... एक कहावत है बहुत ही पुरानी और दिलचस्प ,बात यह है कि हमारी हर कहावत के पीछे जो सच छुपा होता है वह हमारे पूर्वजों के अनुभव का निचोड़ होता है तो जैसा कि मैं कह रहा था कि एक कहावत है पथ्य (दवा ) से परहेज भली ||अर्थात सच में देखा जाए तो दिल्ली के वर्तमान हालात , जिनमें चारों तरफ चीख पुकार मची हुई है | अस्पतालों में बिस्तरों से लेकर के फर्श तक पर मरीज को चीख पुकार रहे हैं | डॉक्टर दवाइयां सभी बेबस से दिख रहे हैं | जहां तक सरकार व प्रशासन की बात है तो वह पिछले कई वर्षों की तरह सिर्फ एक दूसरे पर दोषारोपण करने कि अपनी पुरानी पति को दोहरा रहे हैं भारतीय प्रशासनिक व्यवस्था की एक सबसे बड़ी भूल है कि वह ना तो भविष्य के लिए तैयार होता है ना इतिहास में की गई से कोई सबक लेता है लेता है |
आपने कभी इस बात पर गौर किया है कि हमारी सरकार ,हमारी व्यवस्था , हमारा समाज ,हमारा परिवार ,सभी इस बात पर तो खूब जोर देते हैं व इस बात की सारी फ़िक्र रखी जाती है ढेरों जतन किए जाते हैं ||बीमार पड़ते ही उपचार किए जाने के लिए , किंतु जीवन में कोई बीमार ही ना पड़े या फिर कम से कम रोगों से ग्रस्त हो इस तरह की कोई व्यवस्था इस तरह की कोई सूरत दिखाई ही नहीं देती || बच्चों की किताबें ,बच्चों की शारीरिक शिक्षण कहीं पर भी उसमें इस बात का जवाब नहीं दिया जाता कि कौन कौन सी आदतें , किस तरह का खानपान , मौसम के अनुरूप परहेज़ व् सावधानी आदि का ध्यान रखी जानी चाहिए , यह उनके रोजाना पढने वाले भारी भरकम पाठ्यक्रम का हिस्सा क्यों नहीं होता | जो पढ़ाई होती है वह भी सालों से रटा रटाया है ,जिसे बच्चे सिर्फ और सिर्फ एक प्रश्न और उत्तर की तरह याद करके आगे बढ़ जाते हैं जीवन में उसे नहीं उतारते ||
हालांकि ग्रामीण क्षेत्रों में ऐसा नहीं है मुझे याद आता है गांव का एक छोटा सा त्यौहार अगर मैं ठीक हूं तो उसे हम लोग जूडशीतल बुलाते हैं जो शीतल यानि नाम के अनुरूप शीतलता से कुछ सम्बंधित | यह उन दिनों में मनाया जाता है जिन दिनों पानी की काफी कमी हो जाती है पेड़ पौधे सूखने लगते हैं और मान्यता यह है कि इस दिन सभी व्यक्ति गांव के छोटे बड़े सभी पेड़ पौधे वनस्पति ,उसकी जड़ों में पानी का कुछ न कुछ अंश जरूर डालते हैं | लोग अपने दूरदराज के बगीचे में जाकर वहां वृक्षों , पौधों वनस्पति में इस प्रकार पानी डालते हैं मानो अपने परिवार के किसी बुजुर्ग की सेवा कर रहे हों | कहने को तो यह एक त्यौहार है किंतु इसके पीछे विज्ञान को तो देखें तो हम पाएंगे कि इंसान और पारिस्थिति पेड़ पौधों का कितना सुंदर संबंध स्थापित किया गया है ||
इसी तरह का एक दूसरा प्रसंग याद आता है ऐसा कि बरसात के दिनों में ग्रामीण क्षेत्रों में बड़े बुजुर्ग अक्सर नीम के पत्तों को पीसकर उसकी छोटी-छोटी गोलियां बनाकर उन्हें सुखा लिया करते थे || जिन्हें बरसात ऋतु के शुरु होने से पहले बड़े बच्चे स्त्री पुरुष सब को खिलाया जाता था ||इसके पीछे का तर्क यह था कि वह पेट में जाकर के रक्त विकारों को साफ कर देता था यह एक तरह का प्रतिरोधक होता था जो शरीर में जाकर के बरसाती दिनों के फोड़े-फुंसी पित्त कफ्फ आदि उन सब को नियंत्रित करता था| इसके परिणामस्वरूप रोगग्रस्त होने की समस्या बहुत कम हो जाती थी |
स्थानीय सामाजिक संगठनो , सरकारों , प्रशासन और खुद हमें अब आगे बढ़ कर इस दिशा में पहल करनी होगी इससे पहले कि बहुत देर हो जाए | और यह करना इतना भी मुश्किल नहीं है कि यदि आज और अभी से शुरु किया जाए तो ज्यादा नहीं सिर्फ पांच से दस वर्षों में ही फर्क स्पष्ट दिखने लगेगा || अपने आसपास सफाई स्वच्छता की आदत ,दैनिक व नियमित दिनचर्या ,संतुलित खानपान ,ज्यादा से ज्यादा शारीरिक श्रम आदि के अतिरिक्त आस-पास उपलब्ध भूमि पर अधिक से अधिक वृक्ष लगाना विशेषकर नीम पीपल आदि जैसे स्वास्थ्यवर्धक वृक्षों की उपस्थिति रोगों के फैलने पनपने को बहुत कम कर देती है।।
देखिए स्थिति बिल्कुल स्पष्ट है , या तो आप अपना सारा समय श्रम हुआ धन बीमार होने के बाद खुद को निरोग करने के लिए दवाइयों में चिकित्सा में शल्य चिकित्सा में खर्च करें अन्यथा इन सब स्थितियों में पड़ने से पहले ही खुद को स्वस्थ निरोग रखने के प्रति सचेत व सजग होने की आदत डालें यह मैं आज और अभी से करने के लिए इसलिए कह रहा हूं ताकि आने वाली नस्लें स्वाभाविक रूप से इसे एक आदत के रूप में पाएं | इसलिए आज से और अभी से खुद को बीमार ना पडने देने का संकल्प ले और उस अनुरूप व्यवहार करें यही उचित है, यही अनिवार्य है ,और यही आखरी रास्ता है
सच..
जवाब देंहटाएंजानते सब हैं
पर अमल में नहीं लाते
सादर
बहुत बहुत शुक्रिया और आभार आपका प्रतिक्रिया देने के लिए यशोदा जी
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