग डायबिटीज यानि मधुमेह की चपेट में आ चुके होंगे । खुद भारत के स्वास्थय मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार , वर्ष २०१५ तक देश में मधुमेह के मरीजों की संख्या लगभग ४.५८ करोड तक हो जाएगी , जिसमें आश्वर्यजन रूप से १.३२ करोड लोग तो सिर्फ़ ग्रामीण भारत से होंगे । रिपोर्ट के अनुसार देश में होने वाले कुल स्ट्रोक के मामलो में से तीस प्रतिशत के लिए भी मधुमेह ही जिम्मेदार है ।


नेशनल हेल्थ प्रोफ़ाइल-२०१० नाम से तैयार स्वास्थय मंत्रालय की ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि २०१० मेम कुल ३.७६ करोड लोग डायबिटीज से ग्रसित थे । एक अनुमान के मुताबिक यदि ये बीमारी इसी दर से बढती रही तो बहुत जल्दी ही पांच करोड तक का आंकडा भी छू लेगी । स्वास्थय मंत्रालय के अनुसार अगले चार वर्षों में गांव और शहरों में रहने वाले करीब पच्चीस लाख युवा मधुमेह की चपेट में होंगे । और इसमें भी सबसे ज्यादा संवेदनशील स्थिति बीस से लेकर तीस की उम्र के युवाओं की होगी । जबकि सबसे ज्यादा इसकी चपेट में , लगभग १.२८ करोड लोग जो इसकी चपेट में आएंगे वे पचास से लेकर साठ की उम्र के होंगे । ये स्थिति किसी भी देश के चिकित्सकीय भविष्य के लिए एक गंभीर चुनौती है । 

इसके कारणों पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है कि इसका सबसे बडा कारण है इंसान की दिनचर्या और खान पान की आदत में आमूल चूल बदलाव । कभी जो समाज अपने दैनिक आहार में , दाल चावल , चपाती, हरी साग सब्जी का सेवन करता था अब फ़ास्ट फ़ूड , शीतल पेय पदार्थों को एक नियमित भोज्य विकल्प के रूप में अपना चुका है । खाद्य पदार्थों में मिलावट तथा रासायनिक खाद के उपयोग ने उसकी गुणवत्ता और पौष्टिकता में बहुत कमी ला दी है । जो भोज्य पदार्थ उपलब्ध भी हैं वे भी दिनों दिन महंगाई के कारण आम आदमी की पहुंच से दूर होते जा रहे हैं , यही वजह है कि पांच रुपए में बर्गर जैसा फ़टाफ़ट और तैयार भोजन ही लोगों की आदत में शुमार होता जा रहा है । ग्रामीण क्षेत्र भी अब इससे अछूते नहीं रहे हैं । 

इस बीमारी से जूझने में एक अन्य बडी समस्या है इसके इलाज का बेहद मंहगा व खर्चीला होना । चिकित्सा विशेषज्ञ ये मानते हैं कि चूंकि इसका इलाज नियमित और बरसों तक चलता है इसलिए भी आम आदमी लगातार दवाई , इंजेक्शन का खर्च उठाते उठाते बहुत बडे आर्थिक बोझ को ढोने पर मजबूर हो जाता है । स्वास्थय मंत्रालय बहुत जल्दी ही इसे एक मिशन की तरह लेने की तैयारी में है ताकि आने वाले समय में स्थिति को भयावह बनने से रोका जा सके । लोगों को भी अब खानपान की बदलती हुई प्रवृत्ति पर रोक लगानी चाहिए और जंक फ़ूड की गिरफ़्त में आने से अपने बच्चों को यथासंभव बचाने की कोशिश करनी चाहिए । 

 

रविवार, 22 मई 2011

बिहार में लागू किया गया राईट टू सर्विस बिल









बिहार में इन दिनों नीतिश सरकार अदभुत प्रयोगों के दौर से गुजर रही है । राज्य सरकार नित नए नए ऐसे निर्णय ले रही है और जनता के लिए नए कानूनों को लाने की पहल कर रही है जिसके आगामी परिणाम निश्चय ही दूरगामी और सकारात्मक होंगे । अब ऐसी ही एक नई शुरूआत करते हुए राज्य में हाल ही में राईट टू सर्विस बिल को पास कराने के बाद राज्यपाल की हरी झंडी मिल जाने के बाद अब सरकार इस कानून को लागू करने की अधिसूचना जारी करने वाली है । इस कानून के लागू होने के बाद आम जनता के बहुत से मुख्य कार्य अधिकारियों , कर्मचारियों को एक निश्चित समय सीमा के अंदर करके देना होगा । ऐसा नहीं हो पाने पर विलंब के लिए स्पष्टीकरण और नहीं दिए जाने पर कडे दंड का प्रावधान किया गया है ।


इस कानून में जाति-आवास आय प्रमाण पत्र से लेकर राशान कार्ड, ड्राइविंग लाइसेंस, बिजली कनेक्शन तक की समय सीमा तय कर दी है । इसका उल्लंगन करने वाले अफ़सर से प्रतिदिन २५० रुपए की दर से पांच हज़ार रुपए तक जुर्माना वसूलने व विभागीय कार्वाई तक के प्रावधान किए गए हैं । ऐसी उम्मीद की जा रही है कि ,इस कानून के लागू होने के बाद सरकारी कर्मचारियों के लिए कोई भी फ़ाइल दबा पाना बहुत मुश्किल होगी । ज्ञात हो कि अभी हाल ही में किए गए एक सर्वेक्षण में ये बात सामने आई थी कि भारत में सबसे ज्यादा रिश्वत ग्रामीण जनता द्वारा ही दी जाती है और वो भी अपने मूल बुनियादी कागजातों आदि को बनवाने के लिए ही दी जाती है । ऐसे में यदि आम आदमी को सरकार के इस कानून से अपने कागज़ात एक तय समय सीमा के भीतर पाने की सुनिश्चितता तय होगी तो ये नि:संदेह एक परिवर्तनकारी नियम साबित होगा ।

सरकार ने फ़िलहाल जो रूपरेखा तैयार की है वो कुछ इस तरह की है

प्रमाण पत्र रिपोर्ट 

कार्य अफ़सर निपटारा (दिन )

जाति प्रमाण पत्र बीडीओ १५
आवास प्रमाण पत्र बीडीओ १५
आय प्रमाण पत्र बीडीओ १५
नया राशन कार्ड एसडीओ ६०
पोस्टमार्टम रिपोर्ट प्रभारी डॉक्टर ०३
वृद्धावस्था पेंशन बीडीओ २१

लाइसेंस 

जविप्र दुकान एसडीओ ३०
खाद दुकान जिला कृषि पदा. ३०
बीज दुकान अनु.कृषि पदा. ३०
दाल-आटा मिल मुख्य कारखाना अधी. ३०
ईंट-भट्ठा         जिला खनन पदा. ३०
आरा मशीन प्रमंडलीय वन पदाधिकारी ३०

बिजली 
एलटी कनेक्शन कार्यपालक अभियन्ता ३०
गलत बिलिंग सहायक अभियन्ता २४ घंटा
फ़्यूज मरम्मत (शहरी) सहायक अभियन्ता ४ घंटा
फ़्यूज मरम्मत (ग्रामीण) सहायक अभियन्ता २४ घंटा
ब्रेक डाउन (शहरी) सहायक अभियन्ता ६ घंटा

परिवहन 
ड्राइविंग लाइसेंस डीटीओ ३०
स्मार्टकार्ड में लाइसेंस बदलाव डीटीओ         ०७


और ये तो सिर्फ़ चंद उदाहरण हैं , यदि सच में ही राज्य सरकार अपने विभागों और कर्मचारियों को कम से कम इस कानून के सम्मान की खातिर ही पुराने रवैये से बाहर निकलने और एक नई छवि बनाने में निश्चित रूप से सफ़लता मिल सकेगी । देखना ये है कि ये कानून आम जनता के लिए और सरकार के लिए कैसे बदलाव ले कर आ पाता है । किंतु इससे इतर ये बात उठ रही है कि राइट टू सर्विस बिल को पूरे देश भर में लागू किया जाना चाहिए और न सिर्फ़ इन सेवाओं में बल्कि , हर सार्वजनिक क्षेत्र में , जैसे सडक मरम्मत , मुकदमे को निपटाने में लगने वाला समय, निश्चित अवधि में पढाई और परीक्षा की सुनिश्चितता आदि जैसे सभी क्षेत्रों में इसे लागू कर देना चाहिए ।

गुरुवार, 5 मई 2011

असुरक्षित महिला सैन्यकर्मी .....आज का मुद्दा








अभी हाल ही में एक समाचार देखने पढने सुनने को मिला । कोल्हापुर महाराष्ट्र में स्थित पुलिस प्रशिक्षण अकादमी में ११ प्रशिक्षु महिला पुलिस कर्मी अपने प्रशिक्षण के दौरान ही गर्भवती पाई गईं , ये खबर कोई बडी चौंकाने वाली नहीं थी लेकिन ये जानकर कि प्रशिक्षण के दौरान उनका दैहिक शोषण हुआ और जिसके परिणामस्वरूप ही ये घटना सामने आई थी , सबको एक आघात सा लगा । हालांकि सुरक्षा सेवाओं में महिलाओं के साथ दैहिक और मानसिक शोषण का ये कोई पहला मामला नहीं था और गाहे बेगाहे इस तरह की खबरें अब देखने सुनने को मिल ही जाती हैं । आम समाज में , रोजमर्रा जीवन में , सार्वजनिक सेवाओं से लेकर , निजी सेवाओं तक में , मीडिया ,खेल , अभिनय ,राजनीति आदि हर क्षेत्र में ही नारी शक्ति के साथ जिस तरह का न सिर्फ़ भेदभाव किया जाता रहा है और अब तो वो न सिर्फ़ पक्षपात तक सीमित रहा है बल्कि उन पर दैहिक अत्याचार और उनका शोषण तक करना एक प्रवृत्ति सी बनती जा रही है । अफ़सोस और चिंता की बात ये है कि अब ये भयानक स्तर तक बढती जा रही है । इससे अधिक चिंताजनक बात ये है कि जिन महिलाओं को समाज के हर तबके में महिलाओं के प्रति हो रहे अपराधों और उनके दमन शोषण से लडने के लिए तैयार किया जा रहा है , उन्हें न सिर्फ़ प्रशिक्षण बल्कि अधिकार भी दिए जा रहे हैं वे भी कहीं न कहीं इन ज्यादतियों का शिकार हो रहे हैं । भारतीय सेना से लेकर , पुलिस सेवाओं और अन्य सुरक्षा सेवाओं में भी कार्यरत महिला कर्मियों से लगातार न सिर्फ़ दोयम दर्ज़े का व्यवहार किया जा रहा है बल्कि उनके साथ अन्याय और अत्याचार की सीमा तक जाने में भी कोई गुरेज नहीं होती है किसी को । इस बात को मात्र दो घटनाओं से ही आराम से समझा जा सकता है ।


संसद के पटल पर पिछले कई वर्षों से बार बार महिला आरक्षण विधेयक को रखे जाने के बावजूद उसे पारित कराया जाना तो दूर उस पर ढंग से बहस या विमर्श तक नहीं हो पाया है । देश की राजधानी दिल्ली की पुलिस प्रमुख की कमान संभालने के लिए सबसे उपयुक्त और देश का नाम पूरे विश्व में चमकाने वाली देश की प्रथम महिला आईपीएस किरन बेदी को जबरन ही सेवामुक्त करवा दिया गया । जब भी इन दोनों बातों की ओर कोई इंगित करता है तो सहसा ही इसके साथ ही इस बात का भी ज़िक्र होता है कि पिछले कुछ वर्षों से ही देश की प्रथम नागरिक के रूप में , देश की सत्तासीन पार्टी की सबसे अधिक प्रभावी पद पर बैठी हुईं , और देश की राजधानी दिल्ली की मुख्यमंत्री के पद पर किसी महिला के होने के  अलावा देश भर में मायावती , ममता बनर्जी , जयललिता , सुषमा स्वराज , और जाने कितनी ही कद्दावर और प्रभावशाली नारी शक्ति के होने के बावजूद ये स्थिति है । राज्य महिला आयोग , राष्ट्रीय महिला आयोग जैसी संस्थाओं को पर्याप्त अधिकार और संसाधन उपलब्ध कराए गए हैं । यदि इसके बावजूद भी कोल्हापुर प्रकरण के दोषियों को कडी से कडी सज़ा नहीं दिलवाई जा पाती है , प्रियदर्शनी मट्टू , जेसिका लाल , आरूषि और जाने कितनी ही जानें आज भी न्याय के लिए मुंह ताकती सी दिखती हैं तो फ़िर आखिर कब तक और कहां तक ये स्थिति बनी रहेगी ।


ऐसा नहीं है कि ये स्थिति भारत की ही है , विश्व के सबसे शक्तिशाली देश अमेरिका की महिला सैन्य टुकडी और अन्य सुरक्षा सेवाओं में भी महिला कर्मियों के दैहिक शोषण की बात सामने आई है । यहां तक कि ईराक युद्ध के लिए भेजी गई टुकडी में तो कई उच्च पदो पर बैठी और सैन्य संचालन करती हुई महिला सेनानियों ने खुलेआम आरोप लगाए कि न सिर्फ़ उनका शोषण किया गया उन्हें प्रताडित किया गया बल्कि उनका बलात्कार तक किया गया है । भारत में नक्सलवाद से जुडी हुई महिलाओं ने भी इस बात को माना कि उनके साथ भी ज्यादती होती रही है ।  कुल मिला कर परिदृश्य ये साबित करता है कि महिलाओं की स्थिति अब भी बहुत ज्यादा बेहतर नहीं हो पाई है । इसके कारण बेशक बहुत से अलग अलग हों लेकिन फ़िर भी नियति तो वही की वही है । आखिर क्या वजह है कि जिन कंधों पर अपनी कौम अपनी नारी जाति को बचाने की जिम्मेदारी डाली जाती है उनसे अपेक्षा की जाती है वो खुद अपनी रक्षा के लिए इंसान से हैवान बन चुके उन हवसी पुरूषों को मौत के घाट नहीं उतार पातीं । काश कि खबर ये पढने देखने को मिलती कि अपने मान सम्मान की रक्षा करते हुए महिला सैन्यकर्मियों , और पुलिसकर्मियों ने उन्हें गोली से उडा दिया जो उसे तार तार करने की कोशिश कर रहे थे । महिला आयोग जैसी संस्थाएं तो सिर्फ़ सफ़ेद हाथी बन कर रह गए हैं । महिलाओं के लिए बने और बनाए जा रहे कानून भी नाकाफ़ी साबित हो रहे हैं ।


अगर सच में ही महिलाओं को अपना वजूद बनाए बचाए रखना है तो कम से कम उस समय उन्हें उग्र और बागी तेवर में आना ही होगा जब बात उनकी आन और जान पर बन आने की हो । झारखंड में एक विधायक को सरेआम कत्ल करके उस महिला ने अपनी बेटी को उस विधायक के हाथों हवस का शिकार होने से बचा के दिखा ही दिया कि वक्त आने पर नारी कुछ भी कर गुजरने से परहेज़ नहीं करती , लेकिन एक बार फ़िर अफ़सोस होता है जब देखा जाता है कि ऐसा साहस करने वालों को भी देश , समाज और खुद नारी समाज भी चुप्पी लगाए बैठ जाता है ।

बुधवार, 4 मई 2011

आयटम सॉंग बनाम संगीतमय अश्लीलता .....आज का मुद्दा









हिंदी फ़िल्मों में एक गाना हमेशा से आकर्षण के लिए विशेष तौर पर डालने का चलन काफ़ी पहले से ही रहा है । कैबरे डांस के रूप में एक समय हेलन , बिंदु आदि अभिनेत्रियों ने तो गजब की नृत्य शैली से एक अलग ही मुकाम हासिल किया था सत्तर के दशक की सिनेमाई दौर में । कव्वाली , कैबरे , गज़ल प्रतियोगिताओं के बहाने से गीतों को फ़िल्मों की कहानी के इर्द गिर्द इस तरह से बुना जाता था कि वो कहीं न कहीं कोई न कोई बहाना बन ही जाता था सिनेमा का भाग बनने के लिए । समय बदला और बॉलीवुड सिनेमा भी अपना रूप अपना तेवर बदलने लगा । कला सिनेमा तो जैसे कहीं खो कर रह गया लेकिन चूंकि समाज भी बदल रहा था इसलिए दलील ये दी जाने लगी कि ये कहानियां , ये विषय , और सब कुछ जो सिनेमा जगत में देखा दिखाया जा रहा है वो इसी समाज से आयातित है । उधर समाज भी सिनेमा पर ये आरोप लगाता रहा है कि उसमें दिनों दिन हावी हो रही अपसंस्कृति ने समाज को भी भ्रष्ट नष्ट करने में उत्प्रेरक का काम किया है और अब भी कर रहा है । इन सबके साथ ही एक चलन जिसने सबसे ज्यादा तेजी से पैठ बनाई हिंदी फ़िल्मों में वो था आयटम सॉंग के अश्लील होते बोल और उसका साथ निभाते भौंडे नृत्य । इन नृत्यों में जानबूझ कर इस तरह की भावभंगिमा और ईशारे किए कराए जाते हैं कि वो अश्लील बोलों के साथ एकदम फ़िट बैठें । 

कभी मैं आई यूं हूं यू पी बिहार लूटने से शुरू हुई कहानी , पहले जिगर से बीडी जलाते हुए , शीला की जवानी की दहलीज़ पार करते हुए , मुन्नी की बदनामी को गले लगाते हुए अब तो टिंकू जिया और जाने कितने ही द्विअर्थी गीतों के बहाने से इतनी आगे बढती जा रही है कि अब तो वो फ़िल्मों की कहानी , उसके नायक नायिकाओं तक पर भारी पड रही है । आश्चर्य की बात ये है कि न तो इन गानों का कोई अर्थ होता है नी ही अक्सर इनमें कोई माधुर्य होता है , नृत्य भी इतना भौंडा होता है और नायिका के कपडे ऐसे कि सिवाय शर्म के और कोई भावना नहीं निकलती । समाज में आज जिस तरह से नकारात्मकता हावी हो रही है उसमें यदि ऐसे गाने रातों रात लोगों के न सिर्फ़ जुबान पे चढ जाते हैं बल्कि दिलो दिमाग पर भी हावी हो जाते हैं तो उसमें अंचभा नहीं होना चाहिए । हां जब अपनी तुतलाती जबान में किसी नन्हें बच्चे के मुंह से शीला की जवानी और मुन्नी बदनाम हुई डार्लिंग तेरे लिए जैसे गीतों के बोल सुनने को मिलते हैं तो ये सोच और भी गहरी हो जाती है कि क्या वाकई कल के समाज को सांस्कृतिक प्रदूषण से बचाया जा सकता है । 


इन गीतों का प्रचलन और लोकप्रियता का आकर्षण दिनोंदिन इस कदर बढता जा रहा है कि अब तो न सिर्फ़ छोटी तारिकाएं , नायिकाएं बल्कि मुख्य भूमिका निभाने वाली अभिनेत्रियां भी ऐसे गीतों पर मचलने के लिए बेताब हैं । गीतकार भी ढूंढ् ढूंढ कर ऐसे गीतों की रचना कर रहे हैं जिसे किसी भी दृष्टिकोण से गीत संगीत के किसी भी पैमाने पर नहीं रखा देखा जा सकता । सबसे अधिक दुखद बात तो ये है कि जहां एक तरफ़ खुद युवतियां और तारिकाएं ऐसे गीतों पर थिरक कर पूरे महिला समाज के लिए जाने अनजाने बहुत सारी मुश्किलें खडी कर रही हैं वहीं इन गीतों पर सेंसर बोर्ड के साथ साथ महिला अधिकारों के प्रति सचेत और सजग रहने करने वाली संस्थाएं भी चुप्पी लगाए बैठी हैं । इस विमर्श पर जब भी कोई बहस उठती है तो फ़िर यही दलील दी जाती है कि आज विश्व में मनोरंजन के रूप में सबसे ज्यादा पोर्न सामग्री ही चलन में है लेकिन ये दलील देने वाले ये बात भूल जाते हैं कि न तो ये आंकडे भारतीय परिप्रेक्ष्य में सही माने जा सकते हैं और न ही इस सच का भारतीय सिने जगत से कोई संबंध है । 


अब स्थिति दिनोंदिन विस्फ़ोटक होती जा रही है और यदि अब भी इन गीतों , इस भौंडी प्रवृत्ति पर रोक नहीं लगाई गई तो फ़िर कोई बडी बात नहीं कि जिस तरह से हाल ही में एक मॉडल द्वारा भारतीय क्रिकेट टीम की जीत के अवसर पर अपनी नुमाईश करने की घोषणा की गई थी तो उससे आगे बढते हुए फ़िल्मों में भी कोई ऐसी ही खुशी प्रकट करने लगे । फ़िल्मकारों ,गीतकारों और खुद नायिकाओं को इस सस्ती लोकप्रियता के मोह से बचना चाहिए और लकवाग्रस्त हो चुकी नियंत्रणकारी संस्थाओं को भी कम से कम कुश प्रतिशत जिम्मेदारी तो निभानी ही चाहिए । ऐसा हो पाएगा इस बात की आशा तो नहीं है इसलिए आम लोगों को खुद ही ये दबाव बनाना चाहिए और इन गानों का विरोध करना चाहिए ताकि कल को किसी की  उन्हीं गानों के सहारे समाज की बेटियों की छीछालेदारी करने की हिम्मत न हो सके  ॥


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