रविवार, 27 नवंबर 2011

पुरस्कार नहीं तिरस्कार का समय है ये


उफ़्फ़ इस दोस्ती की दास्तां 



प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जी ने पडोसी देश पाकिस्तान के प्रमुख गिलानी को शांति का दूत बताकर भारत-पाक रिश्ते में एक नई पहल की कोशिश की । सरकार के कूटनीतिज्ञ इस वक्तव्य व पहल को ज़ायस ठहराते हुए ये तर्क देर हे हैं कि आपसी रिश्तों को बातचीत से ही सुधारा जा सकता है । आज़ादी के बाद से अब तक जाने कितनी ही बार इस तरह की नई पुरानी पहल के प्रयास और उसका परिणाम पूरा देश देख चुका है । आम आदमी तो हर बार इस तरह की पहल के परिणाम का खामियाज़ा तक भुगतना पडता है । ये ठीक है कि पडोसी राष्ट्र से संबंध स्थिर और स्वस्थ हों तो देश का विकास और शांति द्विगुणित हो जाती है । इसलिए पडोसी राष्ट्रों के साथ रिश्ते मधुर करने का प्रयास निरंतर होते रहना चाहिए , किंतु ऐसे राष्ट्र के साथ कतई नहीं जो आज विश्व आतंकवाद का गढ बना हुआ है ।


हर राष्ट्र का एक चरित्र होता है और इस लिहाज़ से पाकिस्तान की छवि एक आतंक पोषित राष्ट्र की है । विश्व के सभी सुरक्षा एजेंसियों का मानना है कि विश्व के सभी आतंकी गुटों का संबंध कहीं न कहीं पाकिस्तान से है । अमेरिकी सैनिकों द्वारा किए गए विशेष अभियान के बाद विश्व के सबसे वांछित आतंकी सरगना ओसामा बिन लादेन को पाकिस्तान में उसके गुप्त ठिकाने पर मारा गया । दाऊद इब्राहिम सहित जाने कितने ही दुर्दांत आतंकियों के पाकिस्तान में छिपे होने की आशंका जताई जाती रही है ।


पिछले दो दशकों में भारत में होने वाली आतंकी घटनाओं में से अधिकांश के लिए पाकिस्तानी आतंकी ही जिम्मेदार रहे हैं । इन परिस्थितियों में यदि प्रधानमंत्री पडोस के प्रमुख को शांति का दूत बताते हैं तो उन्हें देशवासियों को ये भी बताना चाहिए कि इसका आधार बना है । इस तरह की किसी भी पहल , किसी सार्वजनिक बयान और किसी भी नए प्रस्ताव से पहले आतंकी घटनाओं में मारे गए लोगों के परिवारजनों की भावना का ख्याल रखना क्यों जरूरी नहीं समझा जाता ?


एक तरफ़ सेना व सुरक्ष एजेंसियां बार बार संभावित खतरे की चेतावनी दे रही हैं और दूसरी तरह प्रधानंत्री इस तरह का बयान दे रहे हैं । इस मुद्दे का एक महत्वपूर्ण पहलू ये है कि पाकिस्तान के राजनीतिक वर्चस्व में हमेशा से पाकिस्तानी सैन्य अधिकारियों का प्रभाव रहा है । ऐसे में किसी राजनेता के साथ कोई संधि वार्ता ,नया समझौता कितना कारगर साबित होगा इसका अंदाज़ा सहज़ ही लगाया जा सकता है ।


सबसे जरूरी बात ये है जब पूरा देश मुंबई हमले के आरोपी कसाब को मृत्युदंड दिए जाने की प्रतीक्षा में है उधर प्रधानमंत्री पडोसी मुल्क के मुखिया को शांतिदूत बनाए दे रहे है । वास्तव में ये समय शांति , सहकार और पुरस्कार का नहीं बल्कि तिरस्कार का समय है । आज जब अमेरिका ने भी पाकिस्तान को दुत्कार दिया है तो यही समय है भारत भी इस राष्ट्र के साथ " शठम शाठयेत चरेत " जैसा व्यवहार करे ।

बुधवार, 23 नवंबर 2011

सुरक्षा , खानपान और स्वच्छता : भारतीय रेल , तीनों में फ़ेल







अभी कुछ दिनों पहले ही सुना था कि भारतीय रेल ने अपने मुनाफ़े को देखते हुए अपने कर्मचारियों को भारी भरकम बोनस दिया था । वाह ! क्या अच्छी बात है यदि इस महंगाई के दौर में कोई सार्वजनिक उपक्रम अपने मुनाफ़े में से एक बडा हिस्सा अपने कर्मचारियों के बीच में बांटता है ।और लगभग ऐसी ही खबर पिछले कई वर्षों से सुनने पढने को मिल जाती है । कुछ वर्षों पहले तो रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव ने इतना बडा मुनाफ़ा घोषित कर दिया था भारतीय रेल के नाम कि मानो लगने लगा कि कहीं  भारतीय रेल को रिजर्व बैंक न घोषित करना पड जाए । इतनी बडी बडी उपलब्धियों के बावजूद जब ताज़ातरीन घटना दून एक्सप्रेस अग्निकांड जैसी कोई घटना सामने आती है तो एक बडा सवाल उछल कर सामने आ जाता है कि आखिर क्या कारण है कि साठ वर्षों के बाद भी भारतीय रेल किसी भी परिवहन व्यवस्था के लिए बुनियादी अनिवार्यता होती है - सुरक्षा , खानपान और स्वच्छता ।


जहां तक स्वच्छता और खानपान व्यवस्था की बात है तो उस दिशा में तो फ़िर भी कुछ सोचा और किया गया है । प्रयोग के तौर पर ही निजि कंपनियों को रास्ते में भोजन की व्यवस्था और उत्तर पूर्व रेलवे में सफ़ाई की व्यवस्था भी निजि कंपनियों को देकर उसे दुरूस्त करने का प्रयास किया गया । किंतु यहां भी अधिकारियों व प्रशासन द्वारा इसे गंभीरता से न लेना व संचालक लोगों द्वारा अधिक मुनाफ़े के लालच ने कुल मिला कर ये हाल किया है कि लोग अब अधिकांशत: घर से ही ले जाना पसंद करते हैं । दूर के सफ़र में भी वे विकल्प तलाशने की जुगत में रहते हैं । अगर स्वच्छता की बात करें तो इसमें रेलयात्री खुद भी कम जिम्मेदार नहीं होते । भारत में सफ़र के दौरान भारी भरकम सामान ढोने की परंपरा , बर्थ और सीट पर खाने पीने के दौरान चींज़े बिखेरना , प्रसाधनों का गलत तरीके से इस्तेमाल , सहायता व सहयोग करने की व्यावहारिकता का अभाव आदि कुल मिला कर खुद यात्रियों के लिए नारकीय स्थिति पैदा कर देते हैं । भारत में रोजी रोटी की तलाश में पलायन एक सामाजिक मजबूरी है , फ़िर भारत की त्यौहारीय संस्कृति सफ़र को संभावित बनाती है । शहरों की तनाव भरी जिंदगी से राहत लेने व धार्मिक यात्राओं के उद्देश्य से भी भारतीय अपने जीवन में बहुत सी रेल यात्राएं करते हैं । इसलिए ये बहुत जरूरी हो जाता है कि अब एक ऐसी संस्कृति का निर्माण किया जा सके कि लोगों को सफ़र के दौरान अनुशासित व्यवहार करने में अभ्यस्त किया जाए ।


भारतीय रेल यात्रा के संदर्भ में सबसे जरूरी और उतना ही उपेक्षित बिंदु है यात्रियों की सुरक्षा ।  स्थिति कितनी गंभीर है कि अब तो लगभग रोज़ ही रेल और रेल दुर्घटनाओं के सामने आने से ऐसा लगने लगा है मानो रेल भी सडक मार्ग से ही चल रही हो । बरसों पुरानी पटरियां , पुराने हो चुके उपकरण व बरसों पुरानी तकनीक , व नियम कानूनों खुले आम उल्लंघन ऐसे कुछ अहम कारण हैं जिसके कारण रेल दुर्घटनाओं में लगातार वृद्धि हो रही है । आश्चर्य की बात ये है कि प्रति वर्ष हज़रों लोगों की मुत्यु  रेलवे क्रासिंग को पार करने के दौरान रेलों की चपेट में आने के कारण हो जाती है । दो रेलों की आपसी टक्कर , पटरी से उतर जाने के कारण व अन्य ऐसे ही कारणों की वजह से भारतीय रेल ,यातायात साधनों के लिए निर्धारित सुरक्षा मानकों के दृष्टिकोण से बिल्कुल फ़ेल नज़र आता है । शीत ऋतु के आते ही कोहरे और धुंध की समस्या से रेलवे परिचालन का बुरी तरह लडखडा जाना , भारतीय रेल की बरसों पुरानी विवशता है ।


भारतीय रेल में सवारी किरायों की दर में वृद्धि के संकेत दे दिए गए हैं , यात्री पहले की तरह अब भी बढी हुई दरों पर भी रेल यात्रा ज़ारी रखेंगे ये तय है , किंतु क्या अब ये जरूरी नहीं हो गया है कि , मुनाफ़े के बावजूद भी सुरक्षा उपायों पर काम न किए जाने और ऐसे हादसों के लिए किसी कि जिम्मेदारी तय न किए जाने की प्रवृत्ति से निज़ात पाई जाए । यात्रियों को ये बताया जाए कि उससे किराए के रूप में वसूला जा रहा पैसा , किसके लिए कितना देना पड रहा है । एक यात्री के रूप में किसी को सुरक्षित उसके गंतव्य में पहुंचाने की जिम्मेदारी भारतीय रेल को समझनी चाहिए अन्यथा सबसे बडे सार्वजनिक उपक्रम का गर्व होना समीचीन नहीं जान पडता । और इससे अलग एक जरूरी बात ये कि लोगों को भी अब खुद को बदलना होगा , सफ़र के दौरान किया जाने वाला व्यवहार और चौकसी की आदत को विकसित किया जाना चाहिए ।

सोमवार, 21 नवंबर 2011

मानवीय त्रासदी : एक नियमित नियति












राजधानी दिल्ली के पूर्वी क्षेत्र की कॉलोनी नंद नगरी में किन्नरों के एक सम्मेलन में अचानक्भडकी आग ( जिसे प्रारंभिक जांच में शार्ट सर्किट से अल्गी आग माना जा रहा है ) ने पंद्रह किन्नरों की बलि ले ली । लगभग सौ किन्नर अब भी जले -झुलसे हुए विभिन्न अस्पतालों में अपना ईलाज कर रहे हैं । इस तरह की मानवीय त्रासदी और उसमें आम लोगों की मौत अब एक नियमित नियति सी बन कर रह गई है । अभी चंद दिनों पहले ही हरिद्वार के कुंभ में इसी तरह की एक मानवीय त्रासदी से कई निर्दोष लोगों की जान गई थी । 


कुछ समय के अंतराल पर बार बार होते घटते ये हादसे दो बातें तो बिल्कुल स्पष्ट कर देते हैं । पहली बात ये कि सरकार व प्रशासन की नज़र में आम आदमी के जीवन मौत की कोई कीमत नहीं है और शायद यही वजह है कि इतने हादसों के बावजूद भी आज तक सरकार की आपदा प्रबंध्न नीति लगभग नगण्य है । 


यदि मौजूदा घटना का ही संदर्भ लें तो अधिकतम एक हज़ार व्यक्तियों के लिए बने सामुदायिक भवन में पाम्च हज़ार लोगों का जमावडा हो जाता है । पुलिस कहतीह ै कि ऐसे आयोजनों के लिए अपेक्षित अनुमति व सुर्क्षा उपाय जांच कर लिए गए थे । जबकि अग्निशमन विभाग ठीक उलट दोषारोपण करते हुए कहता है कि न तो अग्निशमन विभाग से वांछित अनुमति ली गई थी और सुरक्षा उपायों की भी गंभीर अनदेखी की गई ।  

सरकार व प्रशासन हमेशा की तरह जांच बिठाने व मुआवजा घोषित करने की औपचारिकता निभा कर पुन: अगली त्रासदी तक चुप बैठ जाएगा । जहां तक आम लोगों की बात है तो सबसे विकट प्रश्न यही है कि जब आम आदमी ही इसका शिकार होता है , और इन तमाम त्रासदियों के बाद रोता बिलखता बचता भी आम आदमी ही है तो क्या इससे बेहतर ये नहीं है कि जहां तक संभव हो वो खुद इसका कारण बनने से बचे । ऐसी घटनाओं में अक्सर ही भगदड में मरने घायल होने वालों में महिलाएं और मासूम बच्चे ही होते हैं । क्या ये जरूरी है कि आयोजन स्थल पर भीड की संभावना अपेक्षित होने के बावजूद बच्चों को वहां ले जाया जाए । आखिर कब तक ऐसे आयोजनों में सुरक्षा मानकों की अनदेखी होती रहेगी ?आखिर कब तक ऐसी दुर्घटनाओं की जांच रिपोर्ट अगली पचास घटनाओं के होने तक आती और ठंडे बस्ते में जाती रहेगी ? बेशक आम आदमी के पास इस बात का कोई जवाब न हो लेकिन तब तक उसे खुद ही खुद को बचाए रखना तो होगा ही । 

शनिवार, 19 नवंबर 2011

भारतीयों का अपमान








भारत के पूर्व राष्ट्रपति और विश्व विख्यात वैज्ञानिक डॉ.अब्दुल कलाम के साथ अमेरिकी सुरक्षा अधिकारियों ने यात्री जांच के नाम पर अपमानजनक व्यवहार किया । पिछले दिनों इस तरह की घटनाएं न सिर्फ़ भारतीय राजनेताओं ,बल्कि मंत्रियों ,खिलाडियों व अभिनेताओं के साथ गाहे बेगाहे होती रही है । हालांकि इस बार भारत के तीव्र विरोध और आपत्ति दर्ज़ कराने के अमेरिका ने माफ़ी मांग ली है । फ़िर भी कुछ बातों पर गौर किया जाना जरूरी है ।


भारत की छवि विश्व समुदाय में एक सहिष्णु और शांति पसंद राष्ट्र की है । पिछके कुछ समय में भारत अमेरिका के आप्सी रिश्ते भी सकारात्मक से ही रहे हैं । अमेरिका पर हुए आतंकी हमलेके बाद से ही अमेरिका ने अपनी सुरक्षा व्यवस्था को उच्चतम स्तर पर रखा हुआ है । किंतु उसके बावजूद भी डॉ. कलाम जैसी शख्सियत के साथ ऐसा व्यवहार सर्वथा अनुचित व निंदनीय है ।


इससे अलग एक और बात ध्यान देने योग्य है कि चाहे  भारतीय राजनेता हों या भारतीय खिलाडी और तो और हिंदू देवी-देवताओं का भी अपमान पूरे विश्व समुदाय के अलग अलग देशों व लोगों द्वारा किया जाता रहा है । भारत की संस्कृति प्राचीनकाल से ही अतिथि देवो भव वाली रही है और शायद इसी अतिसहिष्णुता का खामियाजा देशवासियों को भुगतना पडता है ।

यदि विशिष्ट और सम्माननीय लोगों के साथ इस तरह का व्यवहार किया जा सकता है तो आम लोगों के साथ किस तरह का बर्ताव होता है और कैसा हो सकता है , इसकी कल्पना सहज़ ही की जा सकती है । अब समय आ गया है कि अमेरिका को ये एहसास कराया जाना बहुत जरूरी है कि वो भी वैश्विक समाज का एक हिस्सा भर है , उसके ऊपर राज करने वाला कोई निरंकुश तानाशाह नहीं है , फ़िर चाहे अमेरिका जैसे देशों को उनकी गलती का ठीक ठीक एहसास कराने के लिए उनके नागरिकों के साथ  भी एक आध बार ऐसा ही व्यवहार करना पडे ।



शुक्रवार, 11 नवंबर 2011

करवट बदलती सोच ....






आखिरकार वही सब हो रहा है और ठीक वैसा ही हो रहा है जैसा कि आशंका तब बार बार जताई जा रही थी जब अचानक ही लगने लगा था कि इस तरह के जनांदोलन को कुचलने के लिए सरकार और सत्ता से जोंक की तरह चिपके हुए लोग ,कुछ भी कर सकते हैं किसी भी हद तक जा सकते हैं । उन्हें बहुत ही अच्छी तरह भारतीय जनमानस की संवेदनशीलता का अंदाज़ा है , वे जानते हैं इस देश ने पिछले साठ वर्षों में , एक उपनाम के सहारे , धर्म ,धर्मस्थल , जाति , आरक्षण जैसी बातों और मुद्दों पर ही सरकार बनती गिरती देखी है । आज तक भ्रष्टाचार , महंगाई , भूख , गरीबी ,बेरोजगारी ,चिकित्सा सुविधा , अशिक्षा जैसे मुज्द्दों को सबसे अहम मुद्दा बना कर न तो किसी राजनीतिक दल का गठन ही किया गया है और न ही कभी चुनाव लडा गया है ।


साठ वर्षों के लोकतांत्रिक इतिहास में विश्व के सबसे ज्यादा कानूनों व शायद सबसे धीमी न्यायिक प्रक्रिया का सहारा लेकर जनता के निर्वाचित प्रतिनिधि किसी दैवीय या राजकीय पद पर बैठे रहने सा अनुभव करने लगे । चुनाव से पहले जनता के बीच दिखने करने वाले और उनके सेवक की तरह व्यवहार करने वाले व्यक्ति चुनाव के पश्चात और पद व शक्ति प्राप्त होते ही जनता की हद से ही बाहर हो जाते हैं । भारत प्राचीन काल से ही वैश्विक समाजों के लिए एक कौतूहल का विषय रहा है । जाने कितनी ही सभ्यताओं को पनपते मिटते देखता रहा है । सिर्फ़ धरातलीय संसाधनों की बात करें तो पश्चिमी जगत के लोलुप शासकों द्बारा अनगिनत बार लूटे जाने के बावजूद भी उतना ही प्रचुर है । हां , उसका दोहन और शोषण करने वाला हाथ अब विदेशी नहीं है ।


भारत की शासन प्रणाली व नौकरशाही को हमेशा से सरकार के प्रति निष्टावान व लगभग अधीन व चाटुकार बने रहने की प्रवृत्ति से युक्त किया गया । यानि कुछ लोगों द्वारा , ज्ञात रहे कि भारत में मतदान की औसत दर साठ प्रतिशत से भी कम है ,निर्वाचित व्यक्तियों , जो अब नि: संदेह बेदाग तो नहीं मिल पाते हैं , के द्वारा बनाए व लागू किए जाने वाले कानूनों के निर्माण , उसकी समीक्षा व आलोचना किए जाने की किसी भी प्रक्रिया के दायरे से बाहर थे । वैश्वीकरण के वर्तमान दौर ने और कुछ नफ़ा नुकसान किया या नहीं , किंतु इतना तो ही ही गया कि वैश्विक आवागमन व संचार में भयंकर तीव्रता आ गई । कभी बैलगाडी , ऊंट गाडी से पहचान कराने वाले देश में आज जेट इंजन कारें फ़ार्मूला वन दौड लगा रही है तो ये वैश्वीकरण का ही परिणाम है । वैश्विक समाज , पश्चिमी परंपराओं , रीति रिवाज़ों , अधिकार व सामाजिक व्यवहार के प्रति सजगता ने सबको प्रभावित किया । विश्व राजनीति एक बार फ़िर से परिवर्तन के दौर में , अरब देशों , मध्य एशियाई देशों के चोटे बडे गणराज्य बरसों पुराने रवैयै को बदलने के लिए तत्पर हो रहे हैं । न सिर्फ़ ये देश बल्कि अमेरिका और यूरोप की सजग जनता ने भी अपना अंसतोष और गलत नीतियों के खिलाफ़ आवाज़ उठानी शुरू कर दी है ।


भारत भी इससे अछूता नहीं रहा । छोटो छोटे स्तर से लेकर , और कहीं पानी तो कहीं सडक के लिए शुरू की जाने वाली लडाई जनांदोलनों की शक्ल देने लगी । कुछ ऐसी समस्याएं जिन्होंने सभी भौगोलीय सीमाओं में एक सा ही त्रस्त कर रखा था आम आदमी को , उसके खिलाफ़ जब आवाज़ उठी तो उसे सबने स्वर दिया । अन्ना बाबूराव हज़ारे , जो आपने सात दशकों के जीवन में समाज के लिए लडी जाने वाली हर लडाई में गांधी जी के जीवन सूत्र को पकड कर चलते रहे उन्हें समाज के कुछ लोगों ने एक राष्ट्रीय मुद्दा थमा दिया । उसके बाद से अब तक इससे जुडी जो भी खबरें , घटनाएं , प्रतिक्रियाएं , कथन , बहस चली और चल रही है , उसका आकलन तो आने वाला समय करेगा , किंतु आज जो लोग , और विश्व की सबसे शक्तिशाली व्यक्तित्व लोगों की सूची में उंचा स्थान पाने वाली और वर्तमान यूपीए अध्यक्ष भी आरोपित करते हुए कहते हैं कि देश में भ्रष्टाचार जैसी समस्या का समाधान सिर्फ़ भाषणबाजी से और आमरण अनशन से नहीं हो सकता । यकीनन नहीं हो सकता , लेकिन आम जनता के रूप में जनता कम से कम आवाज़ तो उठा रही है , समस्या का समाधान सुझा तो रही है । और ये कतई नहीं भूला जाना चाहिए कि ऐसा सिर्फ़ इसलिए हो रहा है क्योंकि सरकार ,प्रशासन , विधायिका , न्यायपालिका सभी अपनी जिम्मेदारियों से बच रहे हैं ।

अन्ना हज़ारे की टीम के एक एक सदस्य को जिस तरह से अलग अलग मोर्चों पर , और अलग अलग तरीकों से सरकार के और देश में खुद को शक्तिशाली बना चुके लोगों के खिलाफ़ जाने के बदले घेरा , पीटा जा रहा है ,और उनसे जुडी मिल रही खबरों में जिस तरह की मानसिकता निकल कर सामने आ रही है वो ये बताने के लिए काफ़ी है कि स्थिति किस कदर निम्नस्तर पर है । इस मुद्दे के विरोध में जितना लिखा गया , यदि उसका आकलन किया तो तो साफ़ दिखता है कि , विरोधियों ने , मुद्दे पर कम और मुद्दे उठाने वालों पर ज्यादा ध्यान दिया । फ़िर सबसे बडी बात ये भी कि यदि वाकई उस कानून को बनाने वाले खुद भी दागदार हैं तो खुद वे भी उस कानून की ज़द में आने से खुद को कहां बचा पाएंगे , तो जब वे नहीं डर रहे हैं तो फ़िर आज अचानक एक कानून के मसौदे पर इतनी ज़िद , इतना हठ , क्यों और कैसे । यदि मंशा अच्छी है तो फ़िर ऐसे बयान क्यों आ रहे हैं जिसमें न्यायपालिका तक को ये ताकीद दी जा रही है कि ,मालदार असामियों को जेल की रोटी खिलाना देश की सेहत के लिए ठीक नहीं ।  यदि वाकई भारत की अवाम चाहती है कि भारत जैसे किसी देश का अस्तित्व और प्रभाव वैश्विक समाज में रहे और आने वाले अगले कुछ साल पुन: गुलामी में काटने जैसी किसी संभावना से बचा जाए तो फ़िर , प्रजातांत्रिक मार्ग से ही सही , लेकिन चीज़ें दुरूस्त तो करनी ही होंगी ।

शुक्रवार, 9 सितंबर 2011

क्या ये हमले कोई ईशारा कर रहे हैं ..........आज का मुद्दा






आतंकवाद अब एक समस्या से बढ कर एक विचार का रूप ले चुका है . जानते हैं ,आज जब आर्थिक आतंकवाद , बौद्धिक आतंकवाद ,जहां तक इन जान माल पर हमले के आतंकवाद की बात है तो इसके पक्ष विपक्ष में हममें से बोलने की किसी की भी औकात नहीं है ये ठीक ठीक तो आतंकवादी ही बता सकते हैं कि वे ऐसा करते क्यों हैं , और यकीनन सब अलग अलग वजहें होंगी , मगर निशाना तो वही आम आदमी ही बनता है ,तब ये भी संदेह होता है कि कहीं ये आतंकवादी भी आर्थैक आतंकवादी से जुडे हुए तो नहीं हैं कहीं ? लेकिन फ़िर भी किसी भी सूरत में इसे कुचलना चाहिए क्योंकि कोई भी दलील , इंसानों की जीवन से बडी नहीं हो सकती ॥

इस धमाके के बाद देश के राजनेताओं के बयान , उनकी कार्यशिली, आतंकवाद से  निपटने का उनका नज़रिया और रुख , मुआवजे की घोषणा आदि में से ऐसा कुछ समय में आम जनता और सरकार के बीच बढती दूरी का हे ये परिणाम है कि आज कुछ राजनीतिज्ञ इन हमलों पर घोर असंवेदनशील वक्तव्य देने से भी नहीं चूके । रही आम जनता की बात तो उसका अंदाज़ा सिर्फ़ इसी बात से लगाया जा सकता है कि अस्पतालों में नेताओं की उपस्थिति से हो रही परेशानी से होने वाले गुस्से का भाजन खुद राजनेताओं को भी भुगतना पडा और जनता ने यहां तक सवाल खडे कर दिए कि हर बार किसी बडी समस्या की तरफ़ देश का ध्यान जाता है कोई न कोई आतंकी हमला होता है वो भी सिर्फ़ आम आदमियों को मारने के लिए ।

इस वर्ष का अब तक का ये दसवां आतंकी हमला होने के बावजूद ये बहुत जरूरी हो जाता है कि कुछ जरूरी बातों की उपेक्षा न की जाए । ये ठीक है कि इतने बडे और नितनी बडी जनसंख्या वाले देश में हर आतंकी हमले को रोक पाना बेहद दुरूह कार्य है लेकिन इसकी क्या वजह हो सकती है कि अभी सत्रह माह पहले ही उसी परिसर में आतंकी हमला हुआ होने के बाद भी इतनी आसानी से पुन: उसी स्थान को निशाना बना लिया जाता है । तो क्या यही है सरकार और प्रशासन की वो इच्छाशक्ति जिसके बल पर वो वैश्विक आतंकवाद को खत्म करने की बात करती है । आखिर कहां है देश की लाखों की वर्दीधारी सेना , विशेषकर तब जबकि पता है कि बचाव दिल्ली मुंबई कोलकाता जैसे महानगरों को भी चाक चौबंद कर दें तो बहुत संभल सकती है ।

ओसामा बिन लादेन के खात्मे के बाद आतंकी दुनिया में क्या चल रहा होगा ये अंदाज़ा लगाना कठिन नहीं है । अमेरिका , ब्रिटेन , फ़्रांस , जैसे तमाम देश अपनी सुरक्षा व्यवस्था को इतना तो पुख्ता कर चुके हैं कि अब उन्हें इतनी आसानी से निशाना नहीं बनाया जा सकता है । ऐसे में भारत जैसे अव्यवस्थित देश इसलिए भी आतंकियों का पहला विकल्प है क्योंकि पडोस में पाकिस्तान , श्रीलंका जैसे आतंक से ग्रस्त देश मौजूद हैं । यदि ऐसी परिस्थितियां एक आम आदमी भी समझ पा रहा है तो क्या कारण हो सकता अहि कि इसे सरकार व प्रशासन समझ न पाए हों । जो लोग  सरकारी नियम कानूनों के बीच से घपले घोटालों की गुंजाइश तलाश लेते हैं उन्हे इसका  जरूर एहसास होगा ।

पिछले कुछ धमाके , एक और गंभीर ईशारा कर रहे हैं । कहीं ये हमले किसी बहुत बडी साजिश का एक छोटा सा हिस्सा भर तो नहीं हैं । आज इंसान की कल्पना उसे रोज़ वैज्ञानिक ताकत से बढावा दे रही है ऐसे में क्या ये बिल्कुल असंभव है कि आतंकियों के हाथों कभी परमाणु अस्त्रों जैसे विश्व विनाशक हथियार नहीं लगेगा । भारत में साल की दूसरी छमाही पर्व -त्यौहार , उत्सव , समारोहों का समय होता है इसलिए शहरों में सघनता की संभावना कई गुना बडी होती है , तो फ़िर क्या ये माना जाए कि जैसा कि अमेरिका भी आशंका जता चुका है भारत को भी अगले हमलों के लिए तैयार रहना चाहिए ।

अब बात आम आदमी की भूमिका की । आज आम आदमी को ये अच्छी तरह पता चल चुका है कि इन हमलों का शिकार वही होता है तो फ़िर उसे खुद को बचाने के लिए तैयार होना होगा । हालिया बम हमले में किसी आम आदमी ने ही संदिग्ध वाहन पुलिस को पहुंचाया ( यहां एक बात कहना और जरूरी हो जाती है कि जिन वाहन चोरी की रिपोर्टों को पुलिस दर्ज़ नहीं करती अक्सर वही वाहन इन आतंका घटनाओं के लिए जिम्मेदार होते हैं , पुलिस की जांच का ये हाल है देश में कि एक स्कूटर , कार तो दूर बस तक बरामद नहीं पर पाती )आम आदमी को खुद को शिकार बनने से रोकना होगा वो भी खुद को शिकार बनने से रोकना होगा वो भी खुद ही । कोई जरूरी नहीं है कि उत्सवओं , त्यौहारों में बाज़ारों में बेवजह की भीड बढाई जाए , घर से निकलते ही अपना सारा ध्यान सुरक्षित रूप से गंतव्य तक पहुंचने पर लगाएं और बेझिझक पुलिस को हर वो बात बताएं जो आपको खटक रही हो ।

बुधवार, 27 जुलाई 2011

विलंबित न्याय : अन्याय समान ....आखिर क्यों घिसट रहे हैं मुकदमे








अभी कुछ समय पहले जब भोपाल गैस कांड में अदालत का फ़ैसला आया तो इस हादसे को बीते पच्चीस छब्बीस बरस बीत चुके थे । आज भारतीय अदालतों में लगभग साढे तीन करोड मुकदमें लंबित हैं , अगर अभी से आने वाले मुकदमों को बिल्कुल रोक दिया जाए यानि ,.कोई भी नया मुकदमा दर्ज़ नहीं किया जाए तो भी लंबित पडे इन मुकदमों को निपटाने में बरसों लग जाएंगे । किसी भी आजाद देश के लिए , जो कि विकास पथ पर अग्रसर है उसके लिए ये बहुत ही जरूरी हो जाता है कि आम आदमी को सुलभ और त्वरित न्याय दिलाने के लिए राज्य न सिर्फ़ इसका समुचित प्रबंध करे बल्कि इसके लिए दीर्घकारी योजनाएं भी बनाए । अफ़सोस कि आज भी एक आम आदमी को अमूमन तौर पर अपने मुकदमे के निपटारे के लिए निर्धारित समय सीमा का कम से कम ढाई से तीन गुना विलंब तो होता ही है । खुद कानूनविद इसके बहुत सारे कारण मानते और गिनवाते हैं ।

जस्टिस डिलेड इज जस्टिस डिनाइड ..जैसे सूत्र का प्रयोग सबसे पहले विलियम पेन्न से संबंधित और विलियम एवर्ट ग्लैड्स्टन द्वारा प्रतिपादित बताते हैं , जो मैग्नाकार्टा के खण्ड -४० में भी परिलक्षित हुई थी । इसका तात्पर्य ये है कि - " पीडित को युक्तियुक्त समय के भीतर न्याय सुलभ होना चाहेइ । समय से न्याय न मिलना, व्यवहारत: न्याय से वंचित करने जैसा ही है । जबकि भारतीय संविधान के अनुच्छेद ३९ मे राज्य और प्रशासन से ये अपेक्षा की गई है कि वह सभी नागरिकों को समान न्याय व नि:शुल्क विधिक सहायता उपलब्ध कराए , और अफ़सोस व दुख की बात ये है कि दोनों ही दृष्टिकोण से राज्य इसमें बुरी तरह से असफ़ल रहा है । आज भारतीय न्यायिक व्यवस्था , मुकदमों के बोझ , और विधायिका एवं कार्यपालिका के नकारेपन के कारण आम नागरिकों की बढी अपेक्षा के बीच जैसे चरमरा सी गई है ।

कानूनविद और विधि विशेषज्ञ अपने अध्ययन के आधार पर भारतीय न्यायपालिका की कच्छप गति के लिए कुछ विशेष कारणों को ही जिम्मेदार मानते हैं । इनमें सबसे पहला कारण खुद सरकार ही है । यहां ये बताना समीचीन होगा कि , देश में आज लंबित लगभग साढे तीन करोड से ज्यादा मुकदमों के लिए खुद सरकार ही सबसे ज्यादा जिम्मेदार है , क्योंकि इन लंबित मुकदमों में से एक तिहाई मुकदमों में सरकार खुद एक पक्ष है । विधि विशेषज्ञ मानते हैं कि , सरकार को अविलंब ही इस दिशा में काम करना चाहिए और न सिर्फ़ फ़ालतू व जबरन दर्ज़ किए कराए मुकदमों को वापस लिए जाने की दिशा में ठोस कदम उठाने चाहिए बल्कि एक ऐसी व्यवस्था भी करनी चाहिए , एक स्क्रूटनाइज़ेशन जैसी व्यवस्था जो अपने स्तर पर जांच करके , सरकार को वादी प्रतिवादे बनने से बचने में मदद करे और अनावश्यक अपील करके उसे लंबा करते चले जाने में भी ।



विधिवेत्ता मानते हैं कि भारतीय न्याय व्यवस्था में किसी भी निरपराध को सज़ा से बचाने के लिए बहुस्तरीय न्याय व्यवस्था का प्रावधान किया गया । ये न सिर्फ़ मुकदमों के निस्तारण को बेहद धीमा बल्कि इसे बहुत खर्चीला भी बना देता है । एक आकलन के अनुसार , यदि किसी मुकदमे को अपने सारे स्तरों से गुजरना पडे तो को मौजूदा स्थितियों में कम से कम पांच से आठ वर्षों का समय लगना तो निश्चित है । बढती जनसंख्या और उससे भी ज्यादा समाज में बढते अपराध , लोगों का अपने विधिक अधिकारों के प्रति सजगता में आई तेज़ी , देश में अदालतों और न्यायाधीशों की घोर कमी , अधीनस्थ न्यायालयों में ढांचागत सुविधाओं क अघोर अभाव , न्यायाधीशों व न्यायकर्मियों को मूलभूत सुविधाओं की अनुपलब्धता के कारण उनकी कार्यकुशलता तथा मनोभावों पर पडता नकारात्मक प्रभाव , न्यायपालिका में तेज़ी से बढता भ्रष्टाचार , आदि कुछ ऐसे ही मुख्य कारण हैं जिन्होंने अदालती कार्यवाहियों को दिन महीनों की तारीखों में उलझा कर रख दिया है ।


हालांकि , न्यायप्रक्रिया को गति प्रदान करने के उद्देश्य से सरकार ने पिछले वर्ष राष्ट्रीय वाद नीति की शुरूआत की है और अभी हाल ही में कानून मंत्री ने मिशन मोड योजना जैसे कार्यक्रमों की शुरूआत की है , लेकिन विधि विशेषज्ञ इनसे बेहतर कुछ उपाय अपनाने की ओर ईशारा करते हैं । कानूनविद मानते हैं कि सरकार को सबसे पहले देश में ज्यादा से ज्यादा अदालतों के गठन के साथ ही , न्यायाधीशों की नियुक्ति , रिक्त स्थानों को भरने की तुरंत व्यवस्था करनी चाहिए । आज मुकदमों के निस्तारण के लिए भारतीय न्यायपालिका द्वारा अपनाए जा रहे सभी वैकल्पिक उपायों , जैसे , मध्यस्थता की प्रक्रिया , लोक अदालतों का गठन , विधिक सेवा का विस्तार , ग्राम अदालतों का गठन , लोगों में कानून एंव व्यवस्था के प्रति डर की भावना जाग्रत करना , प्रशासन द्वारा अपराध की रोकथाम हेतु गंभीर प्रयास , अदालती कार्यवाहियों में स्थगन लेने व देने की प्रवृत्ति में बदलाव , अधिवक्ताओं द्वारा हडताल , बहिष्कार जैसी प्रवृत्तियों को न अपनाए जाने के प्रति किए जाने वाले उपाय आदि से अदालत में सिसक और घिसट रहे मुकदमों में जरूर रफ़्तार लाई जा सकेगी , लेकिन ऐसा कब तक हो पाएगा ये बहुत बडा प्रश्न है ।

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