बुधवार, 27 जुलाई 2011

विलंबित न्याय : अन्याय समान ....आखिर क्यों घिसट रहे हैं मुकदमे








अभी कुछ समय पहले जब भोपाल गैस कांड में अदालत का फ़ैसला आया तो इस हादसे को बीते पच्चीस छब्बीस बरस बीत चुके थे । आज भारतीय अदालतों में लगभग साढे तीन करोड मुकदमें लंबित हैं , अगर अभी से आने वाले मुकदमों को बिल्कुल रोक दिया जाए यानि ,.कोई भी नया मुकदमा दर्ज़ नहीं किया जाए तो भी लंबित पडे इन मुकदमों को निपटाने में बरसों लग जाएंगे । किसी भी आजाद देश के लिए , जो कि विकास पथ पर अग्रसर है उसके लिए ये बहुत ही जरूरी हो जाता है कि आम आदमी को सुलभ और त्वरित न्याय दिलाने के लिए राज्य न सिर्फ़ इसका समुचित प्रबंध करे बल्कि इसके लिए दीर्घकारी योजनाएं भी बनाए । अफ़सोस कि आज भी एक आम आदमी को अमूमन तौर पर अपने मुकदमे के निपटारे के लिए निर्धारित समय सीमा का कम से कम ढाई से तीन गुना विलंब तो होता ही है । खुद कानूनविद इसके बहुत सारे कारण मानते और गिनवाते हैं ।

जस्टिस डिलेड इज जस्टिस डिनाइड ..जैसे सूत्र का प्रयोग सबसे पहले विलियम पेन्न से संबंधित और विलियम एवर्ट ग्लैड्स्टन द्वारा प्रतिपादित बताते हैं , जो मैग्नाकार्टा के खण्ड -४० में भी परिलक्षित हुई थी । इसका तात्पर्य ये है कि - " पीडित को युक्तियुक्त समय के भीतर न्याय सुलभ होना चाहेइ । समय से न्याय न मिलना, व्यवहारत: न्याय से वंचित करने जैसा ही है । जबकि भारतीय संविधान के अनुच्छेद ३९ मे राज्य और प्रशासन से ये अपेक्षा की गई है कि वह सभी नागरिकों को समान न्याय व नि:शुल्क विधिक सहायता उपलब्ध कराए , और अफ़सोस व दुख की बात ये है कि दोनों ही दृष्टिकोण से राज्य इसमें बुरी तरह से असफ़ल रहा है । आज भारतीय न्यायिक व्यवस्था , मुकदमों के बोझ , और विधायिका एवं कार्यपालिका के नकारेपन के कारण आम नागरिकों की बढी अपेक्षा के बीच जैसे चरमरा सी गई है ।

कानूनविद और विधि विशेषज्ञ अपने अध्ययन के आधार पर भारतीय न्यायपालिका की कच्छप गति के लिए कुछ विशेष कारणों को ही जिम्मेदार मानते हैं । इनमें सबसे पहला कारण खुद सरकार ही है । यहां ये बताना समीचीन होगा कि , देश में आज लंबित लगभग साढे तीन करोड से ज्यादा मुकदमों के लिए खुद सरकार ही सबसे ज्यादा जिम्मेदार है , क्योंकि इन लंबित मुकदमों में से एक तिहाई मुकदमों में सरकार खुद एक पक्ष है । विधि विशेषज्ञ मानते हैं कि , सरकार को अविलंब ही इस दिशा में काम करना चाहिए और न सिर्फ़ फ़ालतू व जबरन दर्ज़ किए कराए मुकदमों को वापस लिए जाने की दिशा में ठोस कदम उठाने चाहिए बल्कि एक ऐसी व्यवस्था भी करनी चाहिए , एक स्क्रूटनाइज़ेशन जैसी व्यवस्था जो अपने स्तर पर जांच करके , सरकार को वादी प्रतिवादे बनने से बचने में मदद करे और अनावश्यक अपील करके उसे लंबा करते चले जाने में भी ।



विधिवेत्ता मानते हैं कि भारतीय न्याय व्यवस्था में किसी भी निरपराध को सज़ा से बचाने के लिए बहुस्तरीय न्याय व्यवस्था का प्रावधान किया गया । ये न सिर्फ़ मुकदमों के निस्तारण को बेहद धीमा बल्कि इसे बहुत खर्चीला भी बना देता है । एक आकलन के अनुसार , यदि किसी मुकदमे को अपने सारे स्तरों से गुजरना पडे तो को मौजूदा स्थितियों में कम से कम पांच से आठ वर्षों का समय लगना तो निश्चित है । बढती जनसंख्या और उससे भी ज्यादा समाज में बढते अपराध , लोगों का अपने विधिक अधिकारों के प्रति सजगता में आई तेज़ी , देश में अदालतों और न्यायाधीशों की घोर कमी , अधीनस्थ न्यायालयों में ढांचागत सुविधाओं क अघोर अभाव , न्यायाधीशों व न्यायकर्मियों को मूलभूत सुविधाओं की अनुपलब्धता के कारण उनकी कार्यकुशलता तथा मनोभावों पर पडता नकारात्मक प्रभाव , न्यायपालिका में तेज़ी से बढता भ्रष्टाचार , आदि कुछ ऐसे ही मुख्य कारण हैं जिन्होंने अदालती कार्यवाहियों को दिन महीनों की तारीखों में उलझा कर रख दिया है ।


हालांकि , न्यायप्रक्रिया को गति प्रदान करने के उद्देश्य से सरकार ने पिछले वर्ष राष्ट्रीय वाद नीति की शुरूआत की है और अभी हाल ही में कानून मंत्री ने मिशन मोड योजना जैसे कार्यक्रमों की शुरूआत की है , लेकिन विधि विशेषज्ञ इनसे बेहतर कुछ उपाय अपनाने की ओर ईशारा करते हैं । कानूनविद मानते हैं कि सरकार को सबसे पहले देश में ज्यादा से ज्यादा अदालतों के गठन के साथ ही , न्यायाधीशों की नियुक्ति , रिक्त स्थानों को भरने की तुरंत व्यवस्था करनी चाहिए । आज मुकदमों के निस्तारण के लिए भारतीय न्यायपालिका द्वारा अपनाए जा रहे सभी वैकल्पिक उपायों , जैसे , मध्यस्थता की प्रक्रिया , लोक अदालतों का गठन , विधिक सेवा का विस्तार , ग्राम अदालतों का गठन , लोगों में कानून एंव व्यवस्था के प्रति डर की भावना जाग्रत करना , प्रशासन द्वारा अपराध की रोकथाम हेतु गंभीर प्रयास , अदालती कार्यवाहियों में स्थगन लेने व देने की प्रवृत्ति में बदलाव , अधिवक्ताओं द्वारा हडताल , बहिष्कार जैसी प्रवृत्तियों को न अपनाए जाने के प्रति किए जाने वाले उपाय आदि से अदालत में सिसक और घिसट रहे मुकदमों में जरूर रफ़्तार लाई जा सकेगी , लेकिन ऐसा कब तक हो पाएगा ये बहुत बडा प्रश्न है ।

3 टिप्‍पणियां:

  1. देश में न्यायालयो की बेहद कमी है। हम एक चौथाई से भी कम न्यायालयों से काम चला रहे हैं। इन्फ्रास्ट्रक्चर की भी कमी है। न्यायालयों की संख्या में वृद्धि और इन्फ्रास्ट्रक्चर का विकास कर के ही न्याय को त्वरित बनाया जा सकता है। लेकिन सरकारें इस काम को कोई महत्व नहीं देतीं। जब तक सरकारों पर दबाव नहीं बनेगा औऱ सरकारें इस मद में अधिक खर्च करने का निर्णय नहीं लेतीं कोई राहत संभव नहीं है।

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  2. जब तक सरकारें अधिक धन मुहैय्या नहीं कराएगी तब तक बेमानी है उसकी बातें

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मुद्दों पर मैंने अपनी सोच तो सामने रख दी आपने पढ भी ली ....मगर आप जब तक बतायेंगे नहीं ..मैं जानूंगा कैसे कि ...आप क्या सोचते हैं उस बारे में..

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