भारतीय समाज प्राचीन काल से ही खुद को स्वस्थ या कहें कि चुस्त दुरुस्त रखने के लिए कभी भी विशेष प्रयत्नशील नहीं रहा है | इसका एक वाज़िब कारण यह भी था की लोगों की शारीरिक श्रम वाली दिनचर्या व चर्बी रहित सादा मगर पौष्टिक भोजन करने की परम्परा उन्हें आतंरिक रूप से इतना मजबूत कर देती थी की इसका परिणाम यह होता था कि लोगों की रोग प्रतिरोधक क्षमता अधिक व दृढ़ हो जाती थी |
आज एक्सपोज़र के बढ़ते चलन में लोगों को खुद को चुस्त दुरुस्त रखने और उससे अधिक दिखने की चाहत ने जोर पकड़ रखा है | वहीं इसीके साथ ही बच्चों ,तरुणों व युवाओं का अनेक तरह की व्याधियों व दुर्बलताओं से ग्रस्त होकर असयम ही काल कलवित होने की घटनाऐं भी उसी तेज़ी से सामने आ रही हैं | यहां तक कि मधुमेह व उच्च रक्तचाप ,हृदयाघात जैसे बीमारियों से रोज़ाना सैकड़ों युवाओं का जीवन ग्रस्त व अस्त होता जा रहा है | असल में यह सारा विरोधाभासी परिदृश्य बदलते सामाजिक परिवेश ,खानपान व्यवहार व उपभोक्तावाद के चंगुल में फंसते जाने का परिणाम है |
ग्रामीण व गैर शहरी क्षेत्रों में भी स्थिति परिवर्तित होते हुए भी अभी स्थिति बहुत बुरी या लाईलाज हो जाने के स्तर तक नहीं पहुंची है | इसका एक सबसे बड़ा कारण वहां दिनचर्या में श्रम की अधिकता तथा खानपान में तेल मसालों की अधिकता का न होना | भोजन में हरी साग सब्जियों व रेशेयुक्त भोज्य पदार्थों का समावेश भी लोगों को स्वस्थ रहने में सहायक होता है |
शहरी जनजीवन की दिनचर्या ही सुबह देर से जागने से शुरू होकर रात में बहुत देर तक सोने पर ख़त्म होती है | तिस पर रही सही कसार शारीरिक श्रम का नगण्य होना , फास्ट फूड जनक फूड जैसे गैर पारम्परिक भोज्य पदार्थों का समावेश और उनका बहुत अधिक सेवन आदि पूरी कर देते हैं | लोगों का बहुत ज्यादा उपभोक्तावादी व सुविधासम्पन्न होने से स्वाभाविक रूप से आलस्य व दुर्बलता उनमे घर करती जा रही है | हालांकि शहरों में लाखों की जिम ,व्यायामशाला डाइट कैफे तथा योगा क्लासेस का बढ़ा चलन यही इशारा कर रहे हैं की लोग खुद को स्वस्थ , चुस्त व स्फूर्तवान बनाए रखने के बारे में सोच तो जरूर रहे हैं |
जैसा कि विख्यात फिजियो मडिगो लुसेंट कहते हैं कि शरीर को चुस्त दुरुस्त रखने के लिए किये गए सभी विशेष प्रयास अनियमित व अनिश्चित होते हैं | इसलिए बेहतर यह है कि इंसान अपनी दिनचर्या में , उठने बैठने , चलने, खाने पीने व सोने जगाने की आदतों मजे छोटी छोटी बातों का ध्यान रखा जाए |
दरवाज़े पर घंटी बजाते ही सब एक दूसरे का ,मुंह ताकना अच्छोद खुद ही दरवाज़ा खोलने बंद करने का काम करें | लिफ्ट के बदले यथासंभव सीढ़ियों का प्रयोग करना , यदि बैठकर काम करते हैं तो एक निश्चित अंतराल पर कुर्सी से उठना , गर्दन आँखों को थोड़ा - थोड़ा हिलाते डुलाते घूमते रहना | यथासंभव तरल पदार्थ का सेवन , शीतल पेय को छोड़कर हल्का गर्म पानी पीना , दूध , सब्जी , डाक आदि लेने जैसे घरेलू कार्य करने के बहाने पैदल साइकिल से घूमना फिरना | समय निकाल कर बच्चों के साथ खेलना कूदना , नाचना , तैरना आदि जैसे छोटे - छोटे दिखने वाले कार्य व्यक्ति को एक ऐसी दिनचर्या बनाने में सहायक होते हैं जो अंततः व्यक्ति को सिर्फ स्वस्थ व उर्ज़ावान रखते हैं बल्कि सक्रिय शरीर रोगों से भी दूर रहता है |
इंसान को अपने ज़ेहन में हमेशा यह बात रखनी चाहिए कि वो बेशक सामजिक प्राणी है मगर उसका आधार प्राकृतिक सा मंजयास्तयता ही है | ग्राम्य जीवन में बाल्यावस्था के खेल - कूद , पेड़ों पर चढ़ना , नदी तालाब में तैरना , मीलों दौड़ना साइकिल चलाना उनमें जीवन को जन्मने का अवसर देने जैसा होता है |
शहरों में इन सबका स्थान बागवानी , सैर , पिकनिक , सांस्कृतिक आयोजन , आदि ने लिया हुआ है जो सही भी है | असल में प्रकृति ने इंसान , पादप , पशु आदि सबको सामंजस्यता के साथ जीवन का आधार और विस्तार प्रदान करने क नियम बनाया हुआ है | इंसान के अतिरिक्त अन्य सभी ने इस मूलमंत्र को भली - भाँति समझ लिया है | यदि प्रकृति के प्रतिकूल होकर कोई खड़ा है तो वो है इंसान और इंसान का अमानवीय व्यहवार | प्रकृति से होड़ लगाता आदमी कब अपना और पृथ्वी का शत्रु साबित हो गया इसका उसे लेशमात्र भी अंदाजा नहीं रहा |
आज की व्यस्ततम दिनचर्या वाले दैनिक व्यहवार में एक निश्चित समय श्रम के मोहताज़ न रहकर सामने आते छोटे कार्यों में अपनी सहभागिता दिखा कर खुद को चुस्त - दुरुस्त रखना ही श्रेयस्कर है |