गुरुवार, 26 जनवरी 2012

विकास के लिए तत्पर होता बिहार





देश के सबसे बीमार , पिछडे , अविकसित राज्य की फ़ेहरिस्त में सबसे पहला नाम बिहार का ही आता है । यही नहीं देश के सुदूर उत्तर पूर्वी राज्यों से लेकर राजधानी दिल्ली , मुंबई ,पंजाब और गुजरात के अलावा बंग्लौर जैसे आईटी हब बने शहरों में बिहार से पलायन करके पहुंचे लोगों की संख्या इतनी अधिक है कि अब उन्हें स्थानीय राजनीति का विरोध और हिंसा तक का सामना करना पड रहा है । पिछले डेढ दशकों में , यानि कि वर्तमान सरकार से पहले की सरकारों ने अधोगति की ओर अग्रसर बिहार को पत्तन के गर्त में पहुंचा दिया । इस दौरान न सिर्फ़ शिक्षा ,रोज़गार ,परिवहन और उद्दोग सहित राज्य की सभी मूलभूत व्यवस्थाएं न सिर्फ़ चरमराई व राजकोष की स्थिति ऐसी कर दी सरकारी कर्मचारियों व राज्य के शिक्षकों को वेतन देने में भी सरकार को कठिनाई होने लगी । अपराध व भ्रष्टाचार का ऐसी जोड बन गया जिसने राज्य के आर्थिक ढांचे को बिल्कुल ढहा दिया ।

वर्तमान मुख्यमंत्री ने जब राज्य का जिम्मा संभाला तब सबने परिवर्तन की उम्मीद करने के बावजूद किसी बडे बदलाव की उम्मीद नहीं की थी । नई सरकार ने राज्य के विकास को दोबारा पटरी पर लाने के लिए पूरी प्रतिबद्धता से कार्य शुरू किया । सबसे पहले सडक परिवहन को दुरूस्त करने के लिए राष्ट्रीय राजमार्गों व राजकीय मार्गों के निर्माण , विस्तार एवं मरम्मत का काम  पूरे जोर शोर से शुरू किया गया । बहुत जल्दी ही इसका परिणाम भी स्पष्ट दिखने लगा । लगातार आ रहे बाढ ने सडकों की हालत बिल्कुल खस्ता व जर्जर कर दी थी , जिनका जीर्णोधार करके राज्य के सभी छोटे बडे शहरों को मिलाने का काम किया गया । इन सडकों के निर्माण में तमाम तरह के भ्रष्टाचार पर रोक लगाने के लिए न सिर्फ़ उनकी निगरानी की गई बल्कि अभी हाल ही में राज्य सरकार ने उन तमाम ठेकेदारों की पहचान की है जिन्होंने जानबूझ कर सडक निर्माण के कार्य में देरी की है , प्रशासन उनके खिलाफ़ प्राथमिकी दर्ज़ कराने की तैयारी में है ।

राज्य के विकास में अपराध व परिवहन व्यवस्था के बाद सबसे बडी बाधा थी प्रशासकीय भ्रष्टाचार । इससे निपटने के लिए सरकार ने कई अभूतपूर्व कार्य किए । राज्य में पहली बार एक निश्चित समय में किसी भी कार्य को करने कराने के लिए राईट टू सर्विस बिल को लागू कर दिया ।  भ्रष्टाचार पर अध्य्यन करने वाली एजेंसियों ने बताया कि आम आदमी को अपने छोटे-छोटे काम समय पर करवाने के लिए रिश्वत देनी पडती है । सरकारी दफ़्तर व कर्मचारियों का टालू रवैय्या आम आदमी को जरूरत के समय काम न करने होने के कारण रिश्वत व भ्रष्टाचार की गुंजाईश को बनाए रखता है । आम आदमी का काम , कम से कम और एक नियत समय तक हो जाने को सुनिश्चित कराने वाले इस कानून को लागू करने से प्रशासनिक भ्रष्टाचार की एक गुंजाईश को रोक दिया गया ।

देश में भ्रष्टाचार उन्मूलन के संदर्भ में एक चौंकाने वाला तथ्य ये है कि बडे बडे आर्थिक घपलों घोटालों के उजागर होने और आरोपियों/दोषियों की पहचान हो जाने के बावजूद सरकार , प्रशासन व कानून तक उनसे गबन के पैसे की उगागी नहीं कर पाते । ऐसे में अभी हाल ही में सरकार ने एक भ्रष्ट अधिकारी के महंगे आलीशान आवास को कब्जे में लेकर उसमें स्कूल खोल कर एक नई नज़ीर पेश कर दी ।  यदि सूत्रों की मानें तो सरकार ने बहुत सारे ऐसे भ्रष्ट अधिकारियों की पहचान कर ली है जिनकी नामी/बेनामी संपत्तियों को ज़ब्त करने की योजना है ।

हालांकि बहुत से मोर्चों पर सरकार सही दिशा में चलते हुए आशातीत सफ़लता हासिल कर रही है । लोगों का विश्वास भी बढा है , किंतु कुछ बहुत अहम मुद्दों पर बेहद गंभीरता से अभी बहुत कुछ किया जाना बांकी है । इनमें शिक्षा, ग्रामोद्योग , औद्यौगीकरण एवं चिकित्सा आदि क्षेत्रों में स्थिति न सिर्फ़ चिंताजनक बल्कि भयावह है । राज्य के प्राथमिक , माध्यमिक व उच्च उद्यालयों के साथ ही महाविद्यालय व विश्वविद्यालय तक धन व श्रम की कमी , संसाधनों का अभाव झेलने को अभिशप्त हैं । हालात का अंदाज़ा इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि पिछले दिनों शिक्षकों के बकाए वेतन के बदले सरकारी गोदामों में पडे अनाज को देने की पेशकश की गई थी । और तो और लगभग ४७ प्रतिशत शिक्षा संस्थानों में पेयजल व शौचालय की व्यवस्था दुरूस्त नहीं पाई गई। उच्च एवं उच्चतर शिक्षा , व्यावसायिक शिक्षा आदि के लिए तो गिनती के लिए भी शिक्षण संस्थान उपलब्ध नहीं हैं यही कारण है कि प्रतिवर्ष लाखों मेधावी छात्र शिक्षा और कैरियर के कारण राज्य से पलायन कर जाते हैं ।

कभी खादी ग्रामोद्योग , मखाना उद्योग , जूट उद्दोग सहित तमाम लघु व कुटीर उद्योगों की स्थिति मरणासन्न अवस्था को प्राप्त हो चुकी हैं । प्रशासन की उदासीनता और बाज़ार की कमी ने मानो इन्हें हाशिए पर धकेल कर विस्मृत कर दिया । कभी चीनी उद्योग, कागज़ उद्योग, जूट उद्योग सूत व धागा उद्योग आदि में अग्रणी  स्थान पाने वाले राज्य की आज एक एक औद्योगिक ईकाई बंद पडी अपने जीर्णोद्धार का बाट जोह रही हैं । इन औद्योगिक संस्थानों में लगी लाखों करोडों की मशीनें भी अब पूरी तरह से खराब हो चुकी हैं । हालांकि राज्य सरकार इस दिशा में देश के बडे औद्योगिक घरानों व अन्य व्यावसायिओं को राज्य में निवेश करने के लिए प्रोत्साहित करने हेतु कई प्रयास कर रही है , किंतु उसका सार्थक परिनाम अब तक निकल कर सामने नहीं आया है । इस बीच सुधा डेयरी व दुग्ध उत्पाद उद्दोग एवं मैथिली-भोजपुरी फ़िल्मोद्योग ने पिछले दिनों खुद को नए सिर से स्थापित करके एक आस जरूर जगाई है ।

चिकित्सा और कृषि व्यवस्था की स्थिति भी बेहद खराब है । झारखंड के अलग होने के नुकसान के अलावा पिछले सालों से बिहार में लगातार आ रही बाढ और किसानों पर बढते कर्ज़ आदि ने कृषकों को हतोत्साहित कर कृषि मजदूरों में बदल कर रख दिया है । यहां एक सकारात्मक तथ्य ये सामने आया है कि मुजफ़्फ़रपुर स्थित कृषि अनुसंधान की पहल पर पारंपरिक खेती से अलग जाकर कृषकों ने कई वनस्पतियों , सब्जियों और औषधियों की खेती शुरू कर दी है । आम , लीची , केले जैसे फ़लों के बगीचों को व्यावसायिक उद्देश्य से तैयार किया जा रहा है ।


बिहार में जितनी बुरी हालत शिक्षा व्यवस्था की है उससे भी ज्यादा खराब स्थिति राज्य की चिकित्सा व्यवस्था की है । पूरे राज्य में कोई भी सरकारी या निजि अस्पताल ऐसा नहीं है जो राज्य के बीमारों को उच्चतम चिकित्सा सुविधा मुहैय्या करा सके । कुछ वर्ष पहले केंद्र सरकार ने एम्स के स्तर के छ चिकित्सा संस्थानों एवं अस्पताल को खोलने की योजना बनाई थी जिसमें से एक बिहार के पटना में संभावित था । ग्रामीण क्षेत्रों में अस्पतालों , डिस्पेंसरियों के साथ साथ चिकित्सकों की भी घोर कमी है । ऊपर से नीम हकीमों का प्रभाव और नकली दवाइयों का फ़ैलता कारोबार स्थिति को और भी अधिक नारकीय बना रहा है ।


जो भी हो इतना तो तय है कि आज बिहार बदल रहा है , बिहार विकास की ओर अग्रसर है । सबसे जरूरी बात ये है कि अब भविष्य में चाहे कोई भी शासक या सरकार आए , इस विकास को और धीरे-धीरे बहुत मुश्किल बने इस सकारात्मक माहौल को बनाए रखा जाए । उम्मीद की जानी चाहिए कि भविष्य में बिहार अपनी गरिमा और विकास को थाम ही लेगा । 

रविवार, 22 जनवरी 2012

क्या कभी मिटेगी गरीबी






अभी हाल ही में आई दो खबरों ने सबका ध्यान अपनी ओर खींचा । पहली ये कि एक गरीब व्यक्ति जिसे उसकी पत्नी को जच्चगी के लिए अस्पताल में दाखिला नहीं मिला ने पूरी रात सडक पर अपनी मृत पत्नी व बच्चे की लाश के साथ बिताई । दूसरी ये कि न्यायपालिका ने राजधानी दिल्ली में सरकार व निगम द्वारा एक रात्रि विश्राम स्थल रैन बसेरे को गिरा दिए जाने पर अदालत के सामने पहुंच मामले में सरकार व निगम द्वारा एक रात्रि विश्राम स्थल रैन बसेरे को गिरा दिए जाने पर अदालत के सामने पहुंचे मामले में सरकार को लगभग चेतावनी देते ऐसा दोबारा नहीं होने को सुनिश्चित करने को कहा है । ऐसा भी नहीं है देश में भूख-गरीबी, ठंड  से लोगों के मरने की ये कोई नई घटना हो । उलटा अब तो ये एक नियति सी बन गई है ।


आज भी ग्रामीण क्षेत्र की उन्नीस प्रतिशत आबादी ,भूख , कुपोषण , बीमारी व अन्य प्राकृतिक आपदाओं के कारण समय से पहले काल का ग्रास बन जाते हैं । सामाजिक विकास के असंतुलन की इससे बडी विडंबना और क्या हो सकती है कि  जो देश खुद को विश्व महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर मान व बता रहा है उस देश में अब भी रोज़ हज़ारों लोग भूख , गरीबी और यहां तक कि ठंड तक से अपनी जान गंवाने को मजबूर हैं । इनमें से बहुत सारी मौतें तो सरकार प्रशासन की गिनती में ही नहीं आते हैं ।

सबसे बडे दुख की बात ये है कि जिन्हें सरकारी सहायता की आवश्यकता सबसे ज्यादा होती है उन्हीं के प्रति सरकार सबसे ज्यादा उदासीन और संवेदनहीन है । हालात की गंभीरता का अंदाज़ा दो दशक पहले प्रधानमंत्री तक ने ये माना था कि यदि सरकार गरीब के लिए सौ रुपया खर्च करती है तो वास्तव में उस गरीब तक मात्र दो रुपए ही पहुंचते हैं । आज दो दशकों के बाद बेशक ग्रामीण क्षेत्रों में मोबाइल के टॉवर आ गए हों किंतु भूख, गरीबी ,कुपोषण ,अशिक्षा आदि की स्थित वही है ।

देश में गरीबी के नहीं खत्म होने का एक बडा कारण सिर्फ़ गरीबों के लिए , उनके नाम पर चलाई जाने वाली सैकडों योजनाओं में घपले -घोटाले की असीम संभावना होना ही है । यदि देश से गरीब खत्म हो जाएं गरीबी खत्म हो जाए तो आर्थिक कदाचार की एक स्थापित परंपरा सिरे से खत्म हो जाएगी । और ज़ाहिर है कि इन घपलों घोटालों के पीछे देश का सबसे शक्तिशाली वर्ग यानि राजनीतिज्ञ और बडे पदों पर बैठे नौकरशाह ही होते हैं ।

आज सरकार विभिन करों के माध्यम से जनता से उनके श्रम की कमाई में से एक बहुत बडा हिस्सा राजकोष में संचित कर रही है इसके अलावा लोगों के अधीन संपत्ति व संपदा ,खनिज , वनस्पति आदि पर भी सरकार का अधिकार होने के कारण उसका विनिमय और मुनाफ़ा भी सरकार के हिस्से ही आता है । सरकार की वर्तमान नीतियों के अनुसार तो सरकार आज अपने नागरिकों से हर तरह का कर वसूल रही है । आम जन आज सभी करों से न सिर्फ़ परिचित हैं बल्कि वे उन करों का भुगतान भी कर रहे हैं । इन करों से इसके अलावा अन्य सभी आय श्रोतों से राजकोष में पहुंच धन का उपयोग विकास एवं शासन के लिए व्यय किया जाना चाहिए ।

प्रति वर्ष गरीबों को मूलभूत सुविधाओं को ही मुहैय्या कराने , ज्ञात हो कि पश्विमी देशों में सूचना पहुंचाने व पारदर्शिता लाने के लिए कंप्यूटर व इंटरनेट की सुविधा को मूल अधिकार की तरह मांगा जा रहा है , के लिए सरकार राजकोष के धन का एक बहुत बडा हिस्सा खर्च होता है । इन योजनाओं में से सत्तर प्रतिशत योजनाओं की जानकारी और उन योजनाओं का लाभ उठाने की पूरी प्रक्रिया से आम लोगों के अनजान होने के कारण ही इनमें व्यय की जा रही राशि की बंदरबांट शुरू हो जाती है । चूंकि इन योजनाओं के शुरू हो जाने के बाद इनके सुचारू चालन की देख रेख न हो पाना , योजनाओं की सफ़लता-विफ़लता का आकलन नहीं किया जाना , इन योजनाओं की धनराशि में गबन घोटालों व हेरफ़ेर करने वालों का साफ़ बच निकलना आदि कारणों से परिणाम ये होता है कि गरीब और गरीबी जस की तस बनी रहती है । फ़िर योजनाएं बनती हैं और इस तरह से ये चक्र चलता ही रहता है ।

देश के विकास का ढांचा का कुछ इस तरह का बन गया है कि सामाजिक -आर्थिक व राजनीतिक , हर क्षेत्र में घोर असंतुलन पैदा हो गया है । सारी सुख सुविधाएं , अधिकार व शक्तियां तक देश की बहुत बडी जनसंख्या होने के बावजूद बहुत थोडे से लोगों के पास केंद्रित होकर रह गई है । इन लोगों आम जनजीवन की आवश्यकताओं , उनकी तकलीफ़ व कठिनाई या कहें कि उनके जीवन मृत्यु से कोई सरोकार नहीं है और इसलिए वे इनके प्रति संवेदनहीन बने हुए हैं । सरकारी राजकोष के एक बहुत बडे हिस्से को यदि इस शक्तिशाली वर्ग के चंगुल से बाहर निकाल कर वास्तव में उसका उपयोग आम जन के कल्याण के लिए कर दिया जाए नि:संदेह तस्वीर कुछ और ही निकल कर सामने आएगी


सोमवार, 16 जनवरी 2012

बेहतर हो सडक प्रबंधन




दिल्ली का एक छोटा जाम




अभी हाल ही में राजधानी दिल्ली में आयोजित अंतरराष्ट्रीय ऑटो एक्सपो के दौरान उस क्षेत्र की सडकों पर लगे जाम ने एक बार फ़िर से इस बात की ओर ईशारा अक्र दिया कि अभी तक राजधानी दिल्ली का सडक प्रबंधन भी चुस्त दुरूस्त नहीं है तो पूरे देश की स्थिति क्या होगी इस अंदाज़ा सहज़ ही लगाया जा सकता है । राजधानी दिल्ली समेत तमाम महानगरों में टैफ़िक जाम की समस्या न सिर्फ़ आम समस्या है बल्कि रोज़ाना वैकल्पिक यातायात व्यवस्थाओं की शुरूआत एवं फ़्लाईओवरों के निर्माण के अलावा बहुत बडा मानव श्रम इसे दुरूसत करने के पीछे लगा रहता है ,किंतु परिणाम बहुत परिवर्तनकारी नहीं दिख रहा है ।

देश में प्रतिदिन सैकडों व्यक्तियों की मृत्यु सडक दुर्घटनाओं में हो रही है । उल्लेखनीय है कि भारत में प्रति मिनट एक दुर्घटना होती है । सडक दुर्घटना पर हाल ही में आयोजित एक अतंरराष्ट्रीय संगोष्ठी में परिवहन मंत्रालय के हवाले से ये आंकडा दिया गया कि वर्ष २०१० में दुर्घटनाओं में एक लाख ३० हज़ार लोग मारे गए तथा पांच लाख लोग घायल हुए ।  चिंताजनक बात यह है कि बहुत उपायों के बावजूद इसमें इज़ाफ़ा ही हो रहा है । पश्चिमी देशों में वाहनों की संख्या भारत से कहीं अधिक है । इतना ही नहीं अभी जहां भारत में सडक पर अधिकतम रफ़्तार की सीमा सौ किलोमीटर प्रति घंटा भी नहीं है वहीं पश्चिमी देशों में वाहनों की रफ़्तार ढाई सौ किलोमीटर प्रति घंटे तक देखी जा सकती है ।
इसमें कोई संदेह नहीं कि पिछले एक दशक में देश में सडक निर्माण के रफ़्तार और स्तर में बहुत वृद्धि हुई है । न सिर्फ़ दिल्ली ,मुंबई ,कोलकाता जैसे महानगरों में बल्कि सुदूर ग्राम देहातों में भी सडक व कच्चे मार्गों का निर्माण होता रहा ।किंतु इस निर्माणकार्य से अपेक्षित परिवर्तन व सफ़लता को नहीं पा सकने का एक बडा कारण अति निम्न स्तर के सडकों का निर्माण । एक सर्वेक्षण के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों में तो स्थिति ऐसी पाई गई कि लगभग बाईस प्रतिशत सडकें अपने निर्माण के पहले वर्ष में ही ज़र्ज़र होकर बेहद खतरनाक हो जाती हैं ।

महानगरों में सडकों पर वाहनों का बढता दबाव आने वाले समय में एक बहुत बडी समस्या का रूप ले लेगा । इस तत्य को भलीभांति समझते हुए इस दिशा में मेट्रो रेल ,मोनो रेल ,बी आर टी कॉरिडोर , बहुस्तरीय फ़्लाईओवरों का निर्माण आदि योजनाओं पर दिन रात काम चल रहा है । किंतु इन सबके वावजूद विशेषज्ञ मानते हैं कि सरकार व प्रशासन सडक प्रबंधन व्यवस्था के प्रति घोर उदासीन हैं । विशेषज्ञ मानते हैं कि सरकार व प्रशासन सडक प्रबंधन व्यवस्था के प्रति घोर उदासीन हैं । विशेषज्ञों ने सडकों पर बढती अव्यवस्था के लिए अपने अध्य्यन में कुछ तथ्यों को विशेष रूप से चिन्हित किया है । आए दिन विभिन्न विभिन्न कारणों से आमजनों द्वारा सडकों को निशाना बनाने की बढती प्रवृत्ति को बेहद खतरनाक माना गया है ।

विशेषज्ञ मानते हैं कि महत्वपूर्ण इमारतों ,धार्मिक स्थलों , पर्यटन स्थलों , सरकारी व गैर सरकारी कार्यालयों तथा मनोरंजन स्थलों के आसपास स्थित सडकों का प्रबंधन एवं यातायात को सुचारू किया जाना सबसे ज्यादा जरूरी है । विकासशील देशों में सार्वजनिक परिवहन साधनों के उपयोग से ज्यादा निजि वाहनों के प्रयोग के चलन से भी सडक जाम का एक मुख्य कारण है । सडक सुरक्षा के लिए कार्य कर रहे विशेषज्ञ इस बात पर बेहद हैरानी जताते हैं कि पश्चिमी देशों में कार्यालयीय समय के दौरान सडकों पर वाहनों की भीड को कम करने व रखने के लिए सफ़लतापूर्वक अपनाई गई पूल व्यवस्था भारत में न के बराबर हैं ।

अक्सर देखा जाता है कि व्यस्त सडकों के साथ ही बहुत बार राजमार्गों पर किसी कारणवश किसी वाहन के रूक जाने के कारण बहुत राजमार्गों एवं अन्य सडकों के लिए न सिर्फ़ उन्नत तकनीक पर आधारित मशीनों\क्रेनों की उपलब्धता सुनिश्चित करनी चाहिए बल्कि ये भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि यातायात प्रबंधकों की पहुंच वहां जल्द से जल्द हो । नागरिकों को भी ये बात भलीभांति समझानी चाहिए कि ऐसी परिस्थितियों में उन्हें धैर्य बनाए रख कर प्रशासन को सहयोग देना चाहिए ।

राजधानी समेत देश के अन्य सडक मार्गों पर यात्रियों एवं वाहनों की सहायता के लिए दिशा-निर्देश सूचकों एवं मार्गों मानचित्रों की अनुपब्धता भी सडक प्रबंधन को बाधित करती है । सडकों के साथ सभी महत्वपूर्ण मार्गों के मानचित्र , अन्य दिशा सूचक मानचित्र , सहायता सेवाओं के दूरभाष व पते ,निकटतम अस्पताल का दूरभाष नंबर व पता तथा ऐसी तमाम एहतियाती उपायों पर तेज़ी से कार्य किया जाना चाहिए ताकि दुर्घटनाओं की संख्या और उसकी चपेट में आने वाली जिंदगियों को बचाया जा सके । सडक निर्माता कंपनियों , ठेकेदारों व कारीगरों को सडक की गुणवत्ता में कमी के लिए सीधे जिम्मेदार मान कर कडा दंड दिया जाना चाहिए ।


सबसे मुख्य बात ये कि आम जन से लेकर सरकार व प्रशासन को सडक का महत्व समझना चाहिए और उसकी इज़्ज़त करनी चाहिए क्योंकि यही विकास का रास्ता होता है ।










शुक्रवार, 30 दिसंबर 2011

आरक्षण : बैसाखियों पर बढता विकास

इसी विषय पर हाल ही में बने एक पिक्चर का पोस्टर चित्र , गूगल से साभार







बहुत पहले ही भारतीय राजनीतिक के चरित्र को भली भांति परखते हुए किसी ने ठीक कहा था कि भारतीय राजनीति में धर्म ,जाति ,भाषा ,के आधार पर रखे गए विशेष प्रावधानों को वोट बैंक की तरह इस्तेमाल होने के कारण यही आशंका बनी रहेगी कि इसका उपयोग समय समय पर सत्ता के हितों के लिए किया जाता रहेगा । न्यायपालिका ने सरकार और राजनीतिज्ञों के इसी मंसूबे को भांप कर अपने एक महत्वपूर्न निर्णय में ये व्यवस्था दी कि किसी भी सूरत में आरक्षण की सीमा पचास प्रतिशत से अधिक नहीं होनी चाहिए ।

यहां ये देखना बहुत महत्वपूर्ण है कि बीते दो वर्ष में न सिर्फ़ आरक्षण बल्कि एक विशेष वर्ग में आरक्ष्ण को लेकर कई बार पूरे उत्तर भारत की यातायात व्यवस्था को ठ्प्प किया गया । सरकार और प्रशासन की तटस्थता व अक्रियशील रहने का खामियाज़ा न सिर्फ़ यातायात व्यवस्था के चरमराने तक ही भुगतना पडा बल्कि बहुत भारी आर्थिक नुकसान का दंश भी झेलना पडा । यहां तक कि ,बाध्य होकर न्यायपालिका को ही सरकार को झिंझोड कर उठाना पडा ।

 इस बार इस मामले का ज्यादा तूल पकडना स्वभाविक है क्योंकि इस बार आधार जाति से अलग धर्म की ओर मुड गया है । देश के राजनीतिज्ञों के द्वारा अतिधर्मनिरपेक्षतावाद की नीति के तहत बेशक भारत की छवि को मांजने की जबरन कोशिश हो रही है किंतु धर्म , धार्मिक मुद्दों , चिन्हों , धर्म स्थलों को लेकर समाज कितना संवेदनशील है यह किसी से छुपा नहीं है । अल्पसंख्यकों को प्रस्तावित इस आरक्षण का आधार सरकार द्वारा अल्पसंख्यकों की स्थिति पर रिपोर्ट हेतु गठित सच्चर आयोग की रिपोर्ट ही बनी है । इसमें कोई संदेह नहीं कि आज विश्व के अन्य मुस्लिम बाहुल्य देशों के मुस्लिम समाज की स्थित से बहुत बेहतर होने के बावजूद आज भी पिछडेपन और अलगाव का दंश झेल रहा है । शिक्षा, रोजगार, सामाजिक हिस्सेदारी व प्रभाव आदि हर क्षेत्र में अल्प संख्यकों की स्थिति संतोषजनक से नीचे है । बेशक इसकी एक बहुत बडी वजह भी कहीं न कहीं वे खुद ही है ।

अल्पसंख्यकों को आरक्षण , यानि धार्मिक अल्पसंख्यकों को , उनके पिछडेपन से विकास की ओर लाने के लिए एक पूरक प्रयास, थोडी देर केलिए इसे दरकिनार करके सिर्फ़ आरक्षण व्यवस्था पर बात की जाए तो पता चलता है कि संविधान में तात्कालिक उपचार के रूप में अपनाई गए इस व्यवस्था को इतनी बार बुरी तरह से तोडा मरोडा गया कि ये पिछडों के विकास और स्तर के मूल उद्देश्य से ही भटक कर रह गई । सबसे अधिक चिंताजनक बात ये है कि देश के सभी योग्यता सिद्ध करने वाली चुनौतियों को सहज़ बना लेने के बावजूद भी कभी भी ये महसूस नहीं हो सका कि आरक्षण व्यवस्था ने सामाजिक संतुलन में महती भूमिका निभाई । इसके विपरीत इसने जातियों को उपजातियों तक से अलगाव को प्रोत्साहित किया । दूसरी तरफ़ इस व्यवस्था का लाभ पाने वालों को सामान्य गैर आरक्षित वर्ग से एक अघोषित ताना मिलता रहा ।

आज आरक्षण की व्यवस्था ने युवाओं में दो बातें तो पूरी तरह स्थापित कर ही रखी हैं । नौकरियों , दाखिलों , अन्य चुनौतियों में आरक्षण की व्यवस्था यानि अवसरों का बिल्कुल आधा हो जाना , जिसका प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष प्रभाव बाद में उस संस्थान की उत्पादकता पर भी पडता है । दूसरी ये कि जो इस व्यवस्था के लाभ पक्ष की ओर हैं क्या उनकी स्थिति और स्तर ने उनके वर्ग की स्थिति को मजबूत बनाकर उभारा है । कोई भी तात्कालिक उपाय इतनी देर तक लादे नहीं चलना चाहिए कि ऐसा लगने लगे कि यही स्थाई व्यवस्था होकर रह गई है ।

समाजशास्त्री अपने अध्य्यन और निष्कर्ष के आधार पर किसी भी देश में सामाजिक संरक्षण के रूप में आरक्षण की व्यवस्था के लिए धर्म , जाति व भाषा से इतर क्षेत्र को वरीयता दिए जाने की बात करते हैं । सबसे पहला आधार आर्थिक पिछडापन और पीडित गरीब परिवार के जीवन स्तर को एक मानक स्तर पर पहुंचते ही उसके लिए ये व्यवस्था समाप्त हो जानी चाहिए । हालांकि पिछले दिनों योजना आयोग के "गरीब " की परिभाषा ने समाजशास्त्रियों को पुन: सोचने पर विवश किया होगा । इसके अलावा शारीरिक मानसिक विकलांगता , विशिष्ट क्षेत्र , खेल ,कला आदि में प्रदर्शन करने वालों , समाज के लिए कुछ अनुकरणीय करने वालों के लिए इस व्यवस्था को अपनाया जाना चाहिए । लिंग भेद व कन्या भ्रूण हत्या के मद्देनज़र वे महिलाओं को न सिर्फ़ विशेष संरक्षण बल्कि ज्यादा प्रभावी अधिकार देने की बात कहते हैं । भारत का सामाजिक तानाबाना प्राचीनकाल से ही बहु-धर्मीय, बहुजातीय व बहुक्षेत्रीय रहा है , इसलिए अब ये बहुत जरूरी हो जाता है कि नीतियां और व्यवस्थाएं समाज को जोडने वाली बनें ,न कि तोडने वाली । बहरहाल , इस नए अल्पसंख्यक आरक्षण के सियासी और सामाजिक परिणामों की प्रतीक्षा पूरे देश को रहेगी ।

गुरुवार, 29 दिसंबर 2011

महंगी होती शिक्षा : दाखिले की मारामारी




चित्र गूगल खोज़ से , साभार



वर्षांत के दिन बेशक ही साल भर खोए पाए के आकलन और विश्लेषण के दिन होते हैं । किंतु इसके साथ ही राजधानी दिल्ली मुंबई जैसे महानगरों में ये उन अभिभावकों की भाग दौड के दिन होते हैं । राजधानी दिल्ली के स्कूलो में तो नर्सरी के दाखिले की रेलमपेल कॉलेजों में व नामी संस्थानों में प्रवेश सरीखा ही कठिन जान पडता है । राष्ट्रीय
राजधानी क्षेत्र की जनसंख्या में बहुत तीव्र गति से वृद्धि हो रही है । हालांकि पिछले दो दशकों में विद्यालयीय शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक निजि विद्यालयों व संस्थानों के स्थापित होने की दर भी काफ़ी तीव्र रही है । बेशक सरकार व प्रशासन नए स्कूल कॉलेज खोलने , विशेषकर बढ रही जनसंख्या के अनुपात में , सर्वथा विफ़ल रहे । या फ़िर शायद जानबूझ कर ऐसी स्थिति उत्पन्न की गई वर्ना इसकी कोई ठोस वजह नहीं दिखाई देती कि सरकार निजि शिक्षण संस्थानों सब्सिडी दर पर भारी रियायत देकर जमीनों का आवंटन तो कर देती है मगर खुद वहां नए शिक्षण संस्थानों का निर्माण नहीं करती ।

ऐसा भी नहीं है कि देश में स्कूली शिक्षा के लिए कभी कुछ किया सोचा नहीं गया । शिक्षा वो भी नि:शुल्क शिक्षा को अधिकार के रूप में पाने के लिए बने कानूनों के अलावा नवोदय, सर्वोदय, केंद्रीय विद्यालय जैसी राष्ट्रीय योजनाओं पर भी काफ़ी काम किया गया । इसमें कोई संदेह नहीं कि शहरी आबादी के बाहर इन विद्यालयों की सफ़लता बेहद महत्वपूर्ण साबित हुईं । लेकिन इन सबके बावजूद ग्रामीण भारत में प्राथमिक व माध्यमिक शिक्षा ही बडे लक्ष्य बन कर रह गई है । उच्च शिक्षा की तो कल्पना ही बेमानी सी लगती है ।

इस तुलना में नगरीय क्षेत्र की गरीब व पिछडी आबादी के बच्चों की साक्षरता दर ज्यादा बेहतर है । हालांकि शायद ये तथ्य ही वास्तविकता को बताने के लिए पर्याप्त है कि राजधानी दिल्ली के सरकारी प्राथमैक -माध्यमिक विद्यालयों में से १८ प्रतिशत में पेयजल और शौच की तथा २७ प्रतिशत में बच्चों के लिए बैठने पढने की समुचित व्यवस्था नहीं है । इन सरकारी विद्यालयों की इस बदहाल स्थित के कारण ही आज इनमें सिर्फ़ अति निर्धन वर्ग के बच्चे पढने जाते हैं । इससे बडी विडंबना और क्या हो सकती है कि सरकारी विद्यालय होने के बावजूद सरकारी कर्मचारी तो दूर खुद इन विद्यालयों में पढाने वाले शिक्षक तक अपने बच्चों को इनमें नहीं पढाते हैं ।

राजधानी दिल्ली समेत अन्य स्थापित हो रहे महानगरों में आसपास के क्षेत्रों के लोगों के पलायन से शहरी आबादी का दबाव बढता ही गया । पिछले दो दशकों में शिक्षा क्षेत्र में निजि संस्थानों की भूमिका व विस्तार में गजब का विकास हुआ । वैश्विक जगत में हो रही शैक्षणिक क्रांतियों और ई युग के सूत्रपात ने भारतीय युवाओं को विश्व भर में खुद को स्थापित करने का मौका दिया । बच्चों ने वक्त के साथ अपने हाथ मिलाते हुए नए व्यावसायिक , गैर पारंपरिक और भविष्य की चुनौतियों से लडने वाले पाठ्यक्रमों को न सिर्फ़ अपनाया बल्कि बहुत जल्दी ही इसमें अपनी काबलियत भी साबित कर दी । किंतु ये भी तय है कि आज शहरों में शिक्षा की शैली , और उसका घओर व्यावसायिक रूख बच्चों को पढा बढा तो रहा है किंतु शिक्षित कर पा रहा है , इसके लिए सोचना होगा ।

राजधानी दिल्ली में फ़ैले और अब भी स्थापित हो रहे स्कूलों में नर्सरी दाखिले की प्रकिया शुरू हो चुकी है । रोज़ इस तरह की खबरें सामने आ रही हैं कि शिक्षा विभाग और अदालती निर्देशों व सख्त हिदायतों के बावजूद सभी विद्यालय , नई नई तरकीबों से न सिर्फ़ अभिभावकों को परेशान कर रहे हैं। ऐसा हर बार सिर्फ़ इसलिए किया जाता है ताकि अभिभावकों से एक मोटी धनराशि वसूली जा सके । स्कूल अपने यहां वातानुकूलित और गैरवातानुकूलित सुविधा का ढिंढोरा जिस तरह से पीटते हैं वही उनकी मंशा को स्पष्ट करने के लिए काफ़ी है । हालात सिर्फ़ इतने ही तक खराब नहीं हैं, रियायती दरों पर आवंटित ज़मीनों पर खुलने वाले स्कूलों में अनिवार्य रूप से बीस प्रतिशत गरीब बच्चों के दाखिले की शर्त को शायद ही कोई विद्यालय पूरा करता हो । दिल्ली में पैकेजनुमा होता , स्कूली दाखिला आने वाले समय में शहर की गरीब आबादी के लिए एक दु:स्वप्न बन कर रहे जाए तो कोई आश्वर्य नहीं ।



मंगलवार, 27 दिसंबर 2011

राष्ट्रीय संघर्ष का वर्ष ......आज का मुद्दा








भारतीय इतिहास में यदि वर्ष २०११ को सिर्फ़ किसी खास वजह के लिए याद रखा जाएगा तो वो होगा अचानक उठे देशव्यापी जनांदोलन से बने राष्ट्रीय संघर्ष के जन्म वर्ष के रूप में । देश में आज़ादी के बाद लोकतंत्र में आम आदमी को अपने अधिकार और उससे लगातार वंचित किए जाने का एहसास तब हुआ जब अबसे कुछ साल [प्प्र्व आम जनता को सूचना का अधिकार हासिल हुआ । संयोग से ये वैश्विक राजनीति में चल रहे परिवर्तन के दौर का सहभागी बनते हुए देश के युवा,कुछ ईमानदार प्रशासक तथा व्यवस्था के सड गल चुकने के कारण क्षुब्ध हुए विशिष्ट विद्वानों ने समाज के लिए बनाए जा रहे कानूनों की पडताल कर दी ।

ये भारत के राजनीतिक इतिहास में पहली बार हो रहा था कि आम लोग किसी प्रस्तावित कानून , जो कि भ्रष्टाचार के विरूध लाया जा रहा था , के बारे में न सिर्फ़ पूछ और बता रहे थे बल्कि उसकी कमियां बता कर बेहतर विकल्प सामने लेकर खडे थे । देश की राजनीति जो पिछले एक दशक से लगभग दिशाहीन चल रही थी , जनता द्वारा सीधे-सीधे अपना अधिकार मांगने की नई प्रवृत्ति से बौखला कर दोषों को दूर करके जनता का विश्वास पाने के बदले बेशर्म , बेखौफ़ व बेलगाम सा व्यवहार करने लगीं ।

भारतीय मीडिया ने पिछले एक दशक का सफ़र बेहद तीव्र गति से तय किया । बेशक पेशेवराना अंदाज़ व स्वाभाविक जिम्मेदारी के अपेक्षित स्तर से पीछे रहने के बावजूद आज विश्व की आधुनिकतम सूचना तंत्र प्रणाली से कदम से कदम मिला कर चलता मीडिया अब काफ़ी प्रभावी बन चुका है । भारतीय जनमानस के बदलते तेवर और भीतर भरे आक्रोश को चेहरा देकर मीडिया  ने इसे विश्व सुर्खियों में ला दिया । यहां भारतीय लोकतंत्र बहुत से मायनों में खुशकिस्मत साबित हुआ । इसे प्रजातांत्रिक शासन की सफ़लता के लिए सबसे आवश्यक "न्याय की स्थापना " हेतु निष्पक्ष , निडर व काबिल न्यायपालिका का सरंक्षण मिला । भारत के आसपास पाकिस्तान , बांग्लादेश ,श्रीलंका
आदि देशों में राजनीतिक अस्थिरता ने फ़ौरन ही तानाशाही वर्दी शासन को न्यौता दे दिया ऐसे में बडे से बडे राजनीतिक संकट के समय भी भारतीय सैन्य बलों का तटस्थ व अनुशासित रह जाना एक बडी उपलब्धि से कम नहीं हैं ।

देश का हर वर्ग , हर विधा ,हर क्षेत्र ,शिक्षा , स्वास्थ्य , मनोरंजन आदि सब कुछ तीव्र परिवर्तन के दौर से गुजर रहे है । आम आदमी अब पहले से ज्यादा जागरूक हो गया है । इसलिए अब राज्य को ये बात भली भांति समझनी चाहिए कि लोकतंत्र में सबसे अहम बात होती है लोकइच्छा । भारतीय राजनीति , राजनीतिज्ञों के भ्रष्ट आचरण व बेईमान नीयत के कारण अब तक के सबसे निम्न स्तर पर है । आए दिन राजनेताओं के साथ किया जाने वाला व्यवहार , अभिव्यक्ति देने वाले मंचों पर निकल रही भडास आदि को देखने के बाद आम जनता की मनोस्थिति का अंदाज़ा सहज़ हो जाता है ।

आज विदेशों में भारतीयों द्वारा छिपाकर रखे गए काले धन की वापसी का मुद्दा हो ,या भ्रष्टाचार से निपटने के लिए बनाए जा रहे किसी कानून को दुरूस्त करने का मुद्दा । महत्वपूर्ण पदों पर अयोग्य व भ्रष्ट व्यक्ति की नियुक्ति का मुद्दा हो या फ़िर तेज़ी से बढे घोटालों में खुद सरकार के मंत्रियों की भूमिका और ऐसे तमाम मुद्दों पर सरकार ने न सिर्फ़ गैर जिम्मेदाराना व्यवहार किया बल्कि कई बार वह अपना बचाव करते हुए तानाशाही स्वरूप अपनाती लगी । आज देश के चुने हुए जनप्रतिनिधि जो विचार , जो बहस जो तर्क संसद के भीतर उस कानून को कमज़ोर करने के लिए दे रहे हैं , जिसे भ्रष्टाचार को हटाने में सहायक माना जा रहा है , क्या वही तर्क देश की आम अवाम का भी है । यदि ऐसा है तो फ़िर पिछले तीन सौ पैंसठ दिनों में जाने कितनी ही बार उस कानून को बनाने की मांग को उठा कर सडकों पे आते रहे हैं ।


सत्ता और सरकार बेशक अपने अधिकारों के उपयोग -दुरूपयोग से जनता के प्रश्नों और उनकी मांगों को उलझाने के प्रयास में लगी रही हो । किंतु इतना तो तय है कि अब ये सवा अरब की जनसंख्या वाले समूह को हठात ही मूर्ख नहीं बनाया जा सकता । ऐसा नहीं है कि इस परिवर्तन के सब कुछ अनुकूल चल रहा है , बल्कि सच कहा जाए तो ये सब तक उस मिथक को तोडने में भी सफ़ल नहीं हो पाया है कि भारत में ये मानसिकता सिद्ध है कि देश से भ्रष्टाचार को समाप्त नहीं किया जा सकता । लोकपाल-जनलोकपाल बिल का मुद्दा, कानून में बदलेगा या सत्ता और अवाम के बीच संघर्ष बिंदु बनेगा ये तो वक्त ही बताएगा । हां आज जिस तरह से भ्रष्टाचार के विरूद्ध आम लोगों ने अपनी क्षुब्धता ज़ाहिर की है उससे ये अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि आने वाले कानूनों को बनने-बनाने से पहले जनता अपनी कसौटी पर उसे परखेगी ।

देश के लिए ये बहुत संवेदनशील समय है । विश्व आर्थिक मंदी के चपेट में है । प्राकृति अस्थिरता और पर्यावरणीय असंतुलन के साथ आतंकवाद के सबसे खतरनाक स्तर तक पहुंचने की संभावना के बीच चुपचाप विकास की ओर बढते रहना , वैश्विक समुदाय की ईर्ष्या का कारण बनने के लिए पर्याप्त है । विपरीत परिस्थितियों व बुनियादी समस्याओं से दो चार होते रहने के बावजूद देश की जनता ने लोकतंत्र में विश्वास बनाए रखा है । पिछले दिनों महंगाई की बढती दर ने आम आदमी के आक्रोश को मुखर होने के लिए उकसा दिया । आम जनता के सामने आज सबसे बडी चुनौती यही है कि देश को चलाने के लिए और जनप्रतिनिधि कहां से , किसे लाए । भविष्य में देश की जनता को इसी तरह से हर कानून, हर अधिकार और हर नियम के लिए सरकार से भागीदारी करनी होगी , और गलतियों को सुधारना होगा ।

सोमवार, 26 दिसंबर 2011

फ़िज़ूलखर्ची का बीमा







अभी हाल ही में बीमा निवेश वाली दो प्रमुख कंपनियों आईसीआईसीआई लोम्बार्ड तथा बज़ाज़ एलाएन्ज़ ने एक नए तरह के बीमे की शुरूआत की है । इसके तहत शादी-विवाह के आयोजनों के बीमे का प्रावधान किया गया है , जिनमें किसी भी तरह का व्यवधान , किंतु कारण मानवीय न हो ,पडने से शादी हो नहीं पाती है । आज महानगरीय जीवन की आपाधापी में शादी विवाह के आयोजन जैसे समारोह अपना रसूख व शानो शौकत दिखाने का एक बहाना सा बन गए हैं ।

आज सामाजिक परिवेश में आ रहे परिवर्तन न सिर्फ़ रहन-सहन , आचार व्यवहार को बदल रहे हैं बल्कि नई प्रवृत्तियां और प्रचलन गढ रहे हैं । भारत में यूं भी काफ़ी प्राचीन समय से जीचन के प्रमुख पडावों , संस्कारों , रीति रिवाज़ों आदि अवसर्पर जी भरके फ़िज़ूलखर्ची के अवसरों की गुंजाईश रहती आई है । ये दूसरे देशों के लिए शायद विस्मय की बात हो सकती है ,कि आज भी देश के बहुत बडे हिस्से में किसी व्यक्ति की मृत्यु के उपरांत किए जाने वाले कर्मकांड उसके जीवन के किसी अवसर से भी ज्यादा महंगी होती है । ग्राम्य जीवन में तो मानव जीवन्के इस अंतिम संस्कार की परंपरा का निर्वाह उनके आर्थिक पिछडेपन और कर्ज़खोरी का एक अहम कारण था ।

शहरी समाज में बेशक वैवाहिक परंपराओं के साथ -साथ विवाह नामक संस्था के चिर मान्यताकरण में कमी आई हो किंतु इसके आयोजन की आडंबरता विशाल होकर इवेंट मैनेजमेंट सरीखे व्यवसाय का रूप ले चुकी है । भारतीय शहरों में शादी-विवाह के आयोजनों का खर्च अब हज़ारों लाखों से आगेबढकर करोडों अरबो में पहुंच गया है । आज ये तमाम परंपराएं फ़िज़ूलखर्ची और तडक भडक वाले आडंबरों का प्रदर्शन मात्र है । बैचलर पार्टी ,मेंहदी , सेहराबंदी , रिसेप्शन तहा विवाह से जुडी हर परंपरा अब एक इवेंट का रूप ले चुकी है । ज़ाहिर है कि इतने महंगे आयोजन को किसी आशंका से ध्वस्त होने के जोखिम से बचने के लिए ये बीमा सही साबित होगी ।

इस मुद्दे के साथ एक बार फ़िर से इस विषय पर ध्यान अटकता है कि क्या इस देश को फ़िज़ूलखर्च करने की छूट दी जानी चाहिए । जिस देश में दो वक्त का भोजन सुनिश्चित करने के लिए कानून लाने की बाध्यता हो क्या उस देश में वाकई एक रात में धूम धडाके , बेहिसाब भोज्य सामग्री , नाच गान ,मनोरंजन के लिए बहा देना कोई अनुचित प्रवृत्ति नहीं है । शहरों में पिछले एक दशक में फ़ार्म हाऊस संस्कृति ने जलसे दावत की एक ऐसी परंपरा शुरू की जो आज भी विकसित कहे जाने वाले समाज के लिए एक नियमित अपव्यय सा बन कर रह गई है ।

ऐसा नहीं है कि फ़िज़ूलखर्ची को समस्या के रूप में नहीं देखा जा रहा है । अभी कुछ माह पूर्व राजस्थान में मृत्यु भोज को अनावश्यक व अवैधानिक घोषित करके एक बडी शुरूआत की गई । यह दलील दी गई कि जिस देश में प्रतिदिन सैकडों लोग अब भी भूख से मर रहे हों वहां जबरन इतने अन्न का अपव्यय क्या उचित बात है । देश आज एक बहुत बडा वैश्विक बाज़ार बन कर उभरा है । किसी भी नई चीज़ के लिए तो ग्राहकों की एक बडी फ़ौज़ सतत प्रतीक्षारत रहती है । किंतु महानगरीय से नगरीय और कस्बाई परिवेश से होकर ग्राम्य समाज तक विकास और जीवन स्तर में एक अनिवार्य साधन के रूप में अपनाए जाने वाले टीवी मोबाइल , कार, कपडे अब धीरे धीरे अपव्यय का परिचायक बन चुके हैं ।

भारतीय समाज की फ़िज़ूलखर्ची प्रवृत्ति में उसका पूरा साथ निभाया है देश की उत्सवी संस्कृति ने । इस देश के सभी प्रांतों के पास अपने अपने उत्सवों के लिए ढेरों दिन व तौर तरीके उपलब्ध रहे हैं । हां यहां ये तत्य जरूर गौरतलब रहा है कि भारतीय ग्रामीण समाज के उत्सव व परंपराएं त्यौहार आदि न सिर्फ़ कृषि अर्थव्यवस्था के अनुरूप थीं बल्कि उनका मानव जीवन के सदविकास में भी खासा महत्व था ।

भारत में वैश्विक उदारीकरण के दौर के शुरू होते ही पश्चिमी देशों की बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने अपने यहां की संस्कृति के अनुरूप और अतंत: उनके बाज़ारों के लिए एक नए विकल्प के रूप में मदर्स डे , फ़ादर्स डे , वेलेंटाईन डे आदि नए उत्सवों को आधुनिक नगरों में प्रवेश कराया । आज मकर संक्रांति व वसंत पंचमी के स्थान पर वेलेन्टाईन डे की प्रमुखता हावी हो गई है जिसने भारतीय बाज़ारों पर विदेश प्रभावों को चिन्हित सा कर दिया है ।


आज विश्व अर्थव्यवस्था उस दौर में प्रवेश कर चुकी है जब सभी देश व क्षेत्र अपने आर्थिक सामाजिक हितों को सर्वोपरि वरीयता दे रहे हैं । भारत अब तक अपनी बहुत सी विशिष्टताओं के कारण अब तक न सिर्फ़ खुद को मंदी की चपेट को बचाए रख सका है बल्कि विकास की संभावनाओं को भी बरकरार रखा है । इसलिए यह बहुत आवश्यक है कि समाज अपनी इस ताकत को समझे और फ़िज़ूलखर्ची को हतोत्साहित करके देश की आर्थिक संबलता में सहयोग दे । फ़िज़ूलखर्ची के बीमे से अच्छा है बचत से विकास का रास्ता ।
Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...