हिंदी फ़िल्मों में एक गाना हमेशा से आकर्षण के लिए विशेष तौर पर डालने का चलन काफ़ी पहले से ही रहा है । कैबरे डांस के रूप में एक समय हेलन , बिंदु आदि अभिनेत्रियों ने तो गजब की नृत्य शैली से एक अलग ही मुकाम हासिल किया था सत्तर के दशक की सिनेमाई दौर में । कव्वाली , कैबरे , गज़ल प्रतियोगिताओं के बहाने से गीतों को फ़िल्मों की कहानी के इर्द गिर्द इस तरह से बुना जाता था कि वो कहीं न कहीं कोई न कोई बहाना बन ही जाता था सिनेमा का भाग बनने के लिए । समय बदला और बॉलीवुड सिनेमा भी अपना रूप अपना तेवर बदलने लगा । कला सिनेमा तो जैसे कहीं खो कर रह गया लेकिन चूंकि समाज भी बदल रहा था इसलिए दलील ये दी जाने लगी कि ये कहानियां , ये विषय , और सब कुछ जो सिनेमा जगत में देखा दिखाया जा रहा है वो इसी समाज से आयातित है । उधर समाज भी सिनेमा पर ये आरोप लगाता रहा है कि उसमें दिनों दिन हावी हो रही अपसंस्कृति ने समाज को भी भ्रष्ट नष्ट करने में उत्प्रेरक का काम किया है और अब भी कर रहा है । इन सबके साथ ही एक चलन जिसने सबसे ज्यादा तेजी से पैठ बनाई हिंदी फ़िल्मों में वो था आयटम सॉंग के अश्लील होते बोल और उसका साथ निभाते भौंडे नृत्य । इन नृत्यों में जानबूझ कर इस तरह की भावभंगिमा और ईशारे किए कराए जाते हैं कि वो अश्लील बोलों के साथ एकदम फ़िट बैठें ।
कभी मैं आई यूं हूं यू पी बिहार लूटने से शुरू हुई कहानी , पहले जिगर से बीडी जलाते हुए , शीला की जवानी की दहलीज़ पार करते हुए , मुन्नी की बदनामी को गले लगाते हुए अब तो टिंकू जिया और जाने कितने ही द्विअर्थी गीतों के बहाने से इतनी आगे बढती जा रही है कि अब तो वो फ़िल्मों की कहानी , उसके नायक नायिकाओं तक पर भारी पड रही है । आश्चर्य की बात ये है कि न तो इन गानों का कोई अर्थ होता है नी ही अक्सर इनमें कोई माधुर्य होता है , नृत्य भी इतना भौंडा होता है और नायिका के कपडे ऐसे कि सिवाय शर्म के और कोई भावना नहीं निकलती । समाज में आज जिस तरह से नकारात्मकता हावी हो रही है उसमें यदि ऐसे गाने रातों रात लोगों के न सिर्फ़ जुबान पे चढ जाते हैं बल्कि दिलो दिमाग पर भी हावी हो जाते हैं तो उसमें अंचभा नहीं होना चाहिए । हां जब अपनी तुतलाती जबान में किसी नन्हें बच्चे के मुंह से शीला की जवानी और मुन्नी बदनाम हुई डार्लिंग तेरे लिए जैसे गीतों के बोल सुनने को मिलते हैं तो ये सोच और भी गहरी हो जाती है कि क्या वाकई कल के समाज को सांस्कृतिक प्रदूषण से बचाया जा सकता है ।
इन गीतों का प्रचलन और लोकप्रियता का आकर्षण दिनोंदिन इस कदर बढता जा रहा है कि अब तो न सिर्फ़ छोटी तारिकाएं , नायिकाएं बल्कि मुख्य भूमिका निभाने वाली अभिनेत्रियां भी ऐसे गीतों पर मचलने के लिए बेताब हैं । गीतकार भी ढूंढ् ढूंढ कर ऐसे गीतों की रचना कर रहे हैं जिसे किसी भी दृष्टिकोण से गीत संगीत के किसी भी पैमाने पर नहीं रखा देखा जा सकता । सबसे अधिक दुखद बात तो ये है कि जहां एक तरफ़ खुद युवतियां और तारिकाएं ऐसे गीतों पर थिरक कर पूरे महिला समाज के लिए जाने अनजाने बहुत सारी मुश्किलें खडी कर रही हैं वहीं इन गीतों पर सेंसर बोर्ड के साथ साथ महिला अधिकारों के प्रति सचेत और सजग रहने करने वाली संस्थाएं भी चुप्पी लगाए बैठी हैं । इस विमर्श पर जब भी कोई बहस उठती है तो फ़िर यही दलील दी जाती है कि आज विश्व में मनोरंजन के रूप में सबसे ज्यादा पोर्न सामग्री ही चलन में है लेकिन ये दलील देने वाले ये बात भूल जाते हैं कि न तो ये आंकडे भारतीय परिप्रेक्ष्य में सही माने जा सकते हैं और न ही इस सच का भारतीय सिने जगत से कोई संबंध है ।
अब स्थिति दिनोंदिन विस्फ़ोटक होती जा रही है और यदि अब भी इन गीतों , इस भौंडी प्रवृत्ति पर रोक नहीं लगाई गई तो फ़िर कोई बडी बात नहीं कि जिस तरह से हाल ही में एक मॉडल द्वारा भारतीय क्रिकेट टीम की जीत के अवसर पर अपनी नुमाईश करने की घोषणा की गई थी तो उससे आगे बढते हुए फ़िल्मों में भी कोई ऐसी ही खुशी प्रकट करने लगे । फ़िल्मकारों ,गीतकारों और खुद नायिकाओं को इस सस्ती लोकप्रियता के मोह से बचना चाहिए और लकवाग्रस्त हो चुकी नियंत्रणकारी संस्थाओं को भी कम से कम कुश प्रतिशत जिम्मेदारी तो निभानी ही चाहिए । ऐसा हो पाएगा इस बात की आशा तो नहीं है इसलिए आम लोगों को खुद ही ये दबाव बनाना चाहिए और इन गानों का विरोध करना चाहिए ताकि कल को किसी की उन्हीं गानों के सहारे समाज की बेटियों की छीछालेदारी करने की हिम्मत न हो सके ॥