रविवार, 7 मार्च 2010

आखिर किस धारा के वाहक .....ये धारावाहिक




भारत में जब टेलीविजन की शुरूआत हुई थी तो दूरदर्शन पर ये जिम्मेदारी थी कि दर्शकों तक उस टेलीविजन के माध्यम से क्या पहुंचाया जाना है और किस तरह से पहुंचाया जाना है ? यदि शुरूआती दिनों को याद करें तो उस समय दूरदर्शन नामके एकमात्र सरकारी चैनल ने पूरे सप्ताह के लिए तैयार किए या कराए गए कार्यक्रमों में जो गजब का संतुलन बनाया था वो अब चाह कर भी लगभग सौ से भी ज्यादा चैनल नहीं बना पा रहे हैं । समाचार, खेल , रोजगार , चित्रहार, ज्ञानप्रद धारावाहिक, गुमशुदा लोगों की तलाश , कृषि दर्शन , हिंदी सिनेमा, साक्षात्कार, पहेली प्रतियोगिता, प्रादेशिक समाचार और क्षेत्रीय सिनेमा ...और जाने क्या क्या ऐसा लगता था मानो एक सप्ताह में ही पूरे समाज और देश का प्रतिबिंब सामने रख दिया गया हो । यदि आज समाचारों के नाम पर चल रहे लगभग तीस चैनलों पर दिखाई बताई और शायद बनाई जाने वाली खबरों , मनोरंजन और हास्य के नाम पर फ़ूहडता से लबरेज रिएल्टी शोज़ की बातें न भी करें और सिर्फ़ धारावाहिकों , जिनके लिए कि हमेशा से "सामाजिक " विशेषण का उपयोग किया जाता रहा है , और दावा किया जाता है कि प्राईम टाईम में दिखाए जाने वाले ये सभी धारावाहिक परिवार और समाज की कहानी हैं , इन्हें ही मंथन के केंद्र में रखें तो पाते हैं कि आज इन धारावाहिकों की खुद की ही धारा भटकी हुई है ।

कभी हमलोग ,खानदान, बुनियाद, फ़ौजी, नुक्कड, सर्कस आदि को देखने वाला समाज बेशक आज के इस आधुनिक युग के धारावाहिकों को देख कर अपना समय बिता लेता हो ,,मगर एक टीस तो मन में जरूर उठती है कि इन धारावाहिकों के सहारे समाज या कि समाज पर खुद को आधारित बताते धारावाहिक , कुल मिलाकर दे और दिखा क्या रहे हैं इस समाज को ?? लगभग पच्चीस लोकप्रिय हिंदी चैनलों पर इस समय कमोबेश सवा सौ धारावाहिक चल रहे हैं । इनमें से आधे से भी ज्यादा लगभग ६५ प्रतिशत धारावाहिक निश्चित तौर पर महिलाओं की विभिन्न समस्याओं पर आधारित धारावाहिक बताते हैं खुद को । इनके अलावा लगभग बीस प्रतिशत कार्यक्रम रिएल्टी शोज़ वाले धारावाहिक हैं जिनमें से कुछ तो फ़ूहड हास्य परोसने का काम कर रहे हैं और कुछ तो इनसे भी आगे जाकर जाने कैसे कैसे "इमोशनल अत्याचार "(बिंदास टीवी पर दिखाया जाने वाला एक कार्यक्रम ) कर रहे हैं ।

वे धारावाहिक जो महिलाओं की समस्याओं पर खुद को आधारित बताते हैं , पता नहीं उन्होंने "शांति " उडान , और ऐसे ही कई अन्य धारावाहिकों को कभी देखा था कि नहीं । मगर आज महिलाओं के लिए ही महिलाओं के नाम पर जिस तरह के धारावाहिक बनाए और दिखाए जा रहे हैं उन्हें देख कर आम दर्शक बिल्कुल ही ठगा सा महसूस कर रहा है । एक प्रसिद्ध धारावाहिक निर्मात्री द्वारा शुरू किया गया ट्रेंड अब धीरे धीरे एक सैट पैटर्न बन गया है । सबसे हैरत और दुख की बात ये है कि इन धारावाहिकों में सभी महिला पात्रों और चरित्रों का जम के नकारात्मक चित्रण किया जा रहा है और कई बार तो इस कोशिश में धारावाहिक खुद अपने ही कंसेप्ट से भटके या उलझे हुए से लगते हैं । अब देखिए न कलर्स टीवी पर दिखाए जाने वाले धारावाहिक "लाडो , न आना इस देश "में बताया जा रहा है कि उस कस्बे में बेटी होना सबसे बडा अपराध है , सबसे बडी समस्या है , कन्या भ्रूण हत्या तक की जा रही है ....मगर उस धारावाहिक का सबसे कद्दावर और प्रभावशाली चरित्र यानि जो ये सब कह और कर रहा है .....वो खुद और कोई नहीं एक महिला है ।

यहां एक बात का जिक्र भी समीचीन होगा शायद कि पहले जब धारावाहिकों का निर्माण होता था तो निर्माताओं को , चैनल को , और शायद सभी को ये पता होता था कि इस धारावाहिक की कितनी कडियां होंगी । यानि उसका आरंभ और अंत सभी कुछ पहले ही तय हो जाता था । मतलब स्पष्ट है कि धारावाहिक में क्या कब कितना और कैसे और कहां तक दिखाया जाना है सब कुछ पहले ही निर्धारित कर दिया जाता था । मगर अब तो हालात ऐसे हैं कि यदि एक बार कोई धारावाहिक शुरू हो गया तो फ़िर उसका अंत कब होगा कैसे होगा इसका अंदाजा कोई नहीं लगा सकता खुद धारावाहिक निर्माता भी नहीं । और स्थिति इतनी विकट हो चुकी है कि बहुत बार बल्कि कहें कि अक्सर ही किसी खास उद्देश्य या समस्या को आधारित करके शुरू किया धारावाहिक भी अपने मूल से भटक कर कहीं का कहीं पहुंच जाता है । पात्र मर जाते हैं फ़िर जिंदा हो जाते हैं , आसानी से उनके हूबहू पात्र भी उनके जीवन में आ जाते हैं , सारे षड्यंत्र घरों में ही होते हैं , बडे बडे बंग्ले कोठी वाले परिवार कभी कोई काम करते कराते नहीं दिखाए जाते , या फ़िर एकाएक सारी संपत्ति हडपे जाने के बाद सीधे ही कोई छोटी मोटी सी नौकरी करने लगते हैं.. कुल मिलाकर सब कुछ हौचपौच ।

इन धारावाहिक निर्माताओं से जब सवाल पूछा जाता है तो उनका जवाब वही फ़िल्मकारों वाला होता है कि समाज में जो हो रहा है वही दिखाया जाता है । मगर क्या यही हो रहा समाज में सिर्फ़ यही ??और क्या कल को समाज में इससे ज्यादा गंदगी , नंगई दिखेगी तो धारावाहिकों में भी वही सब देखने सुनने को मिलेगा । सच तो ये है कि व्यावसायिक लाभ के आगे सामाजिक संदेश , या सामाजिक जिम्मेदारी , जैसे शब्दों का वजन बिल्कुल शून्य हो जाता है । ये तो भविष्य ही बताएगा कि टेलीविजन, समाज से कितना प्रेरित होता है या फ़िर ये कि समाज पर इन धारावाहिकों का असर कितना होता है ????



7 टिप्‍पणियां:

  1. "कभी हमलोग ,खानदान, बुनियाद, फ़ौजी, नुक्कड, सर्कस आदि को देखने वाला समाज बेशक आज के इस आधुनिक युग के धारावाहिकों को देख कर अपना समय बिता लेता हो ,,मगर एक टीस तो मन में जरूर उठती है कि इन धारावाहिकों के सहारे समाज या कि समाज पर खुद को आधारित बताते धारावाहिक , कुल मिलाकर दे और दिखा क्या रहे हैं इस समाज को ??"

    बिल्कुल टीस उठती है। आपने बहुत ही सही लिखा है! हमने तो बहुत पहले ही आजकल के धारावाहिकों को देखना ही छोड़ दिया है।

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  2. दिल पे सीरियसली नहीं लेने का...
    ये प्रोड़यूसर/टी.वी./विज्ञापक लोगों के टाइम-पास का जरिया है

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  3. अब तो टीवी देखना ही बंद सा हो गया है कभी कोई खेल या फिर समाचार के अलावा।

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  4. अजय भाई अपुन ने तो इसीलिये टीवी देखना ही बन्द कर दिया है. ये सीरियल बाले सचाई के सीरियल किलर है.
    ये रात के २ बजे उठते है तो बिल्कुल चकाचक जैसे बारात मे जा रहे है. अब ज्यादा मत कहलवाना मेरे से.

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  5. आपने एक चीज पर ध्यान नहीं दिया. चौबीस घंटों के प्रसारण में लगभग छ: घंटे विज्ञापन आते हैं जिसके लिये कम्पनियां करोड़ों रुपये रोज फूंकती हैं. ऊपर से लोग इन छ: घंटों में कितनी बिजली का अपव्यय इन फालतू विज्ञापनों को देखने में करते हैं.

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  6. सब उल्टा पुल्टा, सच काका आपने की उनको खुद ही नहीं पता की कब प्राम्भ और कब अंत होगा.
    हो सकता है उनको लगता हो की यही समय की मांग है,या फिर टी र पी की होड़ में सब भूल गए हैं ये .
    विकास पाण्डेय
    www.विचारो का दर्पण.blogspot.com

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मुद्दों पर मैंने अपनी सोच तो सामने रख दी आपने पढ भी ली ....मगर आप जब तक बतायेंगे नहीं ..मैं जानूंगा कैसे कि ...आप क्या सोचते हैं उस बारे में..

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